जलवायु परिवर्तन और शोध संस्थानों की बदलती भूमिका
जलवायु-अनुकूल कृषि के लिए बेसिक प्लांट साइंसेस और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के बीच तालमेल की आवश्यकता
पिछले दशकों में भारत को खाद्य की कमी वाली अर्थव्यवस्था से 140 करोड़ से अधिक लोगों को भोजन प्रदान करने में सक्षम अर्थव्यवस्था बनाने में कृषि अनुसंधान की उपलब्धियों ने अहम भूमिका निभाई है। हालांकि जलवायु परिवर्तन, घटते प्राकृतिक संसाधन और मिट्टी की सेहत जैसी चुनौतियां बनी हुई हैं, फिर भी पिछली उपलब्धियों द्वारा रखी गई नींव जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और पर्यावरण की सस्टेनेबिलिटी के लिए अनुसंधान में एक मजबूत मंच प्रदान करती है।
भारत ने कृषि अनुसंधान और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई संस्थानों की स्थापना की। वर्ष 1929 में स्थापित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों ने राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली के तहत वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन्होंने उत्पाद और प्रौद्योगिकी विकास में योगदान किया जिससे खाद्य, पोषण और आजीविका की सुरक्षा प्राप्त करने में मदद मिली है। इनके प्रमुख योगदान में अधिक उपज देने वाली, रोग प्रतिरोधक और पोषण के लिए बायो फोर्टिफाइड किस्मों का विकास शामिल हैं। साथ ही इन्होंने मिट्टी की सेहत, जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और कीट एवं रोग प्रबंधन के लिए इंटीग्रेटेड टेक्नोलॉजी भी विकसित की। इसके परिणामस्वरूप देश में खाद्य उत्पादन बढ़कर लगभग 33.2 करोड़ टन तक पहुंच गया है।
हालांकि समृद्ध इतिहास और महत्वपूर्ण उपलब्धियों वाली भारतीय कृषि वर्तमान में कई चुनौतियों का सामना कर रही है। प्रमुख चुनौती है जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चरम मौसमी घटनाएं, जिनके कारण फसल उत्पादन में कमी और कीटों तथा रोगों की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। हरित क्रांति में अधिक उपज वाली किस्मों की उत्पादकता बनाए रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ है। इसके परिणामस्वरूप किसानों के खेतों में मिट्टी की उर्वरता और फसलों की जैव विविधता को नुकसान हुआ है।
इन चुनौतियों से निपटने में रिसर्च और इनोवेशन पर पुनः ध्यान केंद्रित करना स्थायी और प्रभावी समाधान प्रदान कर सकता है। कुछ अनुसंधान क्षेत्र जिन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए, उनमें फसलों की ऐसी किस्मों का विकास शामिल है जो कम एग्रोकेमिकल के साथ अधिक उत्पादन देने में सक्षम हों। साथ ही सूखा, लवणता, बाढ़, उच्च तापमान जैसी विषम परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हों, और उनमें कीटों तथा रोगों की प्रतिरोधी क्षमता हो। क्रिस्पर (CRISPR) आधारित जीन एडिटिंग जैसी उन्नत प्रजनन तकनीक के साथ पारंपरिक प्रजनन को बढ़ावा देने के मौजूदा प्रयासों को मजबूत करना चाहिए। इसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग, मार्कर-असिस्टेड चयन और जीनोमिक्स की मदद से प्रजनन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
इसी तरह जल प्रबंधन, मिट्टी की सेहत में सुधार, डिजिटल और प्रिसीजन खेती, फसल विविधीकरण, कृषि जैव विविधता को मुख्यधारा में लाना, बायोफर्टिलाइजर तथा मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में मददगार और नाइट्रोजन-फिक्सिंग करने वाले सूक्ष्मजीवों के अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमें ऐसी प्रणालियां विकसित करने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है जो एकल फसलों पर निर्भरता को कम करे, जैव विविधता को बढ़ावा दे और किसानों की आय बढ़ाए। यह भी महत्वपूर्ण है कि संसाधनों के उपयोग को श्रेष्ठतम बनाने और फसल स्वास्थ्य की मॉनिटरिंग के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, इंटरनेट ऑफ थिंग्स और रिमोट सेंसिंग का लाभ उठाया जाए।
इसके अतिरिक्त किफायती कृषि सेंसर, ड्रोन और उपग्रह आधारित निर्णय लेने के उपकरणों का विकास आवश्यक है। जलवायु परिवर्तन के तेजी से बढ़ते प्रभाव के चलते कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन अनिवार्य हो गया है। इसके लिए कृषि वानिकी, कंजर्वेशन टिलेज और कवर क्रॉप के उपयोग जैसे तरीकों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। पौधों की जड़ से जुड़े जीव विज्ञान, प्रकाश संश्लेषण द्वारा कार्बन कैप्चर करने की क्षमता बढ़ाने, अप्रयुक्त पौधों के आनुवंशिक गुणों और मिट्टी-पौधा-सूक्ष्मजीव के बीच परस्पर क्रियाओं पर अनुसंधान बढ़ाना चाहिए। इससे फसल उत्पादन बढ़ाने और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में क्लाइमेट स्मार्ट खेती का अधिकतम लाभ मिल सकेगा। जलवायु के प्रति अनुकूलन, तकनीकी इनोवेशन और सस्टेनेबल परंपराओं पर ध्यान केंद्रित करके भारतीय कृषि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है, किसानों की आजीविका को बेहतर बना सकती है और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा कर सकती है।
भारतीय कृषि की आज की चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो पारंपरिक ज्ञान को अत्याधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ता हो। नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं और किसानों के बीच सहयोगात्मक प्रयास कृषि व्यवस्था को सुदृढ़ और समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण होंगे। सहभागी रिसर्च को मजबूत करने से किसान अपनी तरफ से स्थानीय जानकारी दे सकेंगे और उन्हें भी उपयुक्त समाधान प्राप्त करने में मदद मिलेगी। इससे व्यावहारिक और प्रभावी इनोवेशन को बढ़ावा मिलेगा। इस संदर्भ में राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थानों को बड़ी भूमिका निभानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे वैश्विक स्तर पर अग्रणी बने रहें।
वर्तमान चुनौतियों का समाधान करने के लिए अनुसंधान के दृष्टिकोण में भी बदलाव की आवश्यकता है। इसमें बुनियादी पौध विज्ञान पर ध्यान केंद्रित किया जाए ताकि किसी समस्या का प्रासंगिक समाधान खोजा जा सके। दूसरे शब्दों में, पौध विज्ञान के मौलिक ज्ञान को बढ़ाने से लेकर जलवायु के प्रति लचीलापन, सस्टेनेबिलिटी और किसानों की बेहतर आजीविका को बढ़ावा देने वाली इनोवेटिव टेक्नोलॉजी और नीतियों को विकसित करना ही आगे का मार्ग है। बुनियादी पौध विज्ञान के साथ प्रिसीजन खेती, रीजेनरेटिव और कंजरवेटिव खेती, रिमोट-सेंसर तकनीक, उन्नत जैव प्रौद्योगिकी उपकरण और एआई संचालित मॉडल जैसी अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के बीच तालमेल से ही सतत और जलवायु के प्रति लचीले कृषि का आधार बनेगा।
महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान वित्तीय संकट, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में अंतर, अंतरविभागीय अनुसंधान और अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों तथा निजी क्षेत्र के साथ सहयोग जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए अधिक निवेश और इनोवेटिव सोच की आवश्यकता होगी ताकि भविष्य की दृष्टि से साझेदारियां की जा सकें। सरकारी संस्थानों और निजी क्षेत्र को मिलकर कृषि अनुसंधान और इनोवेशन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने की आवश्यकता है। देशों के बीच सहयोग से जानकारियां साझा करने और संसाधन जुटाने में तेजी आ सकती है। जन जागरूकता पर पर्याप्त जोर दिया जाना चाहिए ताकि बुनियादी विज्ञान और उन्नत जैव प्रौद्योगिकी टूल्स के महत्व को समझाया जा सके और नीतिगत समर्थन जुटाया जा सके।
शोध संस्थानों को इनोवेटिव दृष्टिकोण अपनाकर, सहयोग को मजबूत करके और वर्तमान तथा भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। कृषि अनुसंधान संस्थानों की क्षमता और प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए मल्टी-डिसीप्लिनरी अप्रोच अपनाना और शोधकर्ताओं के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना महत्वपूर्ण है। इससे व्यापक समाधान विकसित किए जा सकेंगे, तकनीकी कंपनियों के साथ साझेदारी स्थापित कर प्रिसीजन खेती के उपकरण विकसित किए जा सकेंगे। इसमें एआई, आईओटी और सैटेलाइट डेटा का उपयोग किया जाना चाहिए। हमें सार्वजनिक शोध संस्थानों के निजी क्षेत्र की कंपनियों के साथ सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए। इससे बेहतर बीज किस्मों, हार्वेस्टिंग के बाद की तकनीक और स्मार्ट खेती के क्षेत्र में रिसर्च आउटपुट बढ़ेगा। कृषि अनुसंधान में निजी निवेश बढ़ाने के साथ शोध संस्थानों और उद्योगों के बीच संबंधों को मजबूत करना भी आवश्यक है, ताकि विशिष्ट चुनौतियों का समाधान किया जा सके।
भारत में अत्याधुनिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ एक्सचेंज प्रोग्राम जरूरी हो गया है। युवा प्रतिभाओं को आकर्षित करने के लिए छात्रवृत्ति, फेलोशिप और करियर प्रोत्साहन देना आज के समय की आवश्यकता है। इससे युवाओं को कृषि अनुसंधान में प्रवेश करने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। अनुसंधान सुविधाओं को आधुनिक बनाना और जैव प्रौद्योगिकी तथा आनुवंशिक अध्ययन के लिए प्रयोगशालाओं को अत्याधुनिक उपकरणों से अपग्रेड करना भी जरूरी है। इससे वैज्ञानिक लक्ष्यों को अधिक प्रभावी तरीके से हासिल करने में मदद मिलेगी।
हमें ऐसी रणनीति विकसित करने पर जोर देना चाहिए जो जलवायु के प्रति लचीलापन, मिट्टी की सेहत में सुधार, कार्बन अवशोषण और पर्यावरण सस्टेनेबिलिटी जैसी दीर्घकालिक चुनौतियों से निपटने में रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए निरंतर वित्त पोषण प्रदान करें। उभरती प्रौद्योगिकियों और सतत कृषि परंपराओं पर जानकारी का आदान-प्रदान करने के मकसद से लिए शोधकर्ताओं को वैश्विक फोरम में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे वे अपनी शोध प्राथमिकताओं का अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ मेल कर सकेंगे।
(लेखक नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज-आईसीएआर के पूर्व निदेशक, राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के पूर्व सचिव और ऑस्ट्रेलिया की मर्डोक यूनिवर्सिटी में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)