कृषि के ट्रांसफोर्मेशन के लिए लाये गये नये कानून: प्रोफेसर रमेश चंद
देश में कृषि क्षेत्र की नीतियों और उसके आर्थिक पहलुओं पर पकड़ रखने वाले देश और वैश्विक स्तर पर बड़े विशेषज्ञों में प्रोफेसर रमेश चंद शुमार होते हैं। केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार की कृषि नीतियों को तैयार करने और इस क्षेत्र से जुड़े फैसलों में उनकी अहम भूमिका रही है।
देश में कृषि क्षेत्र की नीतियों और उसके आर्थिक पहलुओं पर पकड़ रखने वाले देश और वैश्विक स्तर पर बड़े विशेषज्ञों में प्रोफेसर रमेश चंद शुमार होते हैं। केंद्र की मौजूदा एनडीए सरकार की कृषि नीतियों को तैयार करने और इस क्षेत्र से जुड़े फैसलों में उनकी अहम भूमिका रही है। सरकार की नीतिगत मामलों पर काम करने वाली संस्था नीति आयोग के सदस्य (कृषि) होने के साथ ही वह 15वें वित्त आयोग के सदस्य भी हैं। आजकल देश में चर्चा और विमर्श के केंद्र में कृषि और उससे जुड़े सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कानून हैं। कृषि क्षेत्र के भावी रोडमैप, नये कृषि कानूनों और तमाम दूसरे मुद्दों पर रुरल वॉयस ने प्रोफेसर रमेश चंद के साथ उनके नीति आयोग के कार्यालय में लंबी बातचीत की। रुरल वॉयस के लांचिंग संस्करण के लिए संपादक हरवीर सिंह के साथ प्रोफेसर रमेश चंद की बातचीत के मुख्य अंश।
सवाल- देश के मौजूदा आर्थिक परिदृष्य में एक नये तरीके के नीतिगत बदलाव की जरूरत है। 23 दिसंबर को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जन्मदिन है जिसे किसान दिवस के रूप में मनाया जाता है। रुरल वॉयस की शुरुआत के लिए उनके जन्मदिन को चुना गया है। इस मौके पर मैं आपसे जानना चाहता हूं कि खेती किसानी और किसान को केंद्र में रखकर देश की आर्थिक नीतियां बनाने की चौधरी चरण सिंह की आर्थिक सोच और विचार आज के संदर्भ में कितने प्रासंगिक हैं। जिसमें नीतियां और कानूनी दोनों तरह के बदलाव शामिल हैं।
उत्तर- हरवीर जी मुझे इस बात की खुशी है कि हम यह बातचीत चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन के मौके पर कर रहे हैं। मुझे उनको सुनने का दो बार मौका मिला। जब मैं इंडियन एग्रीकल्चर इंस्टीट्यूट में पोस्ट ग्रेजुएट स्टूडेंट यूनियन का पदाधिकारी था तो उनको हमने अपने इंस्टीट्यूट में बुलाया था। मैं उनकी एक बात से बहुत प्रभावित हुआ जो अभी तक मेरे दिल में बैठी हुई है। जिसमें उन्होंने शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के अंतर को समझाया। जिसे आजकल के अर्थशास्त्री इकोनामिक डिस्पेरिटी कहते हैं। उस पर उन्होंने एस शहरी स्टूडेंट के सवाल का जवाब देते हु कहा था कि फर्क यह है कि आपकी दादियां भी पढ़ी लिखी हैं और हमारी पोतियां भी अपनढ़ हैं। इकोनामिक डिस्पेरिटी की गूढ़ बात को उन्होंने इतने सरल तरीके से समझाया। यह मुश्किल आर्थिक मसलों पर उनकी पकड़ रखने की क्षमता और ग्रास रूट की समझ को साबित करता है। मैंने लोगों से यह भी सुना है कि वह कहते थे कि किसान तेरी एक आंख हल पर और एक आंख दिल्ली पर रहनी चाहिए। दिल्ली का उनका यह मतलब नहीं था कि दिल्ली शहर पर या यहां की चकाचौंध पर, मैं इसे ऐसे देखता हूं कि दिल्ली से उनका मतलब था दिल्ली में कृषि से जुड़ी जो नीतियां बनती हैं उन पर किसान की नजर रहनी चाहिए। आज के संदर्भ में उनके विचार की जो प्रासंगिकता है उसे में उस मामले में बहुत अहम मानता हूं जब कुछ लोग कृषि को सोशलिस्ट मॉडल की ओर ले जाने की कोशिश करते हैं। यह रोमांटिसिज्म देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को भी था। उस समय चौधरी साहब ने ज्वाइंट फार्मिंग एक्स-रे बुक लिखी थी उसमें उन्होंने कहा था कि जिस तरह का कलेक्टिव फार्मिंग सिस्टम, कम्यून सिस्टम रूस और चीन में चल सकता है वह भारत में नहीं चल सकता। सबसे बड़ा उनका संदेश तो मैं आज के संदर्भ में यही कहूंगा कि उनका यह कहना कि सोशलिस्ट माडल को भारतीयता का जो माडल है जिसें किसान का जमीन से प्यार है उसमें उसे न लाएं और यहां की परिस्थिति को देखकर ही नीतियां बनाएं। हमारा वेस्टर्न माडल से एशिया का माडल अलग है। यहां बड़े फार्म को छोटे फार्म ने हजम नहीं किया है। भारतीय मॉडल में किसानों की छोटी जोत है लेकिन उसका जमीन से बहुत लगाव है इसलिए यहां पर नीतियां इन किसानों की परिस्थिति को ही ध्यान में रखकर खुले मन से फैसला लेकर बनें। इसे मैं एशियन मॉडल भी कहता हूं। हमारे यहां वेस्टर्न माडल नहीं चलता है क्योंकि यहां किसान खुद खेती करना चाहता है।
सवाल- इस समय देश की अर्थव्यवस्था रिसेसन में है। आरबीआई समेत अधिकांश एजेंसियां इस साल देश की जीडीपी के 7.5 से 10 फीसदी तक कांट्रैक्ट होने के अनुमान लगा रही है। लेकिन कृषि और सहयोगी क्षेत्रों की विकास दर पाजिटिव बनी हुई है । कृषि को ब्राइट स्पॉट कहा जा रहा है। आपके हिसाब से यह कितना ब्राइट है।
जवाब- यदि मैं आंकड़ों में बताऊं तो चालू साल में इकोनॉमी को 7.5 से दस फीसदी गिरावट रहने की बात है। अगर कृषि का भी दूसरे क्षेत्रों जैसा हाल हो जाता तो गिरावट में करीब एक फीसदी की अतिरिक्त बढ़ोतरी हो जाती। लेकिन उसमें यह भी नहीं कहना चाहिए कि कृषि पर कोविड असर नहीं डालता ऐसा भी नहीं है। सरकार ने कृषि के कामकाज को जारी रखने की अनुमति दी और मैंने इस मसले पर सरकार को राय दी कि कृषि को लॉकडाउन के प्रतिबंधों से बाहर रखना है क्योंकि व्यवहारिक रूप से कृषि में यह संभव नहीं है। इसलिए तीन दिन के अंदर ही राज्यों को निर्देश जारी हो गये थे कि कृषि क्षेत्र के कामकाज को नहीं रोका जाए। साथ ही कृषि के काम की प्रकृति है कि वहां लोगों के बीच कामकाज के दौरान दूरी रखी जा सकती है। सरकारी खरीद के दौरान मंडियों में भी यह संभव हो सका। इसलिए कृषि के बेहतर प्रदर्शन से इकोनामी को बड़ा सहारा मिला।
सवाल- ग्रीन रिवोल्यूशन के समय में हम डिफिसिट से जूझ रहे थे। लेकिन अब कुछ खाद्य तेल जैसे उत्पादों को छोड़ दें तो हम सरप्लस की स्थिति में आ गये हैं। अब तो दालों में भी आत्मनिर्भर हो गये हैं। ऐसे में क्या समय आ गया है कि सरकार का कृषि नीति का फोकस प्राइस सपोर्ट की बजाय इनकम सपोर्ट होना चाहिए।
जवाब- मैं इसको दो तरीके से लेता हूं। दोनों के अपने-अपने फायदे हैं अपनी सीमाएं हैं। प्राइस पालिसी से आप फसल को टारगेट कर सकते हो। अगर आप फसल पैटर्न बदलने की जरूरत मानते हैं तो यह इकोलाजिकल, नेचुरल और इकोनामिक दोनों फैक्टर हो सकते हैं। अगर चावल को मानते हैं ज्यादा पानी वाली फसल है तो इसे आप प्राइस पालिसी से चेंज कर सकते हो। इनकम सपोर्ट से नहीं।प्राइस पालिसी को आप व्यक्तिगत आत्रप्न्योरशिप या एक्टिविटी पर टारगेट कर सकते हैं। जो इन्कम सपोर्ट है वह क्राप न्यूट्रल होता है। इकोनामिक एक्टिविटी न्यूट्रल होता है। जैसे अभी किसानों को छह हजार रुपये दे रहे हैं। यह क्राप न्यूट्रल होता है। इससे आप किसी फसल को कंट्रोल नहीं कर सकते जिसकी जरूरत कम है और उत्पादन ज्यादा हो रहा है जैसे चीनी के मामले में। इनकम सपोर्ट उसी को मिलती है जिसे आप देते हो यह यूनिवर्सल नहीं है। प्राइस पालिसी से आप समाज के दूसरे वर्ग का फायदा भी देख सकते हैं। उपभोक्ता का भी ध्यान रख सकते हो। यह ताकत प्राइस पालिसी में है। इसके सकारात्मक फायदा हो सकते हैं। रियायती कीमत पर लोगों को खाद्यान्न दे सकते हैं। मेरा मानना है कि किसी देश का शार्टेज से सरप्लस हो जाना इसे जस्टिफाई नहीं करता है कि प्राइस पालिसी को छोड़कर इनकम पालिसी पर चले जाएं। बेहतर यही होगा आप दोनों के मिक्स को लेकर चलें।
सवाल - एमएसपी को लेकर बहुत डिबेट हो रही है। केवल 23 फसलों का एमएसपी तय होता है जबकि खरीद आधा दर्जन फसलों की हो पाती है। वहीं अब तो दूध और पॉल्ट्री जैसे उत्पादों की भी बाजार का संकट पैदा होने की स्थिति आ गई है। ऐसे में एमएसपी को लेकर क्या नीति होनी चाहिए।
जवाब- एमएसपी की नीति पर सबसे पहले हमें इसके आरिजिन में जाना चाहिए कि हमें एमएसपी की सरकार से लेने की जरूरत क्यों पड़ती है। इसकी वजह यह है कि किसान को बाजार में वाजिब दाम नहीं मिलती तब उसका ध्यान सरकार की ओर जाता है की हमें सरही दाम मिलना चाहिए। इसका उपाय प्रतिस्पर्धा है। जिसमें सरकार, सहकारी, निजी और किसानों के संगठन सब मिलकर आपरेट करें। प्रतिस्पर्धा ही दीर्घकालिक टिकाऊ माडल है। लेकिन फिर भी ओपन मार्केट प्राइस से किसान बेहतर आय नहीं मिलती तो उस स्थिति में मार्केट इंटरवेंशन और एमएसपी की तरफ जाना पड़ता है। हमें इसके तरीके खोजने हैं जिसमें राज्यों की भी भूमिका हो। नेशनल इंपोर्टेंस की कौन सी फसलें हैं यह करना होगा। अमेरिका और दूसरे देशों में चार से पांच फसलों को नेशनल इंपोर्टेंस की फसलें माना जाता है। जिसमें केंद्र की जिम्मेदारी होनी चाहिए। इसे लागू करने का जिम्मा राज्यों को निभाना चाहिए। राज्यों के स्तर पर क्या जरूरी है इस मामले में केंद्र और राज्य को मिलकर काम करना चाहिए। साथ ही पीडीएस सिस्सटम और और गैर पीडीएस सिस्टम की जरूरत के मामले में नये तरीके खोजने होंगे। उसमें किसान को मदद दी जा सके। ऐसे में जहां जरूरत हो वहां सरकार को किसानों की मांग को समझकर मदद करनी चाहिए क्योंकि सभी मामलों में अगर खरीद होगी तो उसके फिस्कल लागत बहुत ज्यादा हो जाती है तो व्यवहारिक नहीं है।
सवाल- फसलों के एमएसपी को लागत के 50 फीसदी मुनाफे के साथ तय करने का वादा सरकार ने किया था। उसे ए-2 प्लस एफएल के आधार पर 50 फीसदी मुनाफे के साथ तय किया जा रहा है। लेकिन किसान संगठनों का कहना है कि इसे सी-2 पर 50 फीसदी मुनाफा के साथ तय करने की सिफारिश एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले किसान आयोग ने की थी। क्या यह संभव है। अगर नहीं तो इसके व्यवहारिक कारण क्या हैं।
जवाब- हमें एमएसपी को किसी सिंगल फैक्टर से नहीं बांधना चाहिए। इसे ए2प्लस एफएल या सी2 से नहीं बांधना चाहिए। यह एक फैक्टर हो सकता है लेकिन केवल इसी से तय नहीं कर सकते हैं। एमएसपी लिये यह जरूरी है कि किसी फसल की ओपन मार्केट और इंटरनेशनल प्राइस क्या है । इसको ध्यान रखकर दाम तय होना चाहिए। अब में सी2 पर आता हूं। सी2 को हम ए2प्लस एफएल में हम जमीन का रेंट और कैपिटल इंटरेस्ट जोड़ देते हैं तो वह सी2 बन जाता है।
आपकी जमीन की आपर्चूनिटी कोस्ट है उस का रेंट आपको मिलना चाहिए। लेकिन इसके उपर 50 फीसदी मार्जिन का कोई तर्क नहीं है। ए2प्लस एफएल में50 फीसदी जोड़ने से लैंड रैंट कवर हो जाता है। यह कवर जरूर होना चाहिए लेकिन प्रोफिट के ऊपर प्रोफिट का कोई जस्टिफिकेशन नहीं बनता है मैं इस पर किसान भाइयों से बात करने को भी तैयार हूं। एमएसपी सी2 से कम नहीं होनी चाहिए। अपनी जमीन के रेंट पर 50 फीसदी बढ़ाने का तर्क जायज नहीं है।
सवाल- सरकार ने किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है अब इस लक्ष्य को पाने में केवल दो साल रह गये हैं। इस मोर्चे पर अभी तक कहां पहुंचे हैं। क्या ये लक्ष्य 2022 तक हासिल करना संभव है। इसका आधार क्या होगा क्या कोई कट आफ साल तय किया गया है।
जवाब- हमारी केलकुलेशन में इसका आधार 2016 है। उस साल माडल एपीएमसी एक्ट लाया गया और उसके एक साल बाद माडल कांट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट लाया गया था। मैंने नीति आयोग से किसानों की आय दो गुना करने पर एक पेपर भी पब्लिश किया था उसमें पूरा रोडमैप दिया था। जिसमें दो फैक्टर थे। इसमें एक था हायर प्राइस रियलाइजेशन अगर पांच साल में आठ फीसदी यह बढ़ती है तो उसे 13 फीसदी आय बढ़ेगी। दस फीसदी बढ़ने पर यह 16 फीसदी बढ़ती है। लेकिन यह तभी संभव है जब किसानों के उत्पादनों का वैल्यू एडिशन हो और उसे उत्पाद बेचने की फ्रीडम मिले। दूसरा फैक्टर था लोगों का खेती से बाहर निकलना। दुनियाभर में यही हुआ है कि लोग गैर कृषि क्षेत्र में गये हैं। 2001 से 2011 के बीच वर्क फोर्स किसानों की हिस्सेदारी 35 से 25 फीसदी रह गयी। अगर यह ट्रेंड जारी रहता है और हर साल एक फीसदी किसान खेती से बाहर निकलता है। ऐसे में लोगों के बाहर जाने से वहां रह जाने वाले लोगों की आय बढ़ जाती है। मेरा मानना है कि कुछ राज्यों में तो हम यह लक्ष्य हासिल कर पाएंगे। कुछ इस पर निर्भर करेगा कि किस गति से आप इन राज्यों ने नीति आयोग के सुझावों पर अमल किया है। उन्होंने कितने सुधार लागू किये हैं।
सवाल- एग्रीकल्चर डायवर्सिफिकेशन को लेकर बहुत जोर दिया जा रहा है और डिबेट हो रही है। लेकिन क्या डायवर्सिफिकेशन के फसलों कीपहचान कैसे होगी। किस फसल पर फोकस किया जाना चाहिए क्योंकि हम अधिकांश फसलों में तो सरप्सल की स्थिति में है। क्या हम यूरोप और अमेरिका जैसी स्थिति में पहुंच गये हैं जहां हमें बाजार बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं है और हमें बाजार तलाशने हैं।
जवाब- हम वास्तव में यूरोप जैसी स्थिति में जा रहें हैं मैने आपको गन्ना और चीनी का उदाहरण दिया जहां हर साल 30 फीसदी सरप्लस हो रहा है। मेरी केलकुलेशन है कि भारत को अपनी उत्पादन ग्रोथ का पांचवां हिस्सा हर साल निर्यात करना पड़ेगा। या स्टोर में रखना पड़ेगा। लेकिन इसके लिए मार्केट प्राइस और प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति को देखना पड़ेगा। अगर इसे मार्केट में छोड़ दिया तो दाम गिर जाएंगे। डायवर्सिफिकेशन के लिए हमें उपभोक्ता के ट्रेंड को भी देखना चाहिए कि वह कहां खर्च कर रहा है। साथ ही मार्केट के सिग्नल पर भी ध्यान रखना होगा। अगर डायवर्सिफिकेशन नहीं करेंगे तो नेचुवरल ग्रोथ प्रोसेस की विपरीत दिशा में चले जाएंगे।
सवाल- बात सुधारों के लिए लागू किये गये तीन कृषि कानूनों अध्यादेशों की करते हैं। क्या देश में कृषि और किसानों की स्थिति में बदलाव के लिए यह कानून जरूरी हैं। इन कानूनों के बनाने में आपकी अहम भूमिका रही है। इसके पीछे क्या सोच रही है कि इतने बड़े बदलाव वाले कानून लागू किये जाएं।
जवाब- मैने इस पर एक पेपर लिखा है। मैं आपके माध्यम का इस्तेमाल कर रहा हूं इसमें मैने इन कानूनों को लाने के दस कारण बताये हैं। किसान की आय और गैर किसान की आय के बीच की खाई बढ़ रही है। उसे बदलना जरूरी है। दूसरे 1991 के सुधारों इंडस्ट्री और फाइनेंशियल सेक्टर को देखा लेकिन इस में हमने कृषि को छोड़ दिया। तीसरे पिछले कुछ बरसों में किसानों के कितने आंदोलन हुए हैं जो मौजूदा व्यवस्था में किसान को आगे नहीं जाने देने के प्रति नाराजगी मुख्य वजह रही है। ऐसे में हमें कृषि को विकास के नये स्तर पर ले ले जाना है तो व्यवस्था को बदले बिना यह संभव नहीं है। व्यवस्था को बदले बिना आप ट्रांसफोर्मेशन नहीं कर सकते हैं। आप इंक्रीमेंटल चेंज तो कर सकते हैं लेकिन परिवर्तन संभव नहीं है। मैं इन कानूनों नये प्रसंग के संदर्भ में व्यवस्था को नया रूप देने के लिए देखता हूं।
सवाल- अगर ये किसानों के हक में हैं, तो फिर देश के सबसे बेहतर खेती वाले क्षेत्रों के किसान इनकी मुखालफत क्यों कर रहे हैं। इन कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन अभी तक के सबसे बड़े किसान आंदोलन का रूप ले रहा है। इसकी वजह क्या है। कानूनों का विरोध राजनीतिक दल और किसान दोनों कर रहे हैं उनका कहना है कि अध्यादेशों को महामारी के बीचों बीच लाने के साथ ही जिस जल्दबाजी में इनको लाया गया यह ठीक नहीं था। किसानों का यह भी आरोप है इनके तैयार करने की प्रक्रिया में उनके साथ कोई राय मश्विरा भी नहीं किया गया। जबकि अब सरकार संशोधन के लिए तैयार है।
जवाब- इसको यदि हम थोड़ा पीछे जाएं तो कोई मुश्किल फैसला संकट दौर में ही हुआ। कोविड को एक आपर्च्यूनिटी की तरह देखने की बात सभी कर रहे थे। अगर आप 1991 के सुधारों को देखें या 1965 की ग्रीन रिवोल्यूशन को देखें तो कोई भी बड़ा फैसला क्राइसिस के समय में ही हमारे देश में हो पाए हैं। ग्रीन रिवोल्यूशुन का भी बहुत लोगों ने विरोध किया था। उस समय बहुत भूख थी उस क्राइसिस में ही इसे लाना संभव हो पाया। 1991 में बैलेंस आफ पेमेंट खराब हो गया था सोना गिरवी रखना पड़ा था। 2003 -04 में जब काटन का उत्पादन इतना कम हो गया था कि हमें अपनी मिल चलाने के लिए आयात करना पड़ रथा था तब हम बीटी काटन का फैसला ले पाए। कृषि क्षेत्र में क्या करना चाहिए यह पिछले 15-20 साल में लगातार लिखा गया कि हमें कृषि में सुधार करने चाहिए। जो लोग विरोध कर रहे हैं वह इन अध्यादेशों के आने के बाद ही विरोध कर रहे हैं। इसके पहले किसी ने सुधारों का विरोध नहीं किया। मैं 2002 से प्री बजट की बैठकों में देख रहा हूं कृषि क्षेत्र के प्रतिनिधि सुधारों की वकालत कर रहे थे। इसलिए सरकार को लगा कि इसे तो तुरंत कर देना चाहिए। लोकतंत्र सिस्टम किसी भी मसले पर एक राय बनाना संभव नहीं है। बीटी काटन पर हम अभी तक राय नहीं बना पाये है। सरकार का काम है कि वह एक्सपर्ट की राय लेकर दूसरे देशों के अनुभवो के आधार पर फैसले ले। मेरा कहना है कि समय ही बताएगा कि यह फैसला सही था या नहीं है।
जहां तक राज्यों के विरोध की बात है अगर राज्यों ने एपीएमसी एक्ट संशोधन के साथ लागू किया होता चार बदलावों के साथ, तो नया कानून लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जहां तक इन कानूनों की बात है तो केंद्र ने ट्रेड के लिए यह कानून बनाया है। जो केंद्र की सूची में है और एंट्री 33 में आता है। वैसे राज्य सरकारें प्राइवेट ट्रेड पर भी सेस लगा सकते हैं लेकिन उसके लिए केंद्र से मजूरी लेनी होगी क्योंकि यह केंद्रीय कानून हैं। ट्रेड फेसिलिटेशन के नाम पर वह सेस लगाकर मंडियों को किसी गैर जरूरी प्रतिसपर्धा से संरक्षण दे सकते हैं।
सवाल- एग्रीकल्चर इकोनामिस्ट के रूप में आपका व्यापक अनुभव है देश की कृषि आने वाले बरसों में किस दिशा में जा रही है। इसके ट्रांसफोर्मेशन पर जोर दिया जा रहा है। जाहिर सी बात है कि उसके लिए बड़े सुधार और बदलाव जरूरी हैं। वह बदलाव किस तरह के होने चाहिए और उन पर आम राय कैसे बन सकती है।
जवाब- हमें नई तरह की औद्योगिक क्रांति में पश्चिमी माडल को छोड़कर एग्रीकल्चर को केंद्र में रखकर रुरल डेवलपमेंट म़ाडल की जरूरत है। एग्री प्रोसेसिंग और इंडस्ट्री स्थापित करके रोजगार पैदा करना होगा। कृषि को उसके पैरों पर खड़ा करके किसानों को मजबूत करे। यहां सरकार की भूमिका आती है वह एक इनवायरमेंट बनाए। साथ ही इंस्टीट्यूशन भी खड़े करे। एफपीओ जैसे संस्थान बनाकर। किसान को आंत्रप्रैन्योर बनाना होगा। तभी हमारा विकास का माडल कामयाब हो सकता है नहीं तो हम संकट में फंस जाएंगे।
सवाल- 2006 में बिहार में एपीएमसी को समाप्त कर दिया था लेकिन वहां अभी तक भी कोई बड़ा निजी प्लेयर नहीं आया। उसे उदाहरण के रूप में रखा जा रहा है। वहां किसानों को अपनी अधिकांश फसलें एमएसपी से नीचे बेचनी पड़ रही है। इसे इन कानूनों के खिलाफ बड़े तर्क के रूप में उपयोग किया जा रहा है।
जवाब- बिहार में एपीएमसी तो है नहीं और नया कानून एपीएमसी को खत्म नहीं करता है। हमें प्राइवेट प्लेयर और एपीएमसी दोनों को रखना चाहिए। पंजाब में मजबूत मंडी है लेकिन चावल की ग्रोथ एक फीसदी से कम है। बिहार में मंडी और एमएसपी के बिना सात फीसदी ग्रोथ है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मंडी नहीं होने से यह ग्रोथ हुआ है। असल में हर राज्य की अपनी परिस्थिति होती है। बिहार के उदाहरण को बीच में नहीं लाना चाहिए। नये कानून में एपीएमसी को रखा गया है। बिहार में तो खत्म कर दिया गया। मैं एपीएमसी को खत्म करने के फेवर में नहीं हूं जो बिहार ने किया।
सवाल- सरकार चाहती है कि बड़ी कंपनियां कृषि क्षेत्र में आयें और वैल्यू एडिशन करें लेकिन उपभोक्ता से ली जाने वाली कीमत में क्या किसान की हिस्सेदारी का स्तर तय नहीं होनी चाहिए। विकसित देशों में किसानों उपभोक्ता के एक डॉलर की खरीद कीमत में से 30 से 35 सेंट ही मिलते हैं। देश में अमूल जैसी संस्था इसका 70 फीसदी तक दे रही है। इसमें आदर्श स्थिति क्या है।
जवाब- इसका कोई फार्मूला नहीं है इसे मैकेनिकली फिक्स नहीं कर सकती है अमूल के उदाहरण में भी कुछ दूसरे कारक हैं। असल बात है कि किसान के लिए नेट प्राइस क्या मिलती है यह मैटर करता है। मैं कल्पना करता हूं फार्म एज ए फैक्टरी ऑफ द फार्मर्स। इसमें किसान को सबसे ज्यादा फायदा है।
सवाल- कृषि में बड़ा सार्वजनिक निवेश नहीं हो रहा है। ग्रास कैपिटल फार्मेशन भी कम है। वहीं सरकार ने हाल में एक लाख करोड़ का एग्री इंफ्रा फंड घोषित किया है लेकिन यह तो कर्ज है जबकि से पैकेज के रूप में पेश किया जा रहा है।
जवाब- इसमें जिसे हम पब्लिक सेक्टर इनवेस्टमेंट कहते हैं वह केवल केंद्र से नहीं राज्यों से भी आता है। 80 फीसदी से ज्यादा पब्लिक इनवेस्टमेंट राज्यों से आता है। यदि राज्य लोन माफी और सब्सिडी में जाएंगे तो उससे पब्लिक इनवेस्टमेंट पर दीर्घकालिक रूप में प्रतिकूल असर पड़ता है। अगर हम प्राइवेट इनवेस्टमेंट में से किसान को हटा दें तो कारपोरेट इनवेस्टमेंट ढाई फीसदी से भी कम है। हमें कारपोरेट को एनीमी सेक्टर की तरह नहीं देखना चाहिए। इसके निवेश को कृषि में लाना बहुत जरूरी है।
सवाल- कृषि में नई टेक्नोलॉजी और रिसर्च को लेकर हम काफी पीछे हैं और अधिकांश नये ब्रेकथ्रू बाहर से ही आ रहे हैं। जीएम टेक्नोलॉजी को लेकर सरकार की क्या नीति है इस पर सरकार ही बंटी हुई दिखती है।
जवाब- एग्रीकल्चर का माडर्नाइजेन होना चाहिए। निवेश, ज्ञान और माडर्नाइजेशन मिलकर ही एग्रीकल्चर का ट्रांसफोर्मेशन हो सकता है। लेटरल फ्लो आफ टेक्ननोलाजी होना चाहिए। होर्टिकल्चर में हम पीछे चले गये हैं तो एप्पल जैसे फ्रूट भी बाहर से आने लगे हैं। पब्लिक में बासमती और प्राइवेट में काटन को छोड़ दें तो कोई बड़ी टेक्ननोलाजी नहीं आई है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गेहूं और चावल में भी ग्रीन रिवोल्यूशन बाहर से आये जर्मप्लाज्म से ही संभव हो पाया है। हमें बाहर की टेक्ननोलाजी लेनी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही हमें टेस्टिंग और रेगूलेशन का उपयोग करते हुए नई टेक्ननोलाजी लानी चाहिए। लेकिन हमें पूरी तरह विदेशों पर ही निर्भर नहीं रहना चाहिए।
सवाल- आपको क्या लगता है कि मौजूदा आंदोलन का हल जल्दी संभव हो सकेगा। आपको लगता है कि कानूनों में कुछ बदलाव हो सकेगा।
जवाब-किसी भी आंदोलन का लंबा चलना सरकार या किसान किसी के हित में नहीं है। मेरी तो प्रार्थना और उम्मीद है कि बीच का रास्ता निकलना चाहिए और इस संकट का हल निकलना चाहिए। सरकार ने आठ सुधारों पर बात की है जिसमें चार तो इन कानूनों से ही जुड़े मुद्दे हैं। सरकार ने लचीला रुख अपनाया है किसानों को भी लचीला रुख अपनाना चाहिए।
सवाल- सरकार का एफपीओ बनाने पर काफी फोकस है क्या यह काम सहकारी समितियों को अधिक स्वायत्ता देकर संभव नहीं था। जबकि दोनों का मूल सिद्धांत एक ही है जिसमें किसान साथ आकर अपनी मोलभाव की क्षमता बढ़ा सकें और लागत कम कर सकें। एफपीओ के विस्तार की सीमा है जबकि सहकारिता के कामयाब संस्थान को राष्ट्रीय स्तर तक ले जाया जा सकता है।
जवाब- भारत जैसे विविधता वाले देश में कई तरह के विकल्प् होने चाहिए। एफपीओ के कई जगह अच्छे परिणाम आये हैं। कोआपरेटिव में कई तरह के दखल भी हैं। हमें एक सिंगल माडल की बजाय एफपीए, कोआपरेटिव को मिलाकर दोनों को साथ लेकर चलना चाहिए। राज्य कोआपरेटिव को बढ़ाए और एफपीओ को केंद्र बढ़ाए। जहां स्माल लैंड होल्डर हैं वहां एफपीओ को बढ़ाना चाहिए।