किसानों को वोट बैंक के रूप में खारिज करने की बजाय कारपोरेट जगत उन्हें सहयोगी मान कर काम करे
भारतीय कारपोरेट जगत को यह बात समझ लेनी चाहिए कि वोट बैंक जैसे शब्द के जो मायने वह निकालता है उसको छोड़कर कारपोरेट जगत को किसानों को अपना सहयोगी मानकर उनके साथ मिल कर काम करना चाहिए जिसमें सभी के हित निहित हैं
भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित कॉरपोरेट्स राजनीतिक अर्थव्यवस्था को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। सरकारें उन लोगों द्वारा चुनी जाती हैं जिनका राजनीतिक शक्तियों पर पहला दावा होता है। लेकिन जो लोग सरकारों और नेताओं को चुनते हैं उन्हें तिरस्कारपूर्वक ''वोट बैंक'' का नाम दिया जाता है। वोट बैंक एक बुरा शब्द बन गया है, हालांकि यह वही वोट हैं जो सरकार की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती है क्योंकि वोट ही सरकार चुनते हैं। ऐसी स्थिति होना नामुमकिन है जहां तथाकथित जानकार लोगों द्वारा विशुद्ध आर्थिक सिद्धांतों के तर्क पर वोट बैक को खारिज कर दिया जाता है। कुछ ऐसा ही हाल भारतीय कारपोरेट जगत का है। जमीनी स्तर पर लोकप्रिय राय को सही ढंग से देखने की बजाय, जब आम जनता के कल्याण की अनुकूल नीतियों और निर्णयों की बात होती तो वह इनके विरोधी के रूप में दिखते हैं।
भारतीय कारपोरेट जगत आम तौर पर लोक लुभावन माहौल को समझने में सक्षम नहीं है, खासतौर से यह बात उस समय अधिक सटीक बैठती है जब बात किसानों की होती है। जब एक बैवरेजेज और स्नैक्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी ने गुजरात के किसानों के खिलाफ आलू की एक खास किस्म पर पेटेंट का दावा किया था। फिर उस जानी-मानी आलू चिप्स बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी ने करोड़ों रुपये का दावा किया किसानो के खिलाफ किया था। सरकार से बातचीत के बाद कंपनी ने विवाद का निपटारा किया। इसके बाद प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वेरायटी एंड फार्मर्स राइट अथारिटी (पीपीवीएफआर) में दायर एक आवेदन के चलते आलू की इस किस्म के पंजीकरण को हाल ही में रद्द कर दिया गया। पिछले दिनों आये एक फैसले में आलू की इस विशेष किस्म के पंजीकरण को रद्द करने तक घटनाक्रम इस बात को दर्शाता है कि कैसे कॉर्पोरेट जगत किसान सबसे महत्वपूर्ण हितधारकों के साथ बिल्कुल भी सहानुभूति नहीं रखते है - चाहे वह किसान हों या असंगठित कामगार।
पीपीवीएफआरए का यह फैसला संयोग से उस समय आया है जब देश के किसान हाल ही में रद्द किये गये तीन कृषि कानूनों के खिलाफ और कई अन्य मांगों पर आंदोलन चला रहे किसानों के मुद्दों में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए कानूनी गारंटी की मांग के अलावा लंबित बीज विधेयक और बिजली संशोधन विधेयक के खिलाफ नाराजगी भी शामिल है। निरस्त कानूनों के अलावा, दो अन्य विधेयक, जिन्हें आर्थिक सुधारों के रूप में जाना जाता है उनके भी रुकने की संभावना बन रही है ।
विपक्षी दलों और आंदोलनकारी किसानों की आम धारणा यह रही है कि सरकार ने किसानों के साथ व्यापक चर्चा और परामर्श के बिना ही बदलाव लाने की कोशिश की जिसके नतीजे को लेकर ज्यादातर किसानों में बहुत सारे संदेह और शंकाएं थी। एक तरह से सरकार को इस बात के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा है।
लेकिन उन कॉरपोरेट्स के बारे में क्या जो भारतीय कृषि कारोबार में एक बड़े हिस्से की उम्मीद कर रहे थे और उसके लिए उनका रास्ता वह था जिसे अक्सर पिछले दरलवाजे से एंट्री के रूप में जाना जाता है। इसे जहां कानूनी रूप से और समानता के सिद्धांत में गलत माना जाता है वहीं व्यावसायिक अर्थों में भी यह उचितनहीं है। आखिरकार खाद्य, सब्जियां, दूध, खाद्य तेल, पशुधन और प्रसंस्करण से जुड़ी कृषि अर्थव्यवस्था में उत्पादकों, प्रसंस्करण करने वाले उद्योगों, मार्केटिंग और उपभोक्ताओं के बीच विश्वास की जरूरत होती है। सरकार का काम केवल जरूरत पड़ने पर रेगुलेट करना है । इस व्यवसाय को विश्वास की नींव पर खड़ा किया जाना चाहिए जिसमें हितधारकों का हाथ थामने की जरूरत होती है, न कि उन्हें मुकदमेबाजी में फंसाकर उनका उत्पीड़न का तरीका अपनाना। पीपीवीएफआरए का आदेश इसी कठिनाई की ओर इशारा करता है।
आलू की किस्म के रजिस्ट्रेशन को रद्द कराने वाले याचिकाकर्ता के इस दावे में कोई संदेह नहीं है कि कंपनी के कदम ने ऐसे बहुत से किसानों को कठिनाई में डाल दिया गया था जिनके ऊपर किस्म का दुरुपयोग कर करने के चलते भारी जुर्माना देने की संभावना बन रही थी। हालांकि इत्तेफाक से ऐसा अभी तक नहीं हो पाया था। शुक्र है कि पीपीवीएफआरए के फैसले के चलते यह स्थिति नहीं आई और उस स्थिति में सरकार किसानों के ऊपर ही दोष मढ़ती। जहां तक भारतीय कारपोरेट जगत की बात है तो उसे यह बात समझ लेनी चाहिए कि वोट बैंक जैसे शब्द के जो मायने वह निकालता है उसे छोड़कर किसानों के साथ मिल कर काम करना चाहिए जिसमें सभी के हित निहित हैं।
(प्रकाश चावला सीनियर बिजनेस जर्नलिस्ट हैं और आर्थिक नीतियों व विषयों पर लिखते हैं)