जीसीएमएमएफ के 50 साल: ब्रांडिंग, मार्केटिंग और सप्लाई चेन एफिशिएंसी से अमूल बनी मार्केट लीडरः डॉ. आर.एस. सोढ़ी
किसानों के मालिकाना हक वाले देश के सबसे बड़े एफएमसीजी ब्रांड अमूल की मार्केटिंग कंपनी गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) ने 9 जुलाई को 50 वर्ष पूरे कर लिए। अमूल ब्रांड के टर्नओवर को 2 अरब डॉलर के पार पहुंचाने में इसकी अहम भूमिका रही है। वित्त वर्ष 2022-23 में जीसीएमएमएफ का टर्नओवर करीब 55,000 करोड़ रुपये रहा है।
किसानों के मालिकाना हक वाले देश के सबसे बड़े एफएमसीजी ब्रांड अमूल की मार्केटिंग कंपनी गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) ने 9 जुलाई को 50 वर्ष पूरे कर लिए। अमूल ब्रांड के टर्नओवर को 2 अरब डॉलर के पार पहुंचाने में इसकी अहम भूमिका रही है। वित्त वर्ष 2022-23 में जीसीएमएमएफ का टर्नओवर करीब 55,000 करोड़ रुपये रहा है। यह सिर्फ सहकारिता आंदोलन के लिए नहीं, बल्कि देश और किसानों के लिए बड़ी उपलब्धि है। किसानों के मालिकाना हक वाला यह दुनिया का पहला ऐसा संगठन है जिसके उत्पादों की जो कीमत उपभोक्ता चुकाते हैं उसका 80 फीसदी और कभी-कभी उससे भी ज्यादा हिस्सा किसानों की जेब में जाता है। अमूल में 40 साल से ज्यादा समय तक काम कर चुके जीसीएमएमएफ के पूर्व मैनेजिंग डायरेक्टर और इंडियन डेयरी एसोसिएशन के प्रेसीडेंट डॉ. आर.एस. सोढ़ी से हमने यह समझने की कोशिश की कि यह संस्था कैसे खड़ी हुई है, किस तरीके से यहां तक पहुंची, इसका भविष्य और इसकी चुनौतियां क्या हैं और कौन लोग इसके पीछे रहे हैं जिन्होंने अमूल और जीसीएमएमएफ को इस मुकाम तक पहुंचाया है।
किसानों के आंदोलन को एक बिजनेस ऑर्गेनाइजेशन में बदल कर अमूल और जीसीएमएमएफ यहां तक पहुंची है, उसकी ताकत क्या है?
सबसे पहले मैं स्पष्ट कर दूं कि गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) अमूल का मार्केटिंग विभाग है जिसका मालिकाना हक किसानों के पास है। डॉ. वर्गीज कुरियन ने त्रिभुवन दास पटेल के नेतृत्व में 1948 में अमूल ज्वाइन किया था। अमूल 1946 में बनी थी। अमूल ब्रांड के प्रोडक्ट की मार्केटिंग के लिए पूरे भारत में डिस्ट्रीब्यूटर बनाए गए थे जिनमें टाटा समूह की वोल्टास लिमिटेड भी थी। डॉ. कुरियन ने सोचा कि किसानों की इस कोऑपरेटिव का मुख्य काम होगा किसानों से दूध लेना, उसे इकट्ठा और प्रोसेस कर अमूल ब्रांड के तहत बेचना। 1960-70 के दशक में जब खैरा यूनियन प्रगति कर रहा था उसी मॉडल पर गुजरात के मेहसाणा जिले में कोऑपरेटिव यूनियन बन गई। उसने भी दूध इकट्ठा किया, प्रोडक्ट बनाए और अपने ब्रांड सागर के तहत प्रोडक्ट लॉन्च किए। उसके बाद सूरत, बड़ौदा, हिम्मतनगर और बनासकांठा में भी डिस्ट्रिक्ट यूनियन बन गईं। अगर ये सभी अपने ब्रांड लेकर आतीं, तो पहली बात तो यह कि वे एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करतीं और उनके पास इतने संसाधन नहीं थे कि वे खुद की मार्केटिंग कर पातीं। उस वक्त त्रिभुवन दास पटेल, डॉ. वर्गीज कुरियन, मेहसाणा डिस्ट्रिक्ट यूनियन के चेयरमैन मोती भाई चौधरी और उस समय के बाकी डेयरी यूनियन के चेयरमैन ने तय किया कि मार्केटिंग के लिए एक अलग संस्था बनानी चाहिए जिसका मालिकाना हक तो किसानों का रहेगा लेकिन उसका काम मार्केटिंग करने, ब्रांड बिल्डिंग और सेल्स एवं डिस्ट्रीब्यूशन का होगा।
9 जुलाई, 1972 को जीसीएमएमएफ का रजिस्ट्रेशन हुआ लेकिन व्यावसायिक रूप से उसे काम करने में 6-7 महीने लग गए। जीसीएमएमएफ में उस वक्त अच्छे से अच्छे प्रोफेशनल रखे गए। मैंने जब 1982 में जीसीएमएमएफ ज्वाइन किया तो हमारा मुख्य काम यही था कि सेल्स और डिस्ट्रीब्यूशन का जो काम वोल्टास और दूसरी एजेंसियां करती थीं, उनसे टेकओवर करना था। डॉ. वर्गीज कुरियन ने उस समय बेहतरीन के प्रोफेशनल्स को अपने साथ जोड़ा जिनमें जेजे बख्शी भी थे जो वोल्टास लिमिटेड में अमूल का काम देखते थे। उन्होंने वोल्टास से अनुरोध किया कि आप उन्हें हमें दे दें, हम उन्हें दो-तीन साल अपने यहां रखेंगे फिर आपका टेकओवर करेंगे और उन्हें वापस भेज देंगे। जेजे बख्शी अपने साथ अपनी टीम को लेकर आए, आईआईएम (भारतीय प्रबंधन संस्थान) से निकले लोगों को रखा गया और पूरी मार्केटिंग की टीम बनाई गई जिसने पूरा मार्केटिंग टेकओवर किया। किसानों की कोऑपरेटिव अमूल ही है जिसकी अपनी इतनी बड़ी मार्केटिंग संस्था है, इसका कोई मुकाबला नहीं है। भारत में एफएमसीजी और फूड ब्रांड की मार्केटिंग करने वाली इतनी बड़ी संस्था एक ही है जिसका मालिकाना हक किसानों के पास है।
इसका मतलब डॉ. कुरियन ने इस बात को 50 साल पहले ही समझ लिया था कि क्या भविष्य होगा, कैसे आगे बढ़ना है और कैसे हमें खुद को मजबूत करना है क्योंकि मौजूदा समय में दुनिया की जो बड़ी कंपनियां हैं वह मार्केटिंग कंपनिया हैं?
उसके पीछे तर्क यह था कि किसानों के उत्पाद की कंपनी जो स्थानीय स्तर पर दूध की खरीद कर स्थानीय स्तर पर ही उसकी प्रोसेसिंग कर रही है, उसकी मार्केटिंग राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर करने के लिए बेहतर प्रोफेशनल और टेक्नोक्रेट चाहिए क्योंकि उस वक्त जिस ब्रांड से प्रतिस्पर्द्धा करनी थी वह विश्व का नंबर एक फूड ब्रांड था। इसलिए डॉ. कुरियन ने क्वालिफाइड लोग रखे। चाहे वह मिल्क प्रोक्योरमेंट में हो, एनिमल हसबेंडरी में हो या मिल्क प्रोसेसिंग में। मुझे याद है कि नवंबर 1982 में जब मैंने अमूल ज्वाइन किया था तो वोल्टास ने टेकओवर का 2 साल का प्री प्लान बनाकर दिया था और जीसीएमएमएफ से कहा था कि हम आपको टेकओवर देंगे, आप अपना आदमी रखिए, हम उसे ट्रेंड करेंगे। आज के समय में ऐसा कोई कंपनी नहीं करेगी लेकिन उस वक्त टाटा ने किया। वोल्टास का एक डिवीजन था पीसीपी (फार्मा कंज्यूमर प्रोडक्ट डिवीजन), मैं उसी के दफ्तर में स्थायी रूप से बैठता था। मैंने जिस वक्त अमूल ज्वाइन किया था उस वक्त भी अमूल जाना-माना ब्रांड था। तब 121 करोड़ रुपये का टर्नओवर था और 12 लाख लीटर दूध किसानों से खरीदा जाता था। पिछले साल अमूल ब्रांड का टर्नओवर 71 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया और आज तकरीबन 280 लाख लीटर दूध प्रोक्योर किया जाता है। मैंने भी उस वक्त सोचा नहीं था कि अमूल इतना बड़ा बनेगा।
आप इतने लंबे समय तक अमूल और जीसीएमएमएफ में रहे। आपने डेयरी और कोऑपरेटिव सेक्टर में क्या बड़े बदलाव देखे, खासकर जीसीएमएमएफ और अमूल में? दुनिया के बड़े ब्रांडों से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए कैसे आगे बढ़े?
पिछले 50 साल का अमूल या जीसीएमएमएफ का सफर देखें तो इसका जो तीन स्तरीय स्ट्रक्चर है, उन तीनों पर काम किया गया। पहला, मिल्क प्रोक्योरमेंट। अगर आपको दूध के प्रोडक्ट बेचना है तो भारत की आबादी बढ़ने के कारण जो मांग बढ़ती जा रही है उसको पूरा करना होगा। 1972 में 6 डिस्ट्रिक्ट यूनियन थी और गुजरात का कुछ हिस्सा ही कवर होता था। आज 18 डिस्ट्रिक्ट यूनियन हैं और सभी 33 जिले कवर होते हैं। किसानों की सदस्यता बढ़ाई गई, भौगोलिक क्षेत्र बढ़ाया गया, गुजरात ही नहीं गुजरात से बाहर भी। 2010 से फेडरेशन ने गुजरात के बाहर भी दूध खरीदना शुरू किया। आज अगर देखा जाए तो अमूल का 20 फीसदी दूध गुजरात से बाहर के 15-16 राज्यों से आता है। वहां के किसानों को भी अमूल का फायदा मिल रहा है। पहली बात तो यह कि मिल्क प्रोक्योरमेंट का विस्तार किया गया। दूसरा, मिल्क प्रोसेसिंग के लिए क्षमता बढ़ाना और दुनिया की उन्नत से उन्नत तकनीक लाना। 1950 में अमूल ने पहली बार भैंस के दूध से मिल्क पाउडर बनाया। उसके बाद अगर हम 1990 के दशक की बात करें तो पहली बार धारा के खाद्य तेल का डिस्ट्रीब्यूशन भी जीसीएमएमएफ ने किया। 1990 के दशक में जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत आईं तो उनके सामने अमूल ने आइसक्रीम लॉन्च की। वर्ष 2000 में हमने अमूल दूध को गुजरात से बाहर भी बेचना शुरू कर दिया। उससे पहले तक अमूल दूध सिर्फ गुजरात में बेचा जाता था। आज अमूल का 50 फीसदी टर्नओवर सिर्फ दूध से आता है। उसके बाद तो वैल्यू एडेड प्रोडक्ट की लाइन लग गई। चाहे वह बेवरेजेज हो, चीज हो, आईसक्रीम हो नई-नई वैरायटी आई। दही बेचा, लस्सी बेची, उसके अलावा नॉन मिल्क प्रोडक्ट में चाहे आलू के प्रोडक्ट हों, शहद हो, बेकरी हो, अनेक तरह के फूड प्रोडक्ट जीसीएमएमएफ ने बेचना शुरू किया। इसका मुख्य श्रेय जाता है तीनों क्षेत्रों मिल्क प्रोक्योरमेंट, मिल्क प्रोसेसिंग और सेल्स एवं डिस्ट्रीब्यूशन को। जब मैंने अमूल ज्वाइन किया था तो हमारे पास सिर्फ 5 डिस्ट्रीब्यूशन ब्रांच थी। आज हमारे पास 82-83 ब्रांच हैं। चाहे आप लेह लद्दाख चले जाइए, वहां भी अमूल का ऑफिस है। चाहे आप उत्तर-पूर्व में जोरहाट चले जाइए, पश्चिम में जोधपुर या फिर दक्षिण में कोयंबटूर, केरल कहीं पर भी चले जाइए, सभी जगह आपको अमूल का डिस्ट्रीब्यूशन हब मिलेगा।
अमूल कुछ प्रीमियम प्रोडक्ट भी काफी मजबूती से लेकर आया। शायद आपके सामने यह भी चुनौती थी कि ग्लोबल ब्रांड से कैसे प्रतिस्पर्द्धा करें और उनके सामने किस तरह के प्रोडक्ट लेकर आएं?
अमूल ही एक ऐसा ब्रांड है जो आम आदमी का भी है और प्रीमियम का भी है। सभी उम्र, सभी आय वर्ग और सभी क्षेत्र के लोगों के लिए अमूल के प्रोडक्ट हैं। घर में दादा-दादी, मां-बाप, बच्चे सभी होते हैं और उन सभी के लिए अमूल के प्रोडक्ट हैं। चाहे दूध हो, चीज हो, आईसक्रीम हो या फिर दूसरे प्रोडक्ट सभी अमूल को अपना प्रीमियम मानते हैं। आप भारत के किसी भी हिस्से में चले जाइए, यह ब्रांड सभी को प्रीमियम लगता है। प्रीमियम प्रोडक्ट उपभोक्ता के दिमाग में होती है। उपभोक्ताओं जिस तरह की उम्मीद आपसे करते हैं उस स्तर पर प्रोडक्ट बनाने पड़ेंगे, उनकी पैकेजिंग और ब्रांडिंग करनी पड़ेगी। अमूल इमेज के मामले में किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी से कम नहीं है।
आपने सही कहा कि प्रीमियम तो उपभोक्ता के दिमाग में होता है। अमूल दुनिया के बड़े ब्रांडों से न सिर्फ प्रतिस्पर्द्धा कर रहा है बल्कि प्रतिस्पर्द्धा करते हुए दिखता भी है। ग्लोबल स्पोर्ट्स इवेंट या दूसरे ग्लोबल इवेंट में अमूल की मौजूदगी दिखती है, इसके पीछे क्या रणनीति है?
मैं आपको स्पष्ट बताऊं कि उपभोक्ता जब अमूल बटर, अमूल चीज या फिर अमूल आईसक्रीम खरीदता है तो वह यह नहीं सोचता कि यह पीएसयू का ब्रांड है या कोऑपरेटिव का ब्रांड है। उसको सिर्फ यही लगता है कि यह प्रोडक्ट उसके लिए बना है। इसकी गुणवत्ता अच्छी है, स्वाद अच्छा है, यह आधुनिक तकनीक से बना है और इसके लिए मैं जो कीमत चुका रहा हूं उससे ज्यादा मुझे मिल रहा है। आप अगर कोऑपरेटिव या पीएसयू के ब्रांड हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि आपको मल्टीनेशनल या कॉरपोरेट की तरह आधुनिक तकनीक अपनानी नहीं पड़ेगी। हम किसी भी चीज में, चाहे उत्पादन प्रक्रिया हो, उपलब्धता हो, डिजिटल इंटीग्रेशन हो, ब्रांड बिल्डिंग हो, पैकेजिंग हो किसी भी मामले में किसी से कम नहीं हैं। डॉ. वर्गीज कुरियन ने कहते थे कि आप किसानों की संस्था हैं तो आपको सबसे ऊपर होने पर ध्यान देना है। आपके प्रोडक्ट दूसरों से बेहतर होने चाहिए।
हमने दूध उत्पादन और डेयरी उद्योग में बहुत तरक्की की है। मूल्य के मामले में डेयरी उद्योग खाद्यान्न से ज्यादा बड़ा हो गया है। किसानों को इतना बड़ा लाभ इस क्षेत्र के जरिये मिल रहा है लेकिन हमारे सामने हमेशा एक चुनौती रही है कि जो चीजें अमूल ने सफलतापूर्वक कीं, उस तरीके से दूसरे राज्य या कोऑपरेटिव संगठन खुद को मजबूत नहीं कर पाए। उनका प्रदर्शन उस तरीके से नहीं रहा, इसके पीछे आपको क्या लगता है?
आपकी बात सही है कि अमूल जिसा स्तर पर पहुंचा है उस स्तर पर दूसरे नहीं पहुंच पाए। इसमें कोई समस्या नहीं है। आज कोऑपरेटिव सेक्टर तकरीबन 6.5 करोड़ लीटर दूध खरीदता है। अमूल का हिस्सा उसमें एक तिहाई या करीब 40 फीसदी ही है। 60 फीसदी तो दूसरे हैं। आज अमूल भारत में नंबर वन है लेकिन आप कर्नाटक चले जाएं तो वहां नंदिनी नंबर वन है, पंजाब में वेरका नंबर वन है, बिहार में सुधा नंबर वन है। अमूल 77 साल पुरानी संस्था है। यह सही है कि अमूल को पहले आने का फायदा मिला। अमूल को जो नेतृत्व और प्रोफेशनल्स मिले हो सकता है बाकियों को वैसा न मिला हो। अब भी अगर आप देखें तो डेयरी उद्योग में नंबर 1, नंबर 2, नंबर 3 कोऑपरेटिव संगठन ही हैं।
निजी डेयरी क्षेत्र, यहां तक कि जो मल्टीनेशनल ब्रांड भी हैं, वह उस तरीके से कोऑपरेटिव को चुनौती नहीं दे पाए, इसके पीछे आप क्या वजह देखते हैं? कोऑपरेटिव को दूध देने वालों में ज्यादातर छोटे किसान हैं, तो क्या उनके साथ जुड़ना बाकियों के मुकाबले कोऑपरेटिव के लिए ज्यादा सहज है?
डेयरी उद्योग जिस स्तर पर आज पहुंचा है उसमें निजी क्षेत्र का भी योगदान बहुत बड़ा है। आज कोऑपरेटिव सेक्टर जितना दूध लेता है उतना ही या उससे थोड़ा कम निजी क्षेत्र लेता है। कोऑपरेटिव सेक्टर 50-55 फीसदी दूध लेता है तो निजी क्षेत्र 45-50 फीसदी लेता है। पिछले दो-तीन दशकों में निजी क्षेत्र का शेयर लगातार बढ़ा है। अगर आप पूरे भारत में देखें तो कुछ जगहों पर कोऑपरेटिव अच्छा कर रहे हैं और निजी क्षेत्र उनसे प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं तो कुछ जगहों पर निजी क्षेत्र अच्छा कर रहे हैं और कोऑपरेटिव उनसे प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं। कोऑपरेटिव और निजी क्षेत्र दोनों का एक ही क्षेत्र में किसानों के उत्पाद के लिए प्रतिस्पर्द्धा करना किसानों और उपभोक्ताओं के हित में होता है। दोनों को किसानों को अच्छी कीमत देनी होती है और उपभोक्ताओं के लिए अपने प्रोडक्ट की वाजिब कीमत रखनी होती है। यह एक हेल्दी कंपटीशन है।
आपके नेतृत्व में जीसीएमएमएफ की वृद्धि शानदार रही है। आपको देश में डेयरी सेक्टर का भविष्य क्या दिखता है और दुनिया में भारत के डेयरी सेक्टर की क्या भूमिका होने वाली है?
दुनिया में जो भारत का भविष्य है वही डेयरी क्षेत्र का भविष्य है। आज अगर भारत की इकोनॉमी 3 ट्रिलियन डॉलर से थोड़ी ज्यादा है और हम बोल रहे हैं कि अगले 5 साल में यह बढ़कर 3 गुना हो जाएगी तो डेयरी सेक्टर में भी वही होगा। 50 साल में जहां खाद्यान्नों का उत्पादन 3 गुना बढ़ा है, वहीं डेयरी उत्पादन 10 गुना बढ़ा है। 210 लाख टन से बढ़कर 2,220 लाख टन तक पहुंच गए हैं। बाकी कृषि उत्पादों की तुलना में डेयरी क्षेत्र की वृद्धि दर ढाई गुना है। अगले 25 सालों में भारत का दूध उत्पादन 3 गुना बढ़कर 6,280 लाख टन के करीब हो जाएगा। प्रति व्यक्ति खपत भी 440 ग्राम से बढ़कर 850 ग्राम हो जाएगी। आज पूरे विश्व में दूध का जितना भी उत्पादन होता है उसका करीब एक चौथाई भारत में होता है। अगले 25 सालों में पूरे विश्व के दूध उत्पादन का 45 फीसदी भारत में होगा। दुनिया के जो बड़े डेयरी देश हैं वहां उत्पादन लागत बढ़ रही है। मुझे लगता है कि अगले 25 साल में विश्व डेयरी व्यापार में 60-70 फीसदी हिस्सेदारी भारत की होगी।
आपको नहीं लगता कि भारत को ग्लोबल मार्केट में अपनी मौजूदगी मजबूत करने के लिए एक लंबी रणनीति की जरूरत है और वह रणनीति आपके हिसाब से क्या होनी चाहिए?
इसके लिए हमें तीन-चार क्षेत्र में काम करना है। सबसे पहले तो हमें प्रति पशु उत्पादन बढ़ाना होगा। भले ही हम दुनिया के बड़े डेयरी देशों के उत्पादन के बराबर नहीं पहुंच सकते हैं लेकिन उनके आधे या एक तिहाई स्तर पर तो पहुंचें। दूसरा है, गुणवत्ता वाले दूध का उत्पादन जिसमें मिलावट न हो और एंटी बायोटिक रहित हो। हमें किसानों को प्रोत्साहित करना है तो दूध का 15-16 फीसदी निर्यात करते रहना पड़ेगा। अगर हमें निर्यात करना है तो भारत में दूध उद्योग की क्या-क्या चुनौतियां हैं, उसे देखना होगा। सबसे बड़ी चुनौती उत्पादन की है। हमारा प्रति पशु उत्पादन विश्व के बड़े डेयरी देशों से बहुत कम है क्योंकि हमारा लो इनपुट लो आउटपुट का मॉडल है। हमें यह देखना है कि कैसे ब्रीडिंग और फीडिंग में सुधार कर प्रति पशु उत्पादन बढ़ाएं। दूसरा यह है कि अगर हमें विश्व के बाजार में प्रतिस्पर्द्धा करनी है तो हमारे दूध के प्रोडक्ट की और दूध की गुणवत्ता सुधारनी होगी। मैं जब गुणवत्ता सुधारने की बात कर रहा हूं तो केवल हमें यह नहीं देखना है कि प्रोडक्ट बढ़िया होना चाहिए। किसानों द्वारा किए जाने वाले दूध उत्पादन से लेकर फाइनल प्रोडक्ट तक विश्व के मानक के बराबर होना चाहिए। तीसरा यह है कि अगर विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा करनी है, तो उत्पादन लागत को देखना पड़ेगा। भारत में दूध पर सब्सिडी नहीं है। हमारी जो दूध की सप्लाई चेन है उसको कैसे ज्यादा से ज्यादा उन्नत बनाया जाए ताकि हम विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें। इसके अलावा अगर आपको दूध का उत्पादन 3 गुना करना है तो आपको 3 गुना फीड और कैटल फीड भी उत्पादन करना पड़ेगा। हमको यह देखना है कि भारत के किसानों को कैसे हरे चारे और फीड इनग्रेडिएंट के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें अच्छी कीमत मिले। सबसे अंत में जो बहुत जरूरी है, अगर भारत को डेयरी निर्यात में नंबर एक बनना है तो मेड इन इंडिया डेयरी ब्रांड को इस तरह स्थापित करना है कि पूरे विश्व में जब डेयरी की बात आए तो लोग बोलें- भारत। ठीक उसी तरह जैसे आप स्विस चॉकलेट की बात करते हैं या केनोला ऑयल या फिर इटली के ऑलिव ऑयल की बात करते हैं। विश्व स्तर पर भारत के डेयरी उद्योग के लिए मेड इन इंडिया ब्रांड को आगे लेकर जाना पड़ेगा। इसके लिए आपको प्रोडक्ट भी चुनना होगा। अगर ऑलिव ऑयल या केनोला ऑयल है तो भारत का घी क्यों नहीं। मेड इन इंडिया घी से कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर सकता।
यह बहुत सुहानी तस्वीर है लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि सूखा पड़ जाए या कोई और समस्या आ जाए, जैसे पिछले साल लंपी की समस्या आई थी, ऐसे में दूध की उपलब्धता की भी चुनौती आ जाती है?
यह कृषि उत्पाद है जिसमें उत्पादन बहुत से कारणों पर निर्भर करता है। जैसे मौसम है, कीमत है, चारा है, तापमान है और क्या मौके उपलब्ध हैं। दूध ही है जिसकी कीमत अचानक बहुत ज्यादा नहीं बढ़ती है। आप टमाटर को देख लीजिए 5 रुपये से 200 रुपये पर पहुंच गया। दूध में ऐसा नहीं हो सकता। 20 गुना नहीं बढ़ सकता। 10-15 फीसदी ऊपर-नीचे होगा क्योंकि इसमें संगठित मार्केटिंग ज्यादा है। जितने भी कृषि उत्पाद हैं उनमें सबसे ज्यादा संगठित मार्केटिंग दूध में ही है।
पूरे देश में अमूल जैसी किसानों की और जो दूसरी संस्थाएं हैं, उनके भविष्य को आप कैसे देखते हैं?
भारत में ज्यादातर छोटे किसान हैं। भारत में अमूल का या किसानों का उज्जवल भविष्य तभी संभव है अगर वह प्रोडक्टिविटी में अपनी एफिशिएंसी बढ़ाएं। दूसरा, मार्केटिंग और ब्रांडिंग चाहे वह कोऑपरेटिव के जरिये करें या एफपीओ के जरिये करें, उनको एक स्ट्रक्चर बनाना पड़ेगा। अगर दूध को ही देखें, तो करीब 9 करोड़ परिवार दूध पर निर्भर हैं। भारत सरकार भी कोऑपरेटिव की ताकत को जान गई है। कोऑपरेटिव को बढ़ाने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं और कई योजनाएं बना रखी है।