उत्तर प्रदेश चुनाव के बहाने गुर्जर खुद को सशक्त करें
उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा चुनाव क्षेत्र हैं, इनमें गुर्जर जाति की उपस्थिति 77 चुनाव क्षेत्रों में है। इस जाति के विधायकों की संख्या मात्र पांच है, अर्थात सभी चुनाव क्षेत्रों का मात्र एक प्रतिशत
भारत में चुनावों में जातियों की हमेशा अहम भूमिका रही है। हम जाति विहीन समाज की चाहे जितनी बात करें, लेकिन विभिन्न निर्णय लेने का आधार जाति ही होता है। चाहे वह लोकसभा, विधानसभा या पंचायतों के चुनाव हों या नौकरी और सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान के लिये विभिन्न कार्यक्रम/योजनाएं हों। यहां हम गुर्जर जाति व उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के सम्बंध में चर्चा करेंगे। गुर्जर उत्तर प्रदेश के अलावा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात व छत्तीसगढ़ में भी काफी संख्या में हैं।
राजनीति में जाति की भूमिका पर प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री प्रो. रजनी कोठारी ने कार्य किया है। उनके अलावा डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी सरकार में पिछड़ी जातियों की भागीदारी के लिये कार्य किया था। उनकी समाजवादी पार्टी का नारा था ‘संयुक्त समाजवादी पार्टी ने बांधी गांठ, पिछड़े पाएं सौ में साठ’। अर्थात पिछड़ी जातियों की भागीदारी सरकार में 60 प्रतिशत होनी चाहिये क्योंकि कुल आबादी में उनकी इतनी हिस्सेदारी है। मार्क्सवादी भी जाति के राजनैतिक प्रभाव से नहीं बच सके। 2018 में तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में सीपीएम ने वर्ग की बजाय जाति को तवज्जो दिया।
उत्तर प्रदेश में 403 विधानसभा चुनाव क्षेत्र हैं, इनमें गुर्जर जाति की उपस्थिति 77 चुनाव क्षेत्रों (अर्थात 19 प्रतिशत) में है। इस जाति के विधायकों की संख्या मात्र पांच है, अर्थात सभी चुनाव क्षेत्रों का मात्र एक प्रतिशत। हां, यह बात जरूर है कि गुर्जर मतदाताओं की संख्या विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है। इन 77 चुनाव क्षेत्रों को अध्ययन की दृष्टि से छह वर्गों में विभाजित किया गया है। विभिन्न चुनाव क्षेत्रों के मतदाताओं की संख्या की जानकारी राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं से प्राप्त की गई है।
ये छह वर्ग इस प्रकार हैं - 10 हजार आबादी तक, 10 से 20 हजार तक, 20 से 30 हजार तक, 30 से 40 हजार तक, 40 से 50 हजार तक और 50 हजार से अधिक आबादी वाले क्षेत्र। इस वर्गीवरण से यह तथ्य सामने आता है कि जिन चुनाव क्षेत्रों में गुर्जर मतदाताओं की संख्या 50 हजार या उससे अधिक है, वे 19 प्रतिशत हैं। इस 19 प्रतिशत को यदि सीटों की संख्या में बदलें तो यह 15 होती है। इसी तरह, 40 से 50 हजार मतदाता वाले चुनाव क्षेत्र नौ प्रतिशत हैं और उनकी सीटों की संख्या सात बैठती है। जहां मतदाताओं की संख्या 30 से 40 हजार के बीच है, ऐसे क्षेत्र आठ प्रतिशत और सीटें छह हैं। 20 से 30 हजार मतदाता वाले क्षेत्र 13 प्रतिशत हैं और सीटों की संख्या 10 है। दस से 20 हजार मतदाता वाले क्षेत्र करीब 30 प्रतिशत हैं और उनकी सीटें 23 होती हैं। दस हजार से कम गुर्जर मतदाता वाली 16 सीटें होती है। इससे स्पष्ट है कि अगर मतदाताओं की संख्या 20 हजार से ऊपर लें तो कम से कम 38 सीटों पर गुर्जर जाति की दावेदारी होनी चाहिए। यानी कम से कम 38 विधायक तो इस समाज के होने ही चाहिए।
भारत में अनेक राजनैतिक दल जातियों पर आधारित हैं। प्रो. आर. विद्यानाथन ने अपनी पुस्तक ‘कास्ट ऐज सोशल कैपिटल’ में बताया है कि कर्नाटक में जनता दल (सेकुलर) ‘वोक्कालिगा’ जाति पर, तमिलनाडु में एआईएडीएमके ‘थवेर’ जाति पर, पीएमके ‘वन्नियार’ जाति पर, डीएमके ‘ओबीसी-मुस्लिम’ पर, आन्ध्र प्रदेश में टीडीपी ‘कम्मा’ जाति पर, महाराष्ट्र में शिवसेना मराठा जाति पर, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ‘यादव-मुस्लिम’ पर व बीएसपी अनुसूचित जातियों पर और आरएलडी ‘जाट’ जाति पर आधारित है।
इन सभी जातियों से मजबूत स्थिति गुर्जर जाति की है क्योंकि उनकी मौजूदगी उत्तर प्रदेश में ही नहीं, अन्य 10 राज्यों में भी है। यह जाति ओबीसी में होने के साथ-साथ कुछ जगहों पर विमुक्त जाति में है तो कहीं अनुसूचित जनजाति में। इन वजहों से गुर्जर जाति की स्थिति अधिक मजबूत हो जाती है।
विभिन्न राजनैतिक पार्टियों का नाम इस तरह रखा गया है कि जैसे वे ही सामाजिक न्याय एवं आर्थिक विकास की प्रणेता और न्याय व्यवस्था के पुजारी हैं। लेकिन उन पार्टियों को चलाने का आधार तो जाति ही है। उदाहरण के लिये बीएसपी का आधार जाटव जाति है। अगर जाटव सपोर्ट न रहे तो पार्टी धराशायी हो जाएगी। इस पार्टी का वर्चस्व पार्टी धीरे-धीरे कम हो रहा है। उसका कारण भी यही है कि जाटवों में उसका आधार कमजोर हो रहा है। इसी तरह समाजवादी पार्टी में अहीर एवं रालोद में जाट जाति है। इसी मॉडल को गुर्जर जाति को अपनाना है।
गुर्जरों को विभिन्न राजनैतिक दलों का पिछलग्गू न बनकर आधार बनने की जरूरत है। गुर्जर समाज अन्य समाज को अपने साथ लेकर चले, इसके लिए उनमें लीडरशीप विकसित करने की जरूरत है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में कुछ विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां गुर्जर विरादरी की संख्या 10,000 मतदाताओं से भी कम है, लेकिन वहां विधायक गुर्जर हैं। इसलिए यहां लीडरशीप महत्वपूर्ण हो जाती है। इसके लिए राजनैतिक नेताओं को ‘सामाजिक पूंजी’ का निर्माण करने की जरूरत है। इसके लिये समाज में एसोसिएशन बनाना एवं उनका नेटवर्क करना जरूरी है। दूसरे, उनमें विश्वास पैदा करना है ताकि गुर्जर समाज में उचित समन्वय व सहयोग हो और वही सहयोग वे अन्य जातियों से भी करें। इसके लिए महत्वपूर्ण है कि ‘रोटी’ का जो सम्बन्ध समान जातियों में है, उसे ‘बेटी’ के सम्बन्ध तक बढ़ाएं। इस काम के लिये गुर्जर समाज के सामाजिक संगठन सामने आएं, वे विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं को अपने प्लेटफॉर्म पर बुलाएं और गुर्जर जाति के राजनैतिक सशक्तीकरण पर चर्चा करें।
यहां मेरा मकसद जातिवाद को बढ़ाना नहीं, बल्कि कम करना और अंततः खत्म करना है। वह तभी सम्भव है जब गुर्जर जाति अपने आप मजबूत होकर अन्य जातियों से सम्पर्क करेगी। तभी उन्हें पता चलेगा कि अपने समाज को आगे बढ़ाने के लिए अन्य जातियों का सहयोग लेना भी जरूरी है। इस एक जाति की चेतना दूसरी जाति की चेतना के साथ जुड़ कर विभिन्न जातियों को एक वर्ग में परिवर्तित करेगी और कहेगी कि हम सभी का शत्रु एक ही है।
हाल ही में किसान आन्दोलन इसका उदाहरण है। इस आन्दोलन में विभिन्न खेतिहर जातियां शमिल थीं, लेकिन किसी भी जाति ने अपना अलग से आन्दोलन चलाने की बात नहीं कही क्योंकि उनको यह ज्ञान हो गया था कि अगर वे जाति में बंटी रहेंगी तो उनका नुकसान होगा। इसलिए किसान आन्दोलन विभिन्न जातियों का नहीं, बल्कि एक वर्ग संघर्ष के रूप में उभर कर आया। जब गुर्जर जाति में चेतना आएगी तो वह अन्य जातियों में भी चेतना लाकर कहेगी कि हम सब एक वर्ग बन कर राजनैतिक सशक्तीकरण के लिये सत्ता में हिस्सेदारी मांगें।