वर्ल्ड मिल्क डेः भारत पूरी कर सकता है बढ़ते ग्लोबल डेयरी मार्केट की मांग- पियरक्रिस्टियानो ब्रेजले
इंटरनेशनल डेयरी फेडरेशन (आईडीएफ) के प्रेसिडेंट पियरक्रिस्टियानो ब्रेजले का कहना है कि भारत एकमात्र देश है जो इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकता है। लेकिन इसके लिए प्रति मवेशी दूध का उत्पादन बढ़ाने के साथ अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना जरूरी है
विश्व के डेयरी मार्केट में बेहतर ग्रोथ की संभावनाएं हैं क्योंकि आने वाले समय में पशु प्रोटीन के साथ दूध की मांग दुनिया भर में तेजी से बढ़ने का अनुमान है। लेकिन यूरोप के डेयरी किसान इसका फायदा उठा सकेंगे या नही यह जून में यूरोपीय संसद के लिए होने जा रहे चुनावों में साफ हो जाएगा। इसकी वजह यूरोपियन यूनियन द्वारा लागू की जा रही ग्रीन डील है। किसानों के विरोध के बाद इस पर अमल चुनावों तक टाल दिया गया है। इस चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि भविष्य में यूरोप में दूध उत्पादन की क्या स्थिति रहेगी। यूरोप, अमेरिका या न्यूजीलैंड इस वैश्विक मांग को पूरा करने की स्थिति में नहीं लग रहे हैं। वहीं भारत में दूध उत्पादन बढ़ने की संभावनाओं के चलते भारत इसका फायदा उठा सकता है। इंटरनेशनल डेयरी फेडरेशन (आईडीएफ) के प्रेसिडेंट पियरक्रिस्टियानो ब्रेजले का कहना है कि भारत एकमात्र देश है जो इस बढ़ती मांग को पूरा कर सकता है। लेकिन इसके लिए प्रति मवेशी दूध का उत्पादन बढ़ाने के साथ अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरना जरूरी है। विश्व में डेयरी कारोबार, भावी संभावनाओं और डेयरी क्षेत्र से जुड़े तमाम मुद्दों पर आईडीएफ के प्रेसिडेंट ब्रेजले ने रूरल वर्ल्ड के एडिटर-इन-चीफ हरवीर सिंह के साथ बात की। बातचीत के मुख्य अंशः
-विश्व स्तर पर डेयरी सेक्टर का भविष्य कैसा लगता है, खासकर मध्यम अवधि और दीर्घ अवधि के लिहाज से?
विश्व स्तर पर मुझे तो डेयरी सेक्टर का भविष्य काफी उज्जवल लगता है। अगले 20 वर्षों के दौरान पशु प्रोटीन की मांग में हर साल लगभग एक प्रतिशत वृद्धि होने की संभावना है। अगर इस बढ़ती हुई मांग का 30% भी डेयरी सेक्टर पूरा करे तो यह अपने आप में ग्रोथ का बहुत बड़ा अवसर है। रैबो बैंक ने वर्ष 2030 तक वैश्विक डेयरी आयात में 3.3 करोड़ टन वृद्धि का अनुमान लगाया है। यह बहुत बड़ा आंकड़ा है। यह केन्या के उत्पादन का छह गुना और इटली के उत्पादन का दो गुना है। इतनी मांग को कौन पूरा कर सकता है? निश्चित रूप से यूरोपियन यूनियन या न्यूजीलैंड इस मांग को पूरा नहीं कर सकेगा।
-यूरोपियन यूनियन क्यों इस मांग को पूरा करने की स्थिति में नहीं है?
यूरोपियन यूनियन अभी 14.5 करोड़ टन के साथ दुनिया में गाय के दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है। आगे वहां दूध के उत्पादन में गिरावट आएगी। आयरलैंड जैसे देशों में हम इस गिरावट को देख भी रहे हैं। इसका एक कारण उत्पादन की बढ़ती लागत है। यूरोप में किसानों को जो कीमत मिलती है वह उनकी लागत को पूरा करने के लिए काफी नहीं है। लेकिन बात सिर्फ लागत की नहीं है। पर्यावरण कानून को लागू करने का मसला भी समान रूप से महत्वपूर्ण है, खासकर जो नाइट्रोजन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से जुड़ा है।
-पर्यावरण कानून दूध उत्पादन को किस तरह प्रभावित करेंगे?
यूरोपियन यूनियन की ग्रीन डील के तहत ऑर्गेनिक नाइट्रोजन के स्तर की एक सीमा तय की गई है। यह 170 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से अधिक नहीं हो सकता है। इसका दूसरा मतलब यह है कि आप जमीन के तय आकार पर एक निश्चित संख्या से अधिक मवेशी नहीं रख सकते हैं। इस नियम के कारण दूध उत्पादन में भी गिरावट आएगी। आयरलैंड में किसानों ने बड़ी संख्या में मवेशियों को मारना शुरू कर दिया है। स्पेन और नीदरलैंड में भी इस कानून को सख्ती से लागू किया जा रहा है, जहां किसान सड़कों पर उतर आए हैं।
-आपको यूरोपियन ग्रीन डील का भविष्य क्या लगता है?
यूरोपियन ग्रीन डील में वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम से कम 55% घटाने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही वर्ष 2050 तक नेट उत्सर्जन शून्य पर लाने का लक्ष्य है। इसके साथ ही उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग में भारी कटौती इस डील का हिस्सा है। वहीं आर्गेनिक खेती के लिए भी लक्ष्य तय किया गया है। इस तरह के कदम यूरोप में कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं और वहां की खाद्य सुरक्षा इसके चलते प्रभावित हो सकती है। इस डील का भविष्य आगामी जून माह में तय होगा जब यूरोपियन यूनियन में अगले नेतृत्व के लिए चुनाव होंगे।
-इन सबका नतीजा क्या होगा?
जैसा मैंने कहा, जून में यूरोपियन पार्लियामेंट के लिए चुनाव होंगे। पूरे यूरोप में तब तक ग्रीन डील पर अमल रोक दिया गया है। कुछ देशों ने अपने स्तर पर भी कदम उठाए हैं। दक्षिणपंथी पार्टियां इस नियम के खिलाफ हैं जबकि वामपंथी पार्टियां इसका समर्थन कर रही हैं। इन नियमों का विरोध करने वाली पार्टियां किसान समर्थक बताई जाती हैं तो दूसरी तरफ वामपंथी पार्टियों को शायद वनस्पति आधारित प्रोटीन लॉबी का समर्थन प्राप्त है। वे पशु अधिकारों की भी बात कर रही हैं।
-इन सबका भारत की डेयरी इंडस्ट्री पर क्या असर होगा?
यूरोप में दूध के उत्पादन में गिरावट आती है और न्यूजीलैंड में उत्पादन बढ़ाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है, क्योंकि वहां भी पर्यावरण की समस्या का मुद्दा है और गायों की संख्या भी बहुत अधिक है। ऐसी स्थिति में आने वाले समय में वैश्विक मांग को कौन पूरा करेगा? मैं जो देख रहा हूं, सिर्फ भारत इस अंतर को पूरा करने की स्थिति में लगता है। यहां उत्पादन बढ़ाने और प्रति मवेशी उत्पादकता में वृद्धि की काफी गुंजाइश है। मुझे पूरा भरोसा है कि भविष्य में अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत एक बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरेगा।
-भारत क्यों बेहतर स्थिति में है और यहां क्या कदम उठाने की जरूरत है?
भारत इसलिए बेहतर स्थिति में है क्योंकि यहां दूध उत्पादन की संस्कृति और इसकी परंपरा है। यहां प्रति पशु उत्पादकता भी इस समय बहुत कम है। अमेरिका और न्यूजीलैंड में उत्पादकता पहले ही अधिकतम स्तर पर पहुंच गई है। अफ्रीका में लोगों को इसकी जानकारी नहीं है, ना ही ऐसे पशु हैं जो वहां रह सकते हैं। लेकिन भारत को इस दिशा में बढ़ने के लिए ब्रीडिंग, पशु पोषण, उनकी सेहत आदि पर काम करने की जरूरत है। इसके साथ ही यहां के उत्पादों का स्वास्थ्य सुरक्षा तथा गुणवत्ता के वैश्विक मानकों पर खरा उतरना भी जरूरी है।
-आप खुद एक किसान हैं और इटली के साथ ब्राजील, चीन व यूरोप के दूसरे देशों में आपकी कंपनी के प्लांट हैं। एक आंत्रप्रेन्योर और किसान के नाते मौजूदा स्थिति को कैसे देखते हैं?
हमारी कंपनी इटली की सबसे बड़ी दूध प्रोसेसिंग कंपनी है। हमारी कंपनी ब्राजील में भी बिजनेस करती है। गायों और डेयरी कारोबार के अलावा हम पिग फार्मिंग करते हैं। ब्राजील में हम मीट के लिए गाय पालते हैं। लेकिन जिस तरह की शर्तें लगाई गई हैं, 600 गायों के डेयरी फार्म की सीमा कारोबार विस्तार को प्रभावित करने वाली है। यह हमारे साथ दूसरे किसानों को भी प्रभावित करेगा। मैंने खुद यूरोपियन यूनियन के पदाधिकारियों के साथ बातचीत में ग्रीन डील पर सवाल उठाये और प्रति हेक्टेयर उत्सर्जन की सीमा तय करने का आधार जानने की कोशिश की। लेकिन उनके पास इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है। असल में यूरोप के देशों में किसानों की संख्या कुल आबादी का बहुत छोटा हिस्सा है और हम राजनीतिक नतीजों को प्रभावित करने में बहुत सक्षम नहीं है। इसी के चलते यूरोप के किसानों को अव्यावहारिक पर्यावरण कानूनों का सामना करना पड़ रहा है।