क्या कृषि को लेकर बजट से हमारी उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं?

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण की शुरुआत में ही कृषि के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने जो नौ प्राथमिकताएं गिनाईं उनमें कृषि (उत्पादकता और रेजिलियंस) सर्वोपरि थी। मुझे खुशी होती अगर उनके भाषण में सस्टेनेबिलिटी और किसान की संपन्नता, ये दो शब्द भी होते। लेकिन अफसोस कि यह दोनों शब्द नहीं थे।

क्या कृषि को लेकर बजट से हमारी उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं?

सबसे पहले एक कैवियटः कृषि इतना विशाल और जटिल सेक्टर है कि इसे सिर्फ बजट घोषणाओं और वित्तीय प्रावधानों के नजरिए से नहीं देखा जा सकता। फिलहाल मैं एक प्राकृतिक घटना के तौर पर कृषि पर मानसून के प्रभाव को दरकिनार करता हूं। आइए, हम सरकार की नीतियों और विभिन्न योजनाओं के अमल पर फोकस करें।

सरकार की कई नीतियां कृषि को प्रभावित करती हैं। इनमें प्रमुख इन बातों से जुड़ी हैं- (i) पानीः नहर सिंचाई व्यवस्था से पानी की समय पर सप्लाई और मेंटनेंस, भूजल का दोहन, कृषि में इस्तेमाल होने वाले पानी के पंप की बिजली की उपलब्धता और उसका शुल्क (मुफ्त, सब्सिडी और डिफरेंशियल), डीजल की लागत (ट्रैक्टर, बिना बिजली वाले इलाकों में पंप) (ii) उर्वरकः उपलब्धता, कीमत (सब्सिडी की व्यवस्था), ऑर्गेनिक खाद की उपलब्धता और इसकी कीमत तथा वितरण से संबंधित नीति (iii) कीमतः न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में खरीद की क्षमता, बिना एमएसपी वाली फसलों में कीमत को लेकर हस्तक्षेप की नीति (iv) मूल्य नियंत्रण के उपायः स्टॉक लिमिट, निर्यात पर अंकुश, शुल्क मुक्त या कम शुल्क पर आयात (v) कर्जः पर्याप्तता, उपलब्धता और उसकी लागत (vi) जोखिम कम करनाः बीमा उत्पादों की प्रभावशीलता और कवरेज। यह सूची और लंबी हो सकती है। ऐसे अनेक नीतिगत फैसले हैं जो किसान की आमदनी और कृषि को बजट से अधिक प्रभावित करते हैं। इस कैवियट के साथ कृषि और किसान के नजरिए से मैं बजट पर टिप्पणी करता हूं।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण की शुरुआत में ही कृषि के महत्व पर जोर दिया। उन्होंने जो नौ प्राथमिकताएं गिनाईं उनमें कृषि (उत्पादकता और रेजिलियंस) सर्वोपरि थी। मुझे खुशी होती अगर उनके भाषण में सस्टेनेबिलिटी और किसान की संपन्नता, ये दो शब्द भी होते। लेकिन अफसोस कि यह दोनों शब्द नहीं थे।

अब मैं प्रमुख घोषणाओं का विश्लेषण करता हूंः
1.कृषि अनुसंधान की व्यापक समीक्षा और चुनौती पूर्ण मोड में एक फंड के गठन की घोषणा की गई है। निजी संस्थान भी इस फंड का इस्तेमाल कर सकेंगे। यह मांग लंबे समय से की जा रही थी। अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) का आधार बढ़ाना निहायत ही अर्थपूर्ण है। अनेक नीति विशेषज्ञ कृषि में आरएंडडी पर खर्च बढ़ाने और आईसीएआर के अलावा अन्य संसाधनों को अनुमति देने का तर्क देते आए हैं। तत्काल इसकी आलोचना यह कह कर की जा सकती है कि कॉर्पोरेट रिसर्च का एजेंडा तय करेंगे। इस तर्क को एक मिनट के लिए किनारे रखिए। डिजिटल हस्तक्षेप, बेहतर मृदा प्रबंधन (उर्वरता और नमी) के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल, खाद्य के साथ पोषण का लिंकेज, मौसम का माइक्रो स्तर पर अनुमान, बायोटेक्नोलॉजी हस्तक्षेप, वाटरशेड मैनेजमेंट जैसे अन्य कदमों के बारे में आपका क्या ख्याल है? एकमात्र सावधानी रिसर्च का एजेंडा तय करने में की जानी चाहिए। मेरी प्राथमिकता किसान की आमदनी में निरंतर बढ़ोतरी होनी चाहिए। इस विचार को मजबूती से रखने के साथ मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कृषि में अनुसंधान एवं विकास के लिए बजट में जो आवंटन हुआ है, वह बहुत ही निराशाजनक है। आगे टेबल में इसके आंकड़े देखे जा सकते हैं।

2. तिलहन और दलहन के लिए मिशन एक और महत्वपूर्ण पहल है। भारत तिलहन और दलहन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए संघर्ष करता रहा है। इन दोनों के लिए पहले भी मिशन (ISOPOM- आइसोपोम) शुरू किए गए हैं। आइसोपोम में मामूली बदलाव के साथ 2010 में शुरू की गई दाल ग्राम योजना का अच्छा असर हुआ। वर्ष 2009 में दालों का उत्पादन 145 लाख टन पर स्थिर था, जो 2022 में 275 लाख टन पर पहुंच गया। इस दौरान दालों की बुवाई का क्षेत्रफल भी 230 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 310 लाख हेक्टेयर हो गया, और प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 630 किलोग्राम से बढ़कर 892 किलोग्राम हो गई। हालांकि दालों की बुवाई वाला सिर्फ 23 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है जहां सिंचाई की सुविधा है। हमारी प्रोटीन की जरूरत को देखते हुए भारत को दालों का उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है। तिलहन भी खाद्य नीति विशेषज्ञों की चिंता बढ़ाएगा। इसका रकबा समान अवधि में 260 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 290 लाख हेक्टेयर हो गया, लेकिन इस दौरान उत्पादकता 1100 किलोग्राम से बढ़कर सिर्फ 1292 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हुई। उत्पादन में कुछ वृद्धि हुई लेकिन भारत अब भी अपनी जरूरत का लगभग 60% तेल आयात करता है। वर्ष 2022-23 में भारत में तेलों की मांग 290 लाख टन हो गई जिसमें से 160 लाख टन का आयात किया गया। यहां चुनौती अन्य फसलों के क्षेत्र को बदले बिना (तंबाकू को छोड़कर) उत्पादन बढ़ाने की है। यहां गौर करने वाली बात है कि दलहन और तिलहन में कोई बड़ा आरएंडडी नहीं हुआ है। क्या आरएंडडी पर फोकस इस अंतर को कम करेगा?

3. श्रिंप उत्पादन और निर्यातः यह एमपीडा (MPEDA) और तटीय राज्यों, खासकर आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मत्स्य पालन विभागों के सफल प्रयोग का परिणाम है। यह निर्यातोन्मुख उत्पादन का बेहतरीन उदाहरण है जिसमें श्रिंप किसानों को अच्छी आमदनी हुई और देश की निर्यात आय बढ़ी। यह अच्छी तरह से सोची-समझी और बारीक मॉनिटरिंग वाली उत्पादन तथा प्रोसेसिंग चेन है। इसमें उत्पादन जल्दी बढ़ाने के चक्कर में ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे प्रोटोकॉल कमजोर पड़ जाए। तटीय आंध्र प्रदेश में 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में एक्वाकल्चर के क्षेत्र में जो अनुभव हुआ, उसे याद रखने की जरूरत है।

4. शहर के इर्द-गिर्द सब्जी उत्पादन के क्लस्टरः खाद्य महंगाई, खासकर सब्जियों की महंगाई के कारण संभवतः यह स्कीम लाई गई है। इससे पहले भी इसी तरह के क्लस्टर विकसित करने की योजना के परिणाम उत्साहजनक नहीं रहे। शहरी खपत केंद्रों के आसपास उत्पादन के क्लस्टर रखने से किसानों को अच्छी कीमत मिल सकती है और वैल्यू चेन भी छोटी होगी। एफपीओ के किसान बाजार के जरिए शहरी बाजारों तक पहुंच और शहरी केंद्रों को निर्धारित दिनों में किसान बाजार के लिए खोलना इस पहल का एक हिस्सा हो सकता है।

5. डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चरः डिजिटल कृषि और एग्री-स्टैक के अनेक वर्जन ऐसे हैं जिनके फायदे से किसान अभी तक दूर हैं। इसमें किसानों के इस्तेमाल का नजरिया अपनाया जाना चाहिए। वह कौन सी सर्विस का इस्तेमाल करता है और उसे कितनी आसानी से उस तक पहुंचाया जा सकता है? आसान कर्ज, बेहतर जोखिम कवर, बाजार में बेहतर कीमत, मौसम की समय पर और उपयोगी जानकारी, यह सब डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर की बुनियादी चीजें हैं। किसी घटना के बाद विश्लेषण के लिए एग्री-स्टैक बनाना अनुसंधानकर्ताओं के लिए अच्छा है, लेकिन किसानों को सर्विसेज की जरूरत सही समय पर पड़ती है। इस तरीके से प्राथमिकता निर्धारित करना आवश्यक है।

6. प्राकृतिक खेतीः बजट में एक करोड़ और किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने का प्रस्ताव है। इसके लिए सर्टिफिकेशन और ब्रांडिंग की भी बात कही गई है। यह कहां होगा? आसान जवाब वर्षा सिंचित इलाकों का हो सकता है। अगर ऐसा है तो इसके लिए किस तरह के इंसेंटिव की योजना है, अभी यह स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि कृषि मंत्रालय बाद में इसकी विस्तृत जानकारी दे। सर्टिफिकेशन और ब्रांडिंग दोनों में समस्याएं हैं। सर्टिफिकेशन नौकरशाही की वजह से एक दुश्चक्र बन सकता है। ब्रांडिंग में भी अनेक चुनौतियां आएंगी। क्या प्राकृतिक खेती ऑर्गेनिक खेती से अलग होगी? दोनों के बीच अंतर क्या होगा? इन विषयों पर गंभीर चिंतन की जरूरत है। प्राकृतिक खेती में मुख्य फोकस लागत कम करने और जैव विविधता बढ़ाने पर होनी चाहिए, ताकि किसानों को अधिक मूल्य मिल सके। इससे पोषण का स्तर भी बेहतर होगा। मैं उम्मीद करुंगा कि इसकी अनदेखी नहीं की जाएगी। जिन किसानों ने रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करने का फैसला किया, वे इंसेंटिव से वंचित हैं जबकि इनका इस्तेमाल करने वाले किसान मुफ्त बिजली और रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी जैसी सुविधाएं ले रहे हैं। अगर प्राकृतिक खेती को सफल बनाना है तो इस नीति को उनके पक्ष में बदलने की जरूरत है जो प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करते हैं।

7. राष्ट्रीय सहकारिता नीतिः मेरे विचार से प्रस्तावित राष्ट्रीय सहकारिता नीति पर एक रिपोर्ट पहले से सरकार के पास है। सरकार को अति-केंद्रीकरण के किसी भी प्रयास को विफल करना चाहिए। लंबे विचार-विमर्श के बाद कंपनी कानून के तहत किसान उत्पादक कंपनियों को प्रोत्साहित किया गया। कोऑपरेटिव सेक्टर के लिए संविधान संशोधन का उद्देश्य स्वैच्छिक गठन को बढ़ावा देना, लोकतांत्रिक नियंत्रण, स्वायत्त कार्यकलाप और पेशेवर प्रबंधन को बढ़ावा देना था। नीति में लोगों को कोऑपरेटिव तथा किसी अन्य संगठन (एफपीओ) में से एक को चुनने की अनुमति होनी चाहिए और इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। ज्यादातर राज्य सरकारों में कोऑपरेटिव को नियंत्रित (यहां तक कि हस्तक्षेप करने) करने की प्रवृत्ति होती है। इससे उस कोऑपरेटिव के बिजनेस करने की क्षमता और उनका स्वतंत्र चरित्र प्रभावित होता है। एफपीओ को इसका एक जवाब माना गया। राज्य अथवा केंद्र के स्तर पर पुराने मॉडल में लौटना प्रतिकूल हो सकता है।

कृषि और संबंधित क्षेत्र के लिए बजट में 1.52 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है (बजट भाषण के मुताबिक)। इसमें संभवतः कृषि एवं किसान कल्याण, कृषि अनुसंधान, फिशरीज, डेयरी और पशुपालन, फूड प्रोसेसिंग तथा सहकारिता शामिल हैं।

बजट

संशोधित अनुमान

 23-24 (करोड़ रुपये) 

बजट अनुमान   

     24-25 (करोड़ रुपये) 

कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय

              1,15,531

                1,22,528

कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग

                    9,876

                    9,941

पशुपालन और डेयरी विभाग

                    3,913

                    4,521

फिशरीज

                    1,701

                    2,616

सहकारिता

                      747

                    1,183

फूड प्रोसेसिंग

                    2,911

                    3,290

पीएमकेएसवाई (जल शक्ति)

                    7,031

                    9,339

कृषि मंत्रालय के बजट में पीएम आशा के आवंटन में काफी वृद्धि की गई है। इस स्कीम के लिए 6,437 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। यह दालों, तिलहन, आलू और प्याज के लिए एक मजबूत मूल्य समर्थन व्यवस्था का संकेत देता है। दरअसल कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के बजट में वृद्धि का यह एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के तहत मूल्य स्थिरीकरण फंड (प्राइस स्टेबलाइजेशन फंड- पीएसएफ) के लिए 10,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है। दोनों को मिलाकर देखा जाए तो किसानों को दाल तथा अन्य फसलों के लिए एमएसपी सुनिश्चित हो सकता है, तो दूसरी तरफ पीएसएफ की मदद से उपभोक्ताओं को महंगाई से बचाया जा सकता है। मुश्किल तब होगी जब दोनों योजनाएं बिना सामंजस्य के लागू की जाएं।

कुल मिलाकर यह बजट उत्पादकता और रेजिलियंस के बारे में है। इसमें किसान कल्याण और सस्टेनेबिलिटी को स्थान नहीं मिला है। कुछ विचार नए और स्वागतयोग्य हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि उनके लिए उचित आवंटन किया गया हो। मौजूदा और नई योजनाओं का डिजाइन तथा उन्हें लागू किया जाना ही उनकी सफलता या विफलता तय करेगा। राज्यों के स्तर पर गवर्नेंस इसमें गेमचेंजर का काम कर सकता है।

समय आ गया है कि इस सेक्टर के लिए बजट से बाहर एक व्यापक रणनीति बनाई जाए। क्या बजट भाषण की दिशा यह संकेत देती है कि कृषि की रणनीति दोबारा बनाने के लिए राज्यों तथा अन्य संस्थाओं के साथ विचार-विमर्श की खुशनुमा शुरुआत होगी? उम्मीद करता हूं कि ऐसा हो!

(लेखक खाद्य मंत्रालय और कृषि मंत्रालय के पूर्व सचिव तथा एनडीडीबी के पूर्व चेयरमैन हैं)

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