कृषि क्षेत्र को बदलने के लिए सहकारिता को केंद्र में रखने की जरूरत
भारत का कृषि क्षेत्र मुख्य रूप से प्रति एकड़/प्रति किसान कम उत्पादकता, कृषि और गैर कृषि क्षेत्र के बीच व्यापार की प्रतिकूल शर्तों और छोटे तथा सीमांत किसानों की अधिकता के लिए जाना जाता है।
भारत का कृषि क्षेत्र मुख्य रूप से प्रति एकड़/प्रति किसान कम उत्पादकता, कृषि और गैर कृषि क्षेत्र के बीच व्यापार की प्रतिकूल शर्तों और छोटे तथा सीमांत किसानों की अधिकता के लिए जाना जाता है। देश में कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा का यही छोटे और सीमांत किसान उत्पादन करते हैं, जिनके पास बेहतर उत्पादन के लिए संसाधनों का अभाव रहता है। इससे न सिर्फ उनका व्यक्तिगत विकास रुकता है बल्कि कृषि क्षेत्र का विकास भी बाधित होता है। किसान भी विकास को हासिल कर सकें और उनका जोखिम कम हो, इसके लिए जरूरी है कि कर्ज और बीमा जैसी सेवाओं तक उनकी पहुंच हो, इनपुट और बाजार तक उनकी पहुंच समान और आसान की जाए, नीति निर्माताओं, कृषि शोध संस्थानों और किसानों के बीच अबाध जुड़ाव स्थापित किया जाए।
भारत में कृषि क्षेत्र के लिए सप्लाई आधारित नजरिया अपनाया जाता है। लेकिन यह नजरिया न तो किसानों की सभी जरूरतें पूरी करने में कामयाब रहा और न ही उपभोक्ताओं की। यह नजरिया इस अवधारणा की उपज है कि शीर्ष स्तर पर जो भी योजना बनाई जाएगी वह नीचे तक सभी लोगों तक समान और सही तरीके से पहुंचेगी। लेकिन यह बात सही नहीं है, क्योंकि हमने देखा है कि किसानों के मालिकाना हक और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थागत फ्रेमवर्क के बिना देश के 30 करोड़ से अधिक किसानों की समस्याओं को सुलझाना बहुत मुश्किल है। बड़ी संख्या में ऐसे किसान हैं जिनकी पहुंच सूचनाएं और जानकारी देने वाले संस्थानों तक नहीं है। वे औपचारिक रूप से वित्तीय सेवाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। ये अड़चनें किसानों की क्षमता को बाधित करती हैं और उनके विकास की राह में रोड़े बनती हैं।
आगे क्या किया जाना चाहिए?
ग्रामीण क्षेत्र में जो भी गतिविधियां होती हैं, उन सब पर कृषि का प्रभाव होता है और कृषि भी उन सबसे प्रभावित होती है। कृषि क्षेत्र का विकास गैर कृषि क्षेत्र के विकास का भी इंजन है। किसान और पूरे देश की संपन्नता कृषि क्षेत्र के बदलाव पर काफी हद तक निर्भर करती है। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ही नहीं, बल्कि यह बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार और आमदनी भी उपलब्ध कराती है।
भारत में कृषि योग्य भूमि की प्रचुरता, खेती के लिए अनुकूल मौसम और लोगों की बढ़ती कमाई के कारण खपत के पैटर्न में बदलाव, ये सब ऐसी वजहें हैं जिनसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ सकती है। किसानों के सशक्तीकरण पर कृषि क्षेत्र के विकास का असर भी स्पष्ट है। माना जाता है कि कृषि क्षेत्र में एक फ़ीसदी अतिरिक्त बढ़ोतरी होने पर किसानों के हाथ में 75,000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आमदनी आती है। इससे आखिरकार उनकी क्रय क्षमता बढ़ती है।
कृषि और जलवायु के मामले में विविध और अनुकूल परिस्थितियां कृषि उत्पादन में भारत को प्रतिस्पर्धी बनाती हैं। भारत में ऊंची कीमत और अच्छी क्वालिटी की उपज का उत्पादन करने की क्षमता है। यदि इन क्षमताओं का पूरी तरह से दोहन किया जाए तो भारत दुनिया का प्रमुख खाद्य सप्लायर बन सकता है। यही नहीं, भारत की आबादी 130 करोड़ से अधिक है जिसमें युवा अधिक हैं। इस लिहाज से भारत स्वयं भी खाद्य उत्पादों की खपत का बड़ा हब है।
कृषि अर्थव्यवस्था को लाभदायक बनाना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र में बड़ी आबादी इससे जुड़ी हुई है। अंतिम उपभोक्ता जिस कीमत पर कोई वस्तु खरीदता है, उसका बड़ा हिस्सा किसानों को मिलना चाहिए। इससे किसान खेती को लेकर उत्साहित होंगे। वरना जिस तरह से खेती से जुड़ी गतिविधियों में किसानों की रुचि कम हो रही है, वह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए निराशाजनक और नुकसानदायक साबित हो सकती है। कृषि अर्थव्यवस्था के लिए एक मजबूत और प्रभावी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करना जरूरी है, ताकि इस क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ सके।
इन दिनों नए कानूनों के जरिए कॉरपोरेट और किसानों के बीच सीधे संपर्क स्थापित करने की जो बात कही जा रही है, वह न तो व्यावहारिक रूप से संभव है न ही यह व्यवस्था हमारे देश के किसानों की समस्याओं को दूर करने में सक्षम होगी। भारत के संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की समस्याएं दूर करने के लिए सशक्तीकरण, भागीदारी और समावेशिता को हमें अपने विचारों के केंद्र में रखना पड़ेगा। कोऑपरेटिव और इस तरह के अन्य समूह आधारित तरीके कृषि विकास के नए और व्यावहारिक मॉडल बन सकते हैं। भारत में यह मॉडल काफी जांचा परखा भी है।
कोऑपरेटिव और किसान समूहों का लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की आर्थिक परिस्थितियां बेहतर करना है। इसके लिए वे अकेले काम न करके साथ मिलकर काम करते हैं। इस परंपरा ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया, पेशेवर तौर-तरीका, स्थानीय स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास तथा समुदाय के स्तर पर उद्यमिता विकसित करने जैसे मूल्यों को बढ़ावा दिया है। लेकिन ये मूल्य अब गिरावट की राह पर हैं और कोऑपरेटिव सरकार के नियंत्रित संस्थानों की तरह कार्य कर रहे हैं।
कोऑपरेटिव के प्रबंधन और कामकाज दोनों में लोकतांत्रिक चरित्र को बरकरार रखने की जरूरत है। यदि इन संस्थाओं का प्रबंधन चुने हुए सदस्यों के हाथों में दिया जाए और उन्हें पूरे अधिकार के साथ काम करने की आजादी मिले तो ये संस्थाएं सच्चे अर्थों में सहकारी बन सकती हैं। कोऑपरेटिव को किसी पेशेवर संगठन की तरह काम करने की भी जरूरत है। उन्हें भविष्य को ध्यान में रखकर योजनाएं बनानी चाहिए ताकि लंबे समय में उनकी बाजार हिस्सेदारी न सिर्फ बनी रहे बल्कि बढ़े भी।
कोऑपरेटिव के उद्देश्य रक्षात्मक और अति सक्रिय दोनों होते हैं। रक्षात्मक उद्देश्य यह है कि कोऑपरेटिव छोटे उत्पादकों को असमान प्रतिस्पर्धा से बचाते हैं। अति सक्रिय उद्देश्य के तहत कोऑपरेटिव बिजनेस के नए अवसरों का लाभ उठाते हैं। नए बाजार खुलने, सरकार की तरफ से आयोजित कार्यक्रम बंद होने या उनके निजीकरण से बिजनेस के नए अवसर पैदा हो सकते हैं। अति सक्रिय कोऑपरेटिव खुद को अनुकूल बना कर बाजार में खड़े रहते हैं जिसका उनके सदस्यों को निरंतर फायदा मिलता रहता है। इन इनोवेटिव और सफल कोऑपरेटिव ने सहकारिता के सिद्धांतों की नए तरीके से व्याख्या की है, जिससे ये अपने सदस्यों के इस्तेमाल और निवेश के लिहाज से ज्यादा लाभकारी साबित होते हैं। कोऑपरेटिव के सदस्य उपयोगकर्ता के साथ निवेशक की भी भूमिका निभा सकें, इसके लिए जरूरी है कि कोऑपरेटिव नए तरीके अपनाएं, तभी वे सफल हो सकेंगे।
आगे बढ़ने और प्रतिस्पर्धा के कारण कोऑपरेटिव जटिल होते जाते हैं। इसके अलावा ज्यादा मुक्त और सक्षम बाजार के कारण अवसर बढ़ने से कोऑपरेटिव के सदस्यों की मांग भी बढ़ने लगती है। इन बदलावों से पारंपरिक तरीकों को चुनौती मिलती है। इस चुनौती से निपटने के लिए नई वित्तीय रणनीति बनाने की जरूरत है जिससे सदस्यों को कोऑपरेटिव को संरक्षण देने का प्रोत्साहन मिले और वे उसके कामकाज में लोकतांत्रिक तरीके से फैसले लेने में सक्रिय भूमिका निभा सकें।
कोऑपरेटिव संस्थानों का गठन ‘वर्टिकल इंटीग्रेशन’ के सिद्धांत पर आत्म निर्भर प्रणाली के तौर पर किया गया था। लेकिन इन संस्थानों ने धीरे-धीरे ‘वर्टिकल इंटीग्रेशन’ से ‘हॉरिजॉन्टल रिलायंस’ का रूप ले लिया। पहले की तरह कोऑपरेटिव की प्रमुखता को बनाए रखने के लिए इस ट्रेंड को बदलने की जरूरत है। समय आ गया है कि प्रासंगिकता और क्षमता के लिहाज से कोऑपरेटिव संस्थाओं के ढांचे की नए सिरे से जांच की जाए।
भारत में कोऑपरेटिव संस्थाओं का विशाल नेटवर्क है। इनकी 8 लाख से अधिक इकाइयां हैं। किसी उचित संस्थागत व्यवस्था के तहत इन्हें जोड़ा जा सकता है। इससे न सिर्फ ये संस्थाएं ताकतवर होंगी बल्कि अभी अकेले काम करने की वजह से इनकी जो भी कमजोरियां हैं, वे भी दूर हो सकेंगी। सिस्टम को इस तरह जोड़ने पर एक कॉमन डिजिटल प्लेटफॉर्म डिजाइन, एक पेशेवर प्रबंधन प्रणाली और सक्षम फंड मैनेजमेंट की समस्या भी दूर हो सकती है। इस व्यवस्था में सभी कोऑपरेटिव संस्थान अपने काम अलग-अलग तरीके से करते रहेंगे, उनके मैनेजमेंट भी अलग होंगे, लेकिन वे एक बड़े संस्थान का हिस्सा होंगे। यह नई व्यवस्था उन्हें एक विशाल आकार और कामकाज का फायदा दे सकती है क्योंकि एक होल्डिंग संस्था के रूप में यह देश का सबसे बड़ा बिजनेस नेटवर्क होगा, जिससे बड़ी संख्या में लोग और संसाधन जुड़े होंगे।
(लेखक राष्ट्रीय सहकारिता विकास निगम (एनसीडीसी) के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर रहे हैं)