ग्रामीण भारत का एजेंडाः गांव के असल मुद्दों की मीडिया में चर्चा नहीं, नीतियां बनाने वाले भी हकीकत से दूर
सिंचाई सुविधाओं का अभाव, उपज की उचित कीमत न मिलना, जंगल, जमीन, बेरोजगारी आदि गांवों के लिए अहम मुद्दे हैं, लेकिन इन पर मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं होती है। यही नहीं, जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी कम हो रही है लेकिन कृषि पर निर्भर आबादी का अनुपात अब भी काफी बड़ा है। इन सबका कारण यह है कि कृषि के लिए नीतियां बनाने वाले जमीनी हकीकत से दूर हैं।
सिंचाई सुविधाओं का अभाव, उपज की उचित कीमत न मिलना, जंगल, जमीन, बेरोजगारी आदि गांवों के लिए अहम मुद्दे हैं, लेकिन इन पर मीडिया में ज्यादा चर्चा नहीं होती है। यही नहीं, जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी कम हो रही है लेकिन कृषि पर निर्भर आबादी का अनुपात अब भी काफी बड़ा है। इन सबका कारण यह है कि कृषि के लिए नीतियां बनाने वाले जमीनी हकीकत से दूर हैं। आज ग्रामीण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सिंचाई सुविधाएं विकसित करने की जरूरत है। किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत मिले, इसके लिए तकनीक और ज्ञान दोनों को किसानों तक पहुंचाना जरूरी है। मीडिया संस्थान रूरल वॉयस और गैर-सरकारी संगठन सॉक्रेटस द्वारा पिछले सप्ताह दिल्ली में आयोजित ‘ग्रामीण भारत का एजेंडा’ कार्यक्रम की पैनल चर्चा में ये बातें सामने उभर कर आईं। इस पैनल चर्चा का विषय था ‘ग्रामीण भारत में मीडिया और सिविल सोसायटी की भूमिका’। इस पैनल चर्चा का संचालन वरिष्ठ पत्रकार और इंडियन एक्सप्रेस के डिप्टी एडिटर हरीश दामोदरन ने किया।
कृषि को आवंटन बढ़े, सब्सिडी घटाना ठीक नहींः भगीरथ चौधरी
जोधपुर स्थित साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर के संस्थापक निदेशक और एपीडा बोर्ड के सदस्य भगीरथ चौधरी ने चर्चा में कहा कि हमें हर साल बताया जाता है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान काम हो रहा है। आज जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ 17% है लेकिन आज भी 60% आबादी कृषि पर निर्भर है। उन्होंने कहा, “मुझे एक नई बात सुनने को मिली कि ग्रामीण क्षेत्र में भी कृषि आय का योगदान सिर्फ 35% है। मुझे लगता है सबसे बड़ा खेल इन्हीं आंकड़ों में है जिसकी वजह से कृषि क्षेत्र को आवंटन काम होता जा रहा है। जब तक पैसे का आवंटन नहीं होगा तब तक विकास नहीं हो सकता। कृषि में रिसर्च हो या कोई अन्य काम, आवंटन कम होता जा रहा है। किसान नेताओं और कृषि क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को सोचना चाहिए कि आवंटन कैसे बढ़ाया जा सकता है।”
राजस्थान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि वहां किसान खुद देखते हैं कि उन्हें कौन सी फसल उगानी चाहिए जिसकी उन्हें अच्छी कीमत मिले, लेकिन सरकार उन्हें भ्रमित करती है। वह हर साल नई स्कीम लेकर आती है। कभी कमर्शियल खेती को, कभी परंपरागत खेती को, कभी प्राकृतिक खेती को, तो कभी ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने की बात कहती है। दरअसल, सरकार कृषि क्षेत्र में सब्सिडी कम करना चाहती है। यह ठीक नहीं है।
उन्होंने कहा कि किसानों के लिए उत्पादन लागत काफी बढ़ रही है। किसान हर उस नई टेक्नोलॉजी को अपनाने और हर उस कंपनी के साथ काम करने के लिए तैयार है जो उसे अतिरिक्त कमाई दे सके। किसान पूरी कोशिश करता है कि जलवायु परिवर्तन तथा अन्य बातों का उसकी खेती पर जो प्रभाव पड़ रहा है, कीटों का असर हो रहा है उसको कैसे कम किया जाए। उन्होंने कहा कि आज भी किसान पानी की समस्या से जूझता है। अगर पानी है तो बिजली नहीं आती। वह अपने सिंचाई पंप को 6 घंटे से ज्यादा चल ही नहीं सकता। इस समस्या से निपटने के लिए पश्चिमी राजस्थान में जीरा किसान जनरेटर खरीद रहे हैं, क्योंकि जीरा के अच्छे दाम मिल रहे हैं।
मुद्दे अनेक, उन पर बात करने की जरूरतः कविता बुंदेलखंडी
खबर लहरिया की सह संस्थापक और ग्रामीण इलाकों में लंबे समय से काम करने वाली कविता बुंदेलखंडी ने कहा कि जल, जंगल, जमीन, बेरोजगारी हमारे लिए महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, लेकिन ये बातें एजेंडा में नहीं होती हैं। पर्यावरण का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ रहा है और इसका असर हर चीज पर होता है। गांव में जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े होते जा रहे हैं, वह हमारे लिए मुद्दा है। गांव के भीतर जो राजनीति होती है वह हमारे लिए बड़ा मुद्दा है। गांव में महिलाओं, जातियों और धर्म के मुद्दे हैं। इन मुद्दों पर बात करने की जरूरत है।
उन्होंने कहा कि गांव में जो बाजारीकरण आ गया है उस पर भी बहुत कम बात होती है। मोटे अनाज का उत्पादन कम हो रहा है, विदेशी बीज आ गए हैं और हर साल बीजों को बदला जाता है, यह भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। हम किसानी की तो बात करते हैं लेकिन किसानी करने वालों में महिलाएं भी होती हैं। वे हल नहीं चलातीं, लेकिन इसके अलावा बहुत सारे काम करती हैं। यह भी हमारे लिए मुद्दा है।
उन्होंने कहा कि केन-बेतवा अभी तक मेनस्ट्रीम मीडिया में मुद्दा नहीं बना है। मध्य प्रदेश के आदिवासी गांवों से लोगों को हटाकर वहां बांध बनाने की बात चल रही है। उन गांवों में आज तक बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा की व्यवस्था नहीं है। वहां से 10 साल से लोगों के विस्थापन की बात हो रही है और लोग तरह-तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। विस्थापन की चर्चा के कारण वहां कोई विकास कार्य नहीं हो रहा है। वहां स्वास्थ्य, खासकर महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा बड़ा है। कोविड के बाद महिलाओं और युवा पीढ़ी में यह समस्या काफी देखने को मिली है।
पर्यावरण बिगाड़ने में उत्तर-पूर्व का योगदान कम, लेकिन प्रभावित ज्यादाः एलीथिया कोरडोर लिंगदोह
मेघालय के गैर-सरकारी संगठन नेसफास की डिप्टी एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर एलीथिया कोरडोर लिंगदोह ने चर्चा में उत्तर-पूर्व की समस्याओं को सामने रखा। उन्होंने कहा कि उत्तर-पूर्वी राज्यों के मूल निवासियों को सीमांत और कमजोर कहा जाता है, लेकिन मैं आपको बताना चाहती हूं कि हम लोग कमजोर नहीं हैं, बल्कि हमें ऐसी स्थिति में डाल दिया जाता है। अगर आप आंकड़ों को देखें तो उत्तर-पूर्व में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बहुत कम होता है। मेघालय इनका सबसे कम इस्तेमाल करने वाले राज्यों में है। इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन का पहला असर स्थानीय लोगों और किसानों पर होता है।
हम मानसून की बारिश के पैटर्न में बदलाव का सामना कर रहे हैं। इसका खाद्य उत्पादन प्रणाली के साथ किसानों के जीवन पर भी प्रभाव पड़ा है। हमारी कृषि पूरी तरह बारिश पर निर्भर करती है। ऐसे में बारिश के पैटर्न में बदलाव ने लोगों के जीवन को काफी प्रभावित किया है। कीटों के हमले बढ़ गए हैं। हम लोग प्राकृतिक खेती और ऑर्गेनिक खेती की बहुत बातें सुनते हैं। हमें इस तरह अलग-अलग शब्दों के जाल में न फंसकर जरूरत आधारित अप्रोच पर काम करना चाहिए।
एफपीओ की सफलता के लिए बाजार नजदीक होना जरूरीः संबित त्रिपाठी
ओडिशा स्थित लाइवलीहुड अल्टरनेटिव्स के चेयरमैन और राजस्व सेवा के पूर्व अधिकारी संबित त्रिपाठी ने एफपीओ या कोऑपरेटिव की सफलता के लिए बाजार को जरूरी बताया। उन्होंने कहा कि ये बाजार से जितनी दूर होंगे उन्हें उतनी अधिक दिक्कतें आएंगी क्योंकि आज ट्रांसपोर्टेशन एक बड़ा खर्च है। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि ओडिशा के गजपति जिले में नगालैंड की तरह अच्छी क्वालिटी के अनानास की पैदावार होती है। नेफेड और मदर डेयरी को उसकी सप्लाई होती है। दिल्ली तथा अन्य शहरों में वह अनानास 80 रुपये किलो बिका जबकि गजपति के किसानों को सिर्फ 14 रुपये मिले। किसानों को पहले 7 रुपये मिलते थे। इस हिसाब से देखें तो उनकी आय दोगुनी हुई, लेकिन ग्राहक के लिए इतनी कीमत परिवहन लागत के कारण आई। उन्होंने यह भी कहा कि जल्दी खराब होने वाले (पेरिशेबल) कमोडिटी से एफपीओ ठीक से नहीं निपट सकते हैं।
त्रिपाठी ने इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने कहा कि जहां सिंचाई की सुविधा है वहां किसान साल में तीन फसल ले सकते हैं। अगर सिंचाई सुविधा नहीं है तो कोल्ड स्टोरेज या अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर का लाभ नहीं मिलेगा।
सेल्फ हेल्प ग्रुप के बारे में उन्होंने कहा कि ओडिशा में सफल सेल्फ हेल्प ग्रुप बहुत कम हैं। अब एक नई जमात खड़ी हुई है सेल्फ हेल्प ग्रुप कॉन्ट्रैक्टर की। नाम तो सेल्फ हेल्प ग्रुप का होता है लेकिन ये ठेकेदार आउटसोर्स करते हैं। कोल्ड स्टोरेज, मछली के तालाब यह सब काम सेल्फ हेल्प ग्रुप को मिलते हैं, लेकिन उनका सिर्फ नाम होता है। इसका फायदा ठेकेदार को मिलता है। सेल्फ हेल्प ग्रुप के राजनीतिकरण का भी मुद्दा है जिसकी हम चर्चा नहीं करते हैं।