आनुवंशिकी नहीं, एफसीओ हैं बढ़ते कुपोषण का मुख्य कारण
हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित शोध में धान और गेहूं में आयरन और जिंक जैसे सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों में कमी और विषाक्त तत्वों की वृद्धि सुर्खियों में रही। शोध के अनुसार देश के प्रमुख खाद्य अनाजो में खनिज पोषक तत्वो की लोडिंग बढ़ाने से संबंधित आनुवंशिक लक्षणों की उपेक्षा के कारण आवश्यक खनिजों में भारी गिरावट दर्ज की गई है। इससे हरित क्रांति के दौरान फसल प्रजनन अनुसन्धान से विकसित अर्ध बौनी और उच्च पैदावार वाली फसलों पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं
हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित शोध में धान और गेहूं में आयरन और जिंक जैसे सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों में कमी और विषाक्त तत्वों की वृद्धि सुर्खियों में रही। शोध के अनुसार, देश के प्रमुख खाद्य अनाजो में खनिज पोषक तत्वो की लोडिंग बढ़ाने से संबंधित आनुवंशिक लक्षणों की उपेक्षा के कारण आवश्यक खनिजों में भारी गिरावट दर्ज की गई है। इससे हरित क्रांति के दौरान फसल प्रजनन अनुसंधान से विकसित अर्ध बौनी और उच्च पैदावार वाली फसलों पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। शोध ने खाद्य अनाजों में विषाक्त तत्वो जैसे कि आर्सेनिक और एलुमिनियम के बढ़ते अवशेषों पर भी ध्यान आकर्षित किया हैं। देश में बढ़ते कुपोषण एवं सेहत समन्धित बीमारियों पर चिंता जाहिर करते हुए इस शोध ने 2040 तक भारतीय आबादी में आयरन और अन्य पोषक तत्वों की कमी से होने वाले एनीमिया, सांस, हृदय और मस्कुलोस्केलेटल जैसे नॉन कम्युनिकेबल रोगों के बढ़ने के संकेत दिए हैं।
इसमें कोई शक नहीं हैं पिछले पांच दशकों में भारतीय कृषि ने बढ़ती आबादी के भरण पोषण के लिए उत्पादकता और उत्पादन में जोरदार बढ़ोतरी दर्ज की हैं। भरपूर पैदावार हेतु वैज्ञानिक अनुसन्धान, अधिक उपज वाली अर्द्ध बौनी धान और गेहूँ की फसलों का विकास और आधुनिक प्रजनन जैसी तकनीक का भरपूर उपयोग किया गया। वर्ष 2022-23 में देश ने क्रमशः 329.6 मिलियन टन और 351.9 मिलियन टन खाद्यान्न और बागवानी फसलों के उत्पादन का रिकॉर्ड दर्ज किया।
इस शोध का प्रकाशन तब हुआ है,जब देश में अपार खाद्य उत्पादन और अनाज से भरे भंडारों के बावजूद कुपोषण की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। देश के ज्यादातर लोग कुपोषण और ख़राब स्वास्थ्य से जूझ रहे है। भारत, दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित देशो की श्रेणी में प्रथम स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के कृषि एवं खाद्य संगठन (एफएओ) के मुताबिक दुनिया के सर्वाधिक 29.2 करोड़ कुपोषित लोग भारत में हैं, जो वैश्विक स्तर पर 76.8 करोड़ कुपोषित जनसँख्या का लगभग 30% है।
एफएओ ने हाल ही जारी खाद्य सुरक्षा और पोषण का क्षेत्रीय अवलोकन 2023 रिपोर्ट में कहा है कि 2021 में तक़रीबन 74.1% भारतीय कम आमदनी की वजह से स्वस्थ आहार लेने में असमर्थ रहे। यही नहीं, हमारे देश में आज भी तकरीबन 80 करोड लोगों को भोजन का वितरण खाद्य सुरक्षा नियम के तहत किया जा रहा है। यह आंकड़े चौंकाने वाले ही नहीं बल्कि देश की कृषि नीतियों, कृषि अनुसन्धान और फसल प्रजनन में बेहद कम निवेश, उर्वरको के गलत उपयोग, खराब होती मृदा और दूषित जल का खाद्य पदार्थो और मानव स्वस्थ पर पड़ने वाले सीधे प्रभाव को उजागर करते हैं।
हालांकि, इस शोध का दायरा धान और गेहूं तक सीमित था और पॉट परीक्षण के माध्यम से खनिज पोषक तत्वो के अवशोषण का अध्यन किया गया। चूँकि पौधे खनिज पोषक तत्वों का अवशोषण मृदा और जल से करते हैं। शोध परिणामो को पौधे की आनुवंशिक पाथवेज़ और मेटाबोलिक सिस्टम से सीधे जोड़ना कम व्यावहारिक लगता हैं। अगर ऐसा होता तो पौधे विषाक्त तत्वों जैसे कि आर्सेनिक और एलुमिनियम के बढ़ते अवशेषों को कैसे अवशोषित कर रहा हैं। जो भी हो, इन परिणामो का सत्यापन किसानो के खेतों में विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में करने की आवश्यकता हैं ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके।
अगर पौधे की आनुवंशिक पाथवेज़ और मेटाबोलिक सिस्टम में पोषक तत्वों के अवशोषण करने की क्षमता में कमी आई है तो इसका असर दूसरी फसलों जैसे मिलेट, सब्जियों और फलो में भी देखने को मिलेगा। जहां भी लगातार धान और गेहूं की फसल का उत्पादन होता है, वहां सूक्ष्म खनिज तत्वों का खनन होता है। मिट्टी के परीक्षणों में मुख्य उर्वरको और सूक्ष्म तत्वों की कमी दिखाई देती है और आईसीएआर ने संतुलन बहाल करने के लिए जिंक, मैग्नीशियम, मॅग्नीज़ और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग करने की सिफारिश की है। हालाँकि,फसल प्रजनन वैज्ञानिक, व्यावहारिक ज्ञान और खेती का अनुभव फसलों में घटते खनिज पोषक तत्वो के अवशोषण का सीधा प्रभाव बदलती अनवांशिकी को देना गलत समझते हैं,क्योकि केंद्रीय किस्म विमोचन समिति द्वारा किसी भी किस्म का अनुमोदन करते समय इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखा जाता है। जहाँ तक आर्सेनिक और एल्युमीनियम में वृद्धि की बात हैं जो कि तटीय क्षेत्रों जहां बोरो धान उगाया जाता है को छोड़कर हर जगह सही नहीं है। अगर ऐसा होता तो भारत बासमती और गैर बासमती चावल का दुनिया में 11.14 बिलियन डॉलर का व्यापर कर प्रथम निर्यातक कभी नहीं बनता।
असल में फसल पोषण एक बहुत ही महत्वपूर्ण और जटिल विषय है जिसे हमने सभी आयामों से नजरअंदाज किया है। फसल पोषण की लापरवाही का मूल कारण 1985 का कानून "उर्वरक (अकार्बनिक, जैविक, या मिश्रित) (नियंत्रण) आदेश", एफसीओ हैं,जिसके तहत फसल उर्वरको के उत्पादन, भण्डारण, वितरण, बिक्री, सब्सिडी और बाजार कीमत का नियंत्रण भारत सरकार के पास है। इस नियम के तहत, भारत सरकार फसल पोषण के वृहत (मैक्रो) न्यूट्रिएंट जैसे कि नाइट्रोजन, फ़ास्फ़रोस और पोटाश के अलावा अन्य किसी सूक्ष्म (माइक्रो) पोषक तत्वों पर अनुदान नहीं देती और न ही प्रोहत्सान करती हैं। परिणामस्वरूप, सस्ती दरों पर उपलब्ध यूरिया का भरपूर उपयोग हो रहा है, जिसका फायदा तो हुआ पर दूसरे पोषक तत्वों की बहुत कमी हो गयी। इसी कमी को पूरा करने के लिए, भारत सरकार ने अप्रैल 2010 से उर्वरकों में तथाकथित पोषक तत्व-आधारित सब्सिडी (एनबीएस) व्यवस्था शुरू की ताकि फास्फोरस और पोटाश के नए उर्वरक किसानो को सस्ते दाम पर उपलब्ध हो।
इसके पश्चात, भारत सरकार ने 2015 में राष्ट्रीय उर्वरक नीति के तहत 100% नीम लेपित यूरिया का प्रचलन शुरू किया ताकि यूरिया में उपलब्ध नाइट्रोजन ज्यादा समय तक फसलों को मिल सके और मृदा और वायु प्रदूषण को रोका जा सके। इसका कोई विशेष फायदा तो नहीं हुआ लेकिन यूरिया के बैग का वजन 50 किलोग्राम से 45 किलोग्राम बदलने से कुछ समय के लिए खपत में कमी आई । इसके बाद 2023-24 में भारत सरकार ने सल्फर लेपित यूरिया की शुरुआत की और यूरिया में नाइट्रोजन की मात्रा को 46 % से घटाकर 37 % और बैग का आकार घटाकर 40 किलोग्राम कर दिया।
एफसीओ के अंतर्गत उर्वरक नियंत्रण के कारण सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में उर्वरकों पर कोई विशेष अनुसंधान, नवाचार और प्रभावशाली उर्वरक उत्पादों का विकास नहीं हुआ। भारतीय कृषि और खाद्य पोषण मैक्रो न्यूट्रिएंट एनपीके के 'एकतरफा' नीति नुस्खे का शिकार हैं, जिस पर भारी सब्सिडी दी जाती है और इसका अत्यधिक उपयोग न तो किसान के हित में है और न ही मृदा और पर्यावरण के। उर्वरको पर बना 1985 का कानून एफसीओ ही भोजन में बढ़ती पोषक तत्वों की कमी का मुख्य कारण हैं। भारत की जनता में कुपोषण के बढ़ते खौफ से तभी निजाद मिलेगी जब देश फसल उर्वरकों के संतुलित उपयोग से मृदा में सूक्ष्म पोषक तत्वों की घटती मात्रा पर अंकुश लगाएगा।
मृदा का सुधार और मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को पूरा करने के लिए एक मेगा योजना शुरू करने की जरूरत है। इसका पहला पड़ाव उर्वरकों पर बना 1985 का कानून एफसीओ को ख़त्म कर मैक्रो और माइक्रो पोषक तत्वों पर एक व्यापक कानून बनाने की जरुरत है। ऐसा कानून जो उर्वरको में नवाचार और नए उत्पादों का प्रोहत्सान कर नाइट्रोजन उपयोग दक्षता (एनयूई) को बढ़ाने, लीचिंग और भूजल प्रदूषण को कम करने, नाइट्रीकरण को रोकने, पोषक तत्वों से मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों से उपचारित यूरिया उपलब्ध कराई जा सके। नए कानून से उर्वरकों के संतुलित उपयोग को बढ़ावा मिलेगा ताकि मिट्टी की उर्वरता में सुधार हो सके, मृदा में सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों की उपलब्धता और पौधों द्वारा सूक्ष्म खनिज तत्वों का अवशोषण बढ़ाया जा सके।
इसके अलावा, विटामिन की कमी को दूर करने के लिए, जैव संवर्धित बायोफोर्टिफाइड तकनीक से विकसित फसलों से विटामिन जैसे महत्वपूर्ण सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य फसलों को उपभोक्तावओं तक पहुँचाया जा सके। हाल ही में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् ने प्रोटीन, लाइसिन, ट्रिप्टोफैन, प्रोविटामिन-ए, एंथोसायनिन, विटामिन-सी, ओलिक एसिड और लिनोलिक एसिड जैसे आवश्यक पोषक तत्व वाली किस्मों का अनुमोदन किया हैं। यह किस्में तब तक प्रचलित नहीं होगी जब तक इन बायोफोर्टिफाइड किस्मों की यील्ड पेनल्टी को नियंत्रण कर उत्पादकता को बढ़ाया जाए या फिर उत्पादित पोषित फसलों का अलग से संग्रह और भण्डारण कर किसानो को बाजार में उचित मूल्य दिलाया जाए । बढ़ते कुपोषण को कम करने का यही एक रामबाण इलाज हैं।
सूक्ष्म पोषक तत्व क्या हैं, और सेहत के लिए क्यों आवश्यक हैं?
विटामिन जैसे कि विटामिन बी और सी ऊर्जा उत्पादन, इम्युनिटी बढ़ाने, ब्लड क्लॉटिंग रोकने जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के लिए आवश्यक हैं,जबकि मिनरल शारीरिक विकास, हड्डियों, द्रव संतुलन और कई अन्य प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विटामिन पौधों द्वारा बनाए गए कार्बनिक कम्पाउंड हैं जो दो प्रकार के होते हैं। एक,पानी में घुलनशील जैसे विटामिन बी और सी और वसा में घुलनशील विटामिन जैसे कि विटामिन ए, डी, इ और के। दूसरी ओर, खनिज जैसे कि आयरन, जिंक, बोरोन और कॉपर, अकार्बनिक होते हैं, जिन्हे पौधे मिट्टी या पानी में मौजूद सूक्ष्म खनिज पोषक तत्वों से ग्रहण करते हैं और भोजन के माध्यम से मनुष्य के शरीर को उपलब्ध कराते हैं।
(लेखक जोधपुर स्थित साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक निदेशक हैं)