कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति से ज्यादा श्वेत क्रांति का योगदान, डेयरी में निर्यात प्रतिस्पर्धी बने भारतः प्रो. रमेश चंद
यदि पिछले 50 वर्षों में कृषि के विकास को देखा जाए तो हरित क्रांति का हिस्सा 13.23 फीसदी है लेकिन दूध का योगदान 25 फीसदी है। इसका मतलब यह है कि कृषि के विकास में श्वेत क्रांति का योगदान हरित क्रांति की तुलना में दोगुना है। वहीं पिछले 50 वर्षों में पॉल्ट्री क्षेत्र का योगदान देश की शीर्ष फसल गेहूं के मुकाबले अधिक है। कृषि विकास में पॉल्ट्री का योगदान 6.3 फीसदी है। इसी तरह मत्स्य पालन का योगदान 7.8 फीसदी है जो किसी एक फसल के योगदान की तुलना में कहीं अधिक है।
हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से ही डेयरी क्षेत्र ने फसलों की तुलना में अधिक वृद्धि दर्ज की है। श्वेत क्रांति का योगदान हरित क्रांति से कहीं अधिक है। नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद ने पिछले सप्ताह गांधीनगर में आयोजित 49वें डेयरी उद्योग सम्मेलन में डॉ. कुरियन मेमोरियल भाषण देते हुए यह बात कही।
उन्होंने कहा, "यह साबित करने के पर्याप्त सबूत हैं कि भारत में हरित क्रांति की तुलना में श्वेत क्रांति अधिक शक्तिशाली रही है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के उदारीकरण के बाद फसल क्षेत्र की तुलना में डेयरी क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर हुआ है।" कृषि क्षेत्र की कुल आय में एक चौथाई योगदान डेयरी क्षेत्र देता है। उन्होंने कहा, "देश में दूध उत्पादन सालाना 6 फीसदी से अधिक की दर से बढ़ने का अनुमान है। इसकी वजह से आने वाले वर्षों में निर्यात के लिए दूध अधिशेष में वृद्धि होगी। भारत के डेयरी उत्पाद को विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना आवश्यक है। हालांकि, घरेलू डेयरी उद्योग किसी भी मुक्त व्यापार समझौते का विरोध करता है जिसमें डेयरी उत्पादों के व्यापार (आयात) का उदारीकरण शामिल है।"
उनके मुताबिक, अगर हमें भविष्य में सरप्लस दूध को खपाने के लिए विदेशी बाजारों में पैठ बढ़ानी है तो हमें निर्यात प्रतिस्पर्धी होना पड़ेगा। कोई भी देश तब तक निर्यात प्रतिस्पर्धी नहीं हो सकता है जब तक वह आयात से प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ न हो। यह मुद्दा डेयरी उद्योग के भविष्य के विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
कृषि क्षेत्र की कुल आय (2006-07 से 2020-21) में डेयरी क्षेत्र की हिस्सेदारी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि हमारे सामने दो प्रमुख चुनौतियां थीं। पहला, दुधारू पशुओं की कम उत्पादकता और दूसरा, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जिसका जलवायु परिवर्तन पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। डेयरी क्षेत्र की एक और आलोचना इस बात को लेकर होती है कि पिछले 50 वर्षों के दौरान डेयरी पशुओं की आबादी बढ़ी है जिसकी वजह से दूध उत्पादन में वृद्धि हुई है। पशुओं की आबादी बढ़ने का गंभीर पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय प्रभाव होता है। दूसरी ओर, देश में दूध और दुग्ध उत्पादों की प्रति व्यक्ति खपत पिछले 20 वर्षों के दौरान बढ़कर लगभग दोगुनी हो गई है। उन्होंने कहा कि खपत में इस वृद्धि का मतलब यह है कि दूध ने देश के पोषण में सुधार में काफी बड़ा योगदान दिया है।
प्रो. रमेश चंद ने बताया कि भारत में डेयरी क्रांति की सफलता को निर्यात से जोड़कर नहीं बताया गया है। एपीडा द्वारा जारी किए गए रिपोर्ट का हवाला देते हुए दिखाया गया है कि डेयरी निर्यात कृषि निर्यात का केवल 2.6 फीसदी है जो कुल हिस्सेदारी के मुकाबले बहुत कम है। फसल और पशुधन उत्पादन के मूल्य में दूध उत्पादन की हिस्सेदारी 24 फीसदी है। उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में स्थिति में बड़ा बदलाव हुआ है। 2017-18 के बाद चार वर्षों में डेयरी उत्पादों के निर्यात की मात्रा चार गुना बढ़ गई है। 2021-22 में डेयरी निर्यात दोगुना होकर 2,742 करोड़ रुपये तक पहुंच गया, जबकि मात्रा में 64 फीसदी की वृद्धि हुई है।
भारत के कृषि विकास का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए प्रो. चंद ने कहा, "यदि पिछले 50 वर्षों में कृषि के विकास को देखा जाए तो हरित क्रांति का हिस्सा 13.23 फीसदी है लेकिन दूध का योगदान 25 फीसदी है। इसका मतलब यह है कि कृषि के विकास में श्वेत क्रांति का योगदान हरित क्रांति की तुलना में दोगुना है। वहीं पिछले 50 वर्षों में पॉल्ट्री क्षेत्र का योगदान देश की शीर्ष फसल गेहूं के मुकाबले अधिक है। कृषि विकास में पॉल्ट्री का योगदान 6.3 फीसदी है। इसी तरह मत्स्य पालन का योगदान 7.8 फीसदी है जो किसी एक फसल के योगदान की तुलना में कहीं अधिक है। विकास के इस अंतर ने कृषि क्षेत्र की पूरी तस्वीर बदल दी है। फसल क्षेत्र का हिस्सा सिकुड़ रहा है, जबकि पशुधन और डेयरी का हिस्सा बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है। ये परिवर्तन विविधीकरण की स्पष्ट प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं जो कृषि में हुआ है।" उन्होंने कहा कि अगर सरकार ने फसल क्षेत्र को समर्थन या सब्सिडी नहीं दिया होता तो विविधीकरण और अधिक होता। पिछले 50 वर्षों में प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन दोगुना होने के बावजूद कुपोषण और एनीमिया की स्थिति अब भी गंभीर बनी हुई है।
अपने संबोधन में उन्होंने कहा, “1971 से 2021 के बीच 50 वर्षों में प्रति व्यक्ति कुल खाद्य उत्पादन लगभग दोगुना हो गया है। इनमें अनाज, खाद्य तेल, दालें, दूध, मांस, मछली, अंडा, चीनी सहित नौ खाद्य पदार्थ शामिल हैं। 1971 में भारत प्रति व्यक्ति रोजाना एक किलोग्राम खाद्य उत्पादन कर रहा था। लेकिन अब हम प्रति व्यक्ति रोजाना दो किलोग्राम खाद्य उत्पादन कर रहे हैं। हम इसका पूरा इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसका एक बड़ा हिस्सा निर्यात में चला जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह विकास दर हाल के वर्षों में, खासकर 2005-06 के बाद और तेज हुई है। इसके बावजूद महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया जैसे मुद्दे ज्वलंत बने हुए हैं।”
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा, “1979-80 में भारत की करीब 38 फीसदी आबादी कुपोषित या भूखी पाई गई थी। पांच साल पहले यह आंकड़ा घटकर 16 फीसदी रह गया था लेकिन तब से अब तक यह इसी जगह पर अटका हुआ है। जिन राज्यों में हरित क्रांति का प्रभाव पड़ा है वहां भी 50 फीसदी महिलाएं खून की कमी (एनीमिया) से पीड़ित हैं। हमें यह विश्लेषण करने की जरूरत है कि हम पोषण में और सुधार क्यों नहीं कर पा रहे हैं। खाद्य उत्पादन की विकास दर बढ़ने के बावजूद हम एनीमिया को कम क्यों नहीं कर पा रहे हैं।”
पोषण में सुधार के लिए दूध एवं डेयरी उत्पादों, दालें, अंडे और मछली जैसे विकल्प उपलब्ध कराने पर जोर देने का सुझाव देते हुए प्रो. चंद ने कहा, "अभी अनाज की विकास दर दो फीसदी है। यह वृद्धि दर बढ़कर अगर पांच फीसदी हो जाती है तो भी इस वृद्धि के माध्यम से भारत के पोषण में सुधार की संभावना कम ही है।”
उन्होंने कहा, "देश के दो-तिहाई लोगों को 40 फीसदी अनाज की आपूर्ति करने के बाद भी कुपोषित आबादी के प्रतिशत में सुधार नहीं हो रहा है। यदि हम पोषण में सुधार करना चाहते हैं तो हमें ऐसे खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने होंगे जिनका लोग इस्तेमाल करना चाहेंगे। हमें डेयरी, दालें, फल और सब्जियां, अंडे और मछली जैसी चीजों पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है।”