खाद्य महंगाई बड़ी चुनौती, इसे दूर करने के उपायों पर फोकस जरूरीः रिजर्व बैंक
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी एक पेपर में कहा गया है कि खाने-पीने की चीजों की महंगाई और उनकी कीमतों में बड़ा उतार-चढ़ाव अभी तक एक चुनौती है। इसे दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश, भंडारण का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना और खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देना जरूरी है। इसमें कहा गया है कि ग्रॉस वैल्यू ऐडेड (जीवीए) में कृषि का हिस्सा भले ही घट रहा हो, लेकिन इसकी कुल वैल्यू लगातार बढ़ रही है। वित्त वर्ष 2020-21 में वास्तविक जीवीए में 6.2 फ़ीसदी गिरावट के बावजूद कृषि क्षेत्र कोविड-19 की चुनौतियां को हराने में सफल रहा और इसमें 3.6 फ़ीसदी की ग्रोथ दर्ज हुई
देश में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के साथ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होने के बावजूद खाने-पीने की चीजों की महंगाई और उनकी कीमतों में बड़ा उतार-चढ़ाव अभी तक एक चुनौती है। इसे दूर करने के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश, भंडारण का इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना और खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देना जरूरी है। भारतीय रिजर्व बैंक ने जनवरी 2022 की बुलेटिन में ‘भारतीय कृषि की उपलब्धियां और चुनौतियां’ शीर्षक से प्रकाशित पेपर में ये बातें कही हैं।
इसमें कहा गया है कि ग्रॉस वैल्यू ऐडेड (जीवीए) में कृषि का हिस्सा भले ही घट रहा हो, लेकिन इसकी कुल वैल्यू लगातार बढ़ रही है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे 2020 के अनुसार देश के 49 फ़ीसदी परिवार अब भी कृषि से जुड़े हैं। वित्त वर्ष 2020-21 में वास्तविक जीवीए में 6.2 फ़ीसदी गिरावट के बावजूद कृषि क्षेत्र कोविड-19 की चुनौतियां को हराने में सफल रहा और इसमें 3.6 फ़ीसदी की ग्रोथ दर्ज हुई।
अनाज और बागवानी उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि
पेपर में भारतीय कृषि की उपलब्धियों का जिक्र करते हुए बताया गया है कि पिछले दशक में अनाज का औसत उत्पादन उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है। इसका कारण ज्यादा कृषि कर्ज, सार्वजनिक और निजी निवेश, अच्छी क्वालिटी के बीजों और उर्वरकों का इस्तेमाल, सिंचाई वाली जमीन के क्षेत्रफल में वृद्धि आदि हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था के कारण 2016-17 के बाद अनाज के साथ-साथ दालों के उत्पादन में भी लगातार रिकॉर्ड बनता गया। दूसरी उपलब्धि बागवानी फसलों की है। 2012-13 के बाद अनाज की तुलना में बागवानी फसलों का उत्पादन अधिक तेजी से बढ़ा है। इस समय कुल कृषि उत्पादन के मूल्य का करीब 35 फ़ीसदी बागवानी फसलों का है।
पशुपालन और मछली उत्पादन आजीविका के साधन
कृषि से संबद्ध क्षेत्रों का महत्व भी बीते दशक में बढ़ा है। पशुपालन और मछली उत्पादन में तेज वृद्धि दर्ज हुई है। 2010-19 के दौरान भारत के मवेशी क्षेत्र में रिकॉर्ड 6.6 फ़ीसदी सालाना की वृद्धि हुई है। इस दौरान भारत दूध, अंडे और मांस का दुनिया में प्रमुख उत्पादक बन कर उभरा है। किसानों के स्वामित्व वाली जमीन का आकार लगातार घटने के कारण पशुपालन आजीविका का महत्वपूर्ण स्रोत बन कर उभर रहे हैं। यह न सिर्फ छोटे और सीमांत किसानों के लिए है बल्कि भूमिहीन मजदूरों के लिए भी।
विश्व कृषि व्यापार में भारत का हिस्सा बढ़ा
विभिन्न कृषि जिंसों के उत्पादन में बढ़ोतरी के साथ भारत इनके वैश्विक व्यापार में भी बड़ा खिलाड़ी बनकर उभरा है। साल 2000 में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के उत्पादों के विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 1.1 फ़ीसदी था, जो 2018 में दोगुना यानी 2.2 फ़ीसदी हो गया। वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान कृषि और संबद्ध क्षेत्रों का कुल निर्यात में योगदान 14.2 फ़ीसदी का था। कृषि उत्पादन के कुल निर्यात में सबसे ज्यादा 22.3 फ़ीसदी हिस्सा अनाज का ही है। पशुपालन उत्पादों की हिस्सेदारी इस दौरान 10.4 फ़ीसदी से बढ़कर 20.2 फ़ीसदी हो गई। बागवानी उत्पादों की हिस्सेदारी 18 फ़ीसदी के आसपास है। लेकिन तिलहन, तंबाकू और पेय पदार्थों की हिस्सेदारी में बड़ी गिरावट आई है।
जलवायु परिवर्तन के असर से उत्पादकता प्रभावित
कृषि क्षेत्र की इन उपलब्धियों के साथ रिजर्व बैंक ने इसकी चुनौतियां भी गिनाई हैं। भारत में कृषि उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का असर लगातार पड़ रहा है। तापमान बढ़ने और मौसम की चरम परिस्थितियों के कारण फसलों को होने वाला नुकसान बड़ी चुनौती बनी हुई है। सीजन के हिसाब से विश्लेषण से पता चलता है कि रबी फसलों के दौरान (अक्टूबर से फरवरी) बारिश और तापमान में सबसे ज्यादा बदलाव देखने को मिला है। अधिकतम तापमान में बदलाव का ज्यादा असर खरीफ फसलों पर और न्यूनतम तापमान में बदलाव का ज्यादा असर रबी फसलों की उत्पादकता पर पड़ा है।
कीटों और बीमारियों का हमला बढ़ा
जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है कि कीटों और बीमारियों का हमला बढ़ा है, जिससे फसलों को नुकसान ज्यादा होने लगा है। बाढ़ और सूखे जैसी मौसम की चरम परिस्थितियों के साथ-साथ बेमौसम की बारिश से भी खड़ी फसलों को नुकसान पहुंचता है और इसका सबसे अधिक नुकसान छोटे और सीमांत किसानों को उठाना पड़ता है। मौसम के जोखिम को कम करने वाली नीतियां अपनाकर किसानों की आमदनी सुनिश्चित की जा सकती है। लेख में मौसम के असर से बचाव के लिए मनरेगा के तहत विशेष प्रोजेक्ट शुरू करने, कृषि उत्पादन में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने तथा खान-पान में दालों और मोटे अनाज का चलन बढ़ाने जैसे उपाय बताए गए हैं।
कृषि अवशेषों के मैनेजमेंट की समस्या
कृषि अवशेषों का मैनेजमेंट भी एक बड़ी चुनौती है क्योंकि उत्तरी राज्यों में पराली जलाने जैसी घटनाओं से वायु प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ जाता है। यह स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग में भी योगदान करता है। 2018 में 4.86 करोड़ टन कृषि अवशेष भारत में जलाया गया और इसका लगभग आधा हिस्सा धान की पराली का था। दरअसल उत्तरी राज्यों में खरीफ फसल की कटाई और रबी की बुवाई के बीच किसानों को बहुत कम समय मिलता है। फसल अवशेष मैनेजमेंट के विकल्प उपलब्ध ना होने और महंगे श्रम के चलते छोटे और सीमांत किसान पराली जलाने को अधिक तरजीह देते हैं। विशेषज्ञों ने इस समस्या के समाधान बताएं हैं, लेकिन कम खर्चीला और टिकाऊ समाधान का विकल्प तलाशना ज्यादा जरूरी है।
जमीन के घटते आकार का असर उत्पादकता पर
खेती की जमीन का आकार भी एक समस्या है। देश में फार्म होल्डिंग की संख्या तो लगातार बढ़ती गई लेकिन हर एक किसान के पास उपलब्ध जमीन का आकार घटता गया। साल 1977 में औसत लैंड होल्डिंग 2.28 हेक्टेयर थी जो 2015-16 में घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गई। खेती की कुल जमीन का 86 फ़ीसदी छोटे और सीमांत किसानों के पास ही है। कम जोत वाले किसानों के लिए ट्यूबवेल, ड्रिप सिंचाई, भंडारण इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने या बड़ी मात्रा में इनपुट खरीदने जैसे कदम उठाना असंभव होता है। क्षमता बढ़ाने के लिए जमीन का कंसोलिडेशन जरूरी है। दुर्भाग्यवश भारत में जटिल प्रशासनिक तरीकों, जमीन के रिकॉर्ड उपलब्ध ना होने, जमीन के अधिकार के हस्तांतरण पर अंकुश जैसी बाधाओं के कारण यह संभव नहीं हो पाता है। आरबीआई के अनुसार देश में कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि भूमि बाजार सुधारों के जरिए लैंड होल्डिंग का कंसोलिडेशन किया जाए।
49 फ़ीसदी लोग कृषि क्षेत्र पर आश्रित
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार भारत की कुल आबादी का 68 फ़ीसदी यानी 83.3 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं। देश के जीवीए में कृषि का योगदान 17 फ़ीसदी है, लेकिन देश का 49 फ़ीसदी कामगार वर्ग कृषि क्षेत्र पर ही आश्रित है। इससे कृषि पर श्रमिकों की अत्यधिक निर्भरता साबित होती है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के एक सर्वेक्षण में 40 फ़ीसदी किसानों ने कहा कि वे कोई बेहतर विकल्प मिलने पर खेती छोड़ देंगे।
खाद्य महंगाई में उतार-चढ़ाव की समस्या
भारत में कृषि उत्पादन आज भी काफी हद तक बारिश पर निर्भर है। बाढ़, सूखा और बेमौसम की बारिश जैसे हालात में कृषि उत्पादों की आपूर्ति के साथ-साथ सप्लाई चेन भी प्रभावित होती है। इसका असर खाद्य पदार्थों कि महंगाई पर पड़ता है। साल 2014-15 के बाद अनाज और बागवानी फसलों के लगातार रिकॉर्ड उत्पादन और वैश्विक बाजारों में भी दाम कम रहने के कारण खाद्य महंगाई कुल मिलाकर कम रही है, लेकिन इनके दाम में उतार-चढ़ाव काफी तेज रहा है। कुल महंगाई में जो उतार-चढ़ाव आता है, उसमें खाद्य पदार्थों खासकर सब्जियों का योगदान अखाद्य वस्तुओं की तुलना में काफी अधिक रहता है। सब्जियों के जल्दी नष्ट होने की प्रकृति इसका एक कारण है, लेकिन दाल और जल्दी नष्ट ना होने वाले पदार्थों की कीमतों में भी तेज उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। इससे बचने के लिए फसल तैयार होने के बाद नुकसान कम करने, भंडारण का इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा देने और खाद्य सुरक्षा मानकों को बढ़ाने जैसे उपाय बताए गए हैं। इसमें कहा गया है कि कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने में सार्वजनिक और निजी निवेश महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।