उदार अर्थव्यवस्था के शिल्पकार डॉ. मनमोहन सिंह ने किसानों के लिए भी किये कई बड़े काम
प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव की कांग्रेस की अल्पमत सरकार के वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने न्यू इंडस्ट्रियल पॉलिसी 1991 के जरिये आर्थिक उदारीकरण का जो दौर शुरू किया, उसकी दिशा को अभी तक की कोई भी सरकार या वित्त मंत्री बदलने की सोच पैदा नहीं कर सका।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का 92 साल की उम्र में निधन हो गया। इसके साथ ही उनके 1991 से 1996 तक वित्त मंत्री के कार्यकाल और 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री के कार्यकाल का आकलन भी हो रहा है। वह देश के पहले नेता तो नहीं हैं जो इन दोनों पदों पर रहे हैं। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था और देश के विकास को लेकर उनकी जो भूमिका है वह दूसरे किसी राजनेता को लेकर इस तरह के आकलन का मौका नहीं देती है। प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव की कांग्रेस की अल्पमत सरकार के वित्त मंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने न्यू इंडस्ट्रियल पॉलिसी 1991 के जरिये आर्थिक उदारीकरण का जो दौर शुरू किया, उसकी दिशा को अभी तक की कोई भी सरकार या वित्त मंत्री बदलने की सोच पैदा नहीं कर सका।
उस समय विश्व बैंक और आईएमएफ के दबाव में उदारीकरण के फैसले लेने का आरोप लगाने वाले तमाम विरोधी दलों की सरकारें केंद्र की सत्ता में रह चुकी हैं। लेकिन आर्थिक नीति के मोर्चे पर 1991 में जो दिशा तय हुई थी, वह जारी है। जहां 1991 में इकोनॉमी की हालत खस्ता थी और बैलेंस ऑफ पेमेंट का संकट खड़ा हो गया था, उसे वित्त मंत्री रहते हुए पटरी पर लाने और प्रधानमंत्री कार्यकाल में जीडीपी की सबसे तेज दर हासिल करने का श्रेय डॉ. मनमोहन सिंह को जाता है।
इसके साथ ही उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल में कृषि को लेकर कई फैसले भी हुए और भारतीय कृषि ने कई बड़े बदलाव भी देखे। मसलन, उनके कार्यकाल में करीब 70 हजार करोड़ रुपये की देश की सबसे बड़ी किसान कर्ज माफी हुई। यह केवल कर्ज माफी नहीं थी बल्कि इस कदम ने करोड़ों किसानों को कर्ज लेने के लिए पात्र बनाया जिनके ऊपर बैंकों का कर्ज होने से उनकी कर्ज लेने की पात्रता नहीं बची थी। 2004-14 के दौरान कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए टर्म्स ऑफ ट्रेड बेहतर रही और इसके पीछे वैश्विक बाजार में कृषि जिन्सों की ऊंची कीमत थी। इकोनॉमी की ग्रोथ के चलते 2004-05 से 2011-12 के बीच कृषि पर निर्भर वर्क फोर्स की संख्या में गिरावट आई और यह 58 फीसदी से घटकर 48.9 फीसदी पर आ गई थी। यह भारत के इतिहास में पहली बार हुआ जब कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या 26.86 करोड़ से घटकर 23.19 करोड़ रह गई थी। लेकिन 2023-24 में यह बढ़कर 46.1 फीसदी पर पहुंच गई है।
देश में मैन्युफैक्चरिंग के लिए विदेशी निवेश के दरवाजे खोलने और फाइनेंस व स्टॉक मार्केट की ग्रोथ के रास्ते उनके वित्त मंत्री रहते हुए ही खुले। सरकारी नियंत्रण और लाइसेंस परमिट राज को जब वह समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे तो देश में उद्योगपतियों का एक बॉम्बे क्लब भी था जो विदेशी निवेश और विदेशी कंपनियों से संरक्षण के लिए लॉबिंग कर रहा था। लेकिन यह सब बहुत तेजी से पीछे छूटता गया। देश में आईटी सेक्टर के उभार और निजी क्षेत्र को नौकरी के पहले विकल्प के रूप में स्थापित करने का काम मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री के कार्यकाल में ही शुरू हुआ। जिस ऑटो सेक्टर में दो-तीन कंपनियों की मोनोपली थी, वहां दुनिया के लगभग सभी बड़े ऑटो ब्रांड उसी नीति के तहत आए और अब भारत का ऑटो सेक्टर एक बड़ा निर्यातक है। लोकलाइजेशन की शर्तों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में उत्पादन के लिए मजबूर किया तो देश में मैन्युफैक्चरिंग को ग्रोथ मिली। कंज्यूमर ड्यूरेबल के तमाम बड़े ब्रांड उसी उदारीकरण की नीति के चलते यहां आये। देश में एक नया मध्य वर्ग तैयार हुआ जिसकी बदौलत भारतीय बाजार का महत्व पूरी दुनिया को समझ आने लगा।
जिस स्टॉक एक्सचेंज की बदौलत देश में मार्केट से कमाई करने वाला वर्ग पैदा हुआ उसके रेगुलेशन के लिए सेबी और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज व क्षेत्रीय स्टॉक एक्सचेंज की मोनोपली को खत्म करने के लिए ऑनलाइन नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) भी उनकी देन है। यही नहीं बैंकिंग सेक्टर को निजी क्षेत्र और विदेशी निवेश के लिए खोलने का परिणाम देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक एचडीएफसी और आईसीआईसीआई बैंक के रूप में हमारे सामने हैं। यही वह दौर था जब कई बड़े विदेशी बैंकों ने भारतीय बाजार में रिटेल बैंकिंग शुरू की। वहीं इंश्योरेंस सेक्टर को खोलने का दौर भी तभी शुरू हुआ। उसी दौर में टेलीकॉम सेक्टर भी निजी क्षेत्र के लिए खोला गया। यह वह दौर था जब अर्थव्यवस्था के नये क्षेत्र खड़े हो रहे थे और बड़े पैमाने पर लोगों को नौकरियां मिल रही थी। एक पूरी पीढ़ी आज जो मध्य वर्ग के रूप में जानी जाती है उसे आर्थिक उदारीकरण की वजह से ही आगे बढ़ने के अवसर मिले।
मुश्किल दौर में वित्त मंत्री का उनका कार्यकाल बहुत ऊंची विकास दर तो हासिल नहीं कर सका लेकिन प्रत्यक्ष विदशी निवेश के लिए उदार शर्तें, आयात-निर्यात पर नियंत्रण में कमी और भारत में पैसा भेजने (रेमिटेंस) के नियमों का सरलीकरण तमाम ऐसे कदम थे जो भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ रहे थे। उनके वित्त मंत्री के कार्यकाल में भारत की विकास दर 5.1 फीसदी रही और उसके बाद 1996-97 से 2003-04 तक यह 5.9 फीसदी रही। इसके साथ ही विकास दर के मोर्चे पर हिंदु रेट ऑफ ग्रोथ की धारणा भी टूटने लगी। जिसे माना जाता था कि भारत एक कमजोर आर्थिक विकास दर वाला देश है। उनके इस कार्यकाल में ही टैक्स रिफॉर्म की शुरूआत हुई और सर्विस टैक्स भी उस दौर में ही लागू किया गया।
जहां तक मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के कार्यकाल की बात है तो वह दौर भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे तेज विकास दर का दौर था। 2004-05 से 2013-14 के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर का औसत 6.8 फीसदी रहा। वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने बाजार और आर्थिक उदारीकरण के रास्ते खुलवाए तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सूचना के अधिकार, शिक्षा के अधिकार,खाद्य सुरक्षा अधिनियम और मनरेगा जैसी पहल के जरिए समाज के कमजोर वर्गों को मजबूती देने के प्रयास हुए। सामाजिक क्षेत्र में निवेश और जन कल्याणकारी योजनाएं यूपीए के शासन काल की पहचान बनीं। अमेरिका के साथ परमाणु समझौते और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रभाव ने विश्व फलक पर भारत को मजबूत किया।
इस दौरान 2008 का वैश्विक आर्थिक संकट भी आया। लेकिन सरकार के प्रोएक्टिव फैसलों के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था को इस संकट से बचाने में मदद मिली। यह बात अलग है कि निवेश को बढ़ावा देने के लिए अपनाया गया उदार रुख और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन एक नये संकट को जन्म दे गया। इस संकट को पूर्व चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर व रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन ने ट्विन बैलेंसशीट संकट का नाम दिया। जिसमें जहां उधार लेने वाली कंपनियां भारी नुकसान में गईं, वहीं उदारता से कर्ज देने वाले तमाम बैंकों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा।
वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने कृषि क्षेत्र के लिए कोई बहुत बड़े फैसले तो नहीं किये। लेकिन वैश्विक बाजार में कमोडिटी कीमतों में बढ़ोतरी के चलते भारतीय किसानों के लिए 2004 से 2014 का दौर बेहतर कमाई वाला दौर रहा। इस बीच 2009 में करीब 70 हजार करोड़ रुपये की किसान कर्जमाफी का अभी तक का सबसे बड़ा फैसला उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल में ही हुआ। 2009 के लोक सभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी का यह एक बड़ा कारण रहा। इसके साथ ही जिस डॉ. एम एस स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय करने के लिए किसान कई साल से आंदोलनरत है वह रिपोर्ट मनमोहन सिंह के कार्यकाल में आई थी। उन्होंने ही डॉ. एमएस स्वामीनाथन को किसान आयोग का अध्यक्ष बनाया था। हालांकि, सवाल उठता है कि मनमोहन सिंह सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं किया।
लेकिन किसानों को भूमि अधिग्रहण में बेहतर मोलभाव का कानून मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में बनाया गया था। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या का संकट सामने आने पर नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल की सब कमेटी बनाई गई। उसी सरकार के समय फसलों का एमएसपी 80 फीसदी तक बढ़ाने की सिफारिशों को स्वीकार भी किया गया। इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि उनके कार्यकाल में किसानों के लिए टर्म्स ऑफ ट्रेड पॉजिटिव था। लेकिन पिछले दस साल से यह निगेटिव बना हुआ यानी किसान को अपने उत्पाद को बेचने से जो आय होती है उसका इंडेक्स उसके द्वारा इनपुट और अपने जीवनयापन पर होने वाले खर्च के इंडेक्स से कम है। सीधे कहा जा सकता है कि किसान वित्तीय हालत कमजोर हुई है।
देश में डिजिटल क्रांति की नींव भी उदारीकरण से आगे बढ़े बैंकिंग, टेलीकॉम और आईटी सेक्टर पर खड़ी हुई। डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही आधार कार्ड और डीबीटी जैसी पहल शुरू हो गई थीं जो आगे चलकर देश में डिजिटल और फिनटैक क्रांति का आधार बनी। यह बात अलग है कि राजनीतिक मोर्चों पर घिरी यूपीए सरकार इन कोशिशों का न तो श्रेय ले पाई और न ही इन्हें बहुत आगे बढ़ा पाई थी।
प्रधानमंत्री के उनके दूसरे कार्यकाल में जिस तरह से घोटालों के उजागर होने का दौर शुरू हुआ, उसने उनकी छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया। उस दौरान अर्थव्यवस्था के कई मोर्चों पर मुश्किलें पैदा हुई और खासतौर से ढांचागत परियोजनाओं में निवेश अटकने का बैंकिंग सेक्टर पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा। उनके दूसरे कार्यकाल के बाद के दो साल काफी मुश्किल रहे और भाजपा को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने के लिए माहौल बन चुका था। विडंबना है कि उनकी आर्थिक उदारीकरण की नीतिओं और निर्णयों का सबसे बड़ा लाभार्थी वर्ग ही उनका सबसे कटु आलोचन बन गया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि डॉ. मनमोहन सिंह की शालीनता को उनकी कमजोरी समझा गया। लेकिन वे आखिरी तक आशावादी बने रहे।
अब डॉ. मनमोहन सिंह हमारे बीच नहीं रहे हैं तो उनके प्रति भावुक श्रद्धांजलियों का सैलाब उमड़ रहा है। इसमें एक पश्चाताप भी झलक रहा है। जिससे उम्मीद बढ़ती है कि इतिहास उनके प्रति अधिक उदार होगा। क्योंकि उन्होंने देश-दुनिया पर जो छाप छोड़ी है वह अमिट तो है ही, साथ ही उसका सकारात्मक पक्ष ज्यादा मजबूत है।