रूरल वॉयस विशेषः कृषि क्षेत्र बनेगा इकोनॉमी का ग्रोथ इंजन

विकसित भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए गांव-किसान का तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ना जरूरी, इसके लिए कृषि क्षेत्र के विकास की समग्र नीति बनाकर गांव किसान की खुशहाली सुनिश्चित करनी होगी

रूरल वॉयस विशेषः कृषि क्षेत्र बनेगा इकोनॉमी का ग्रोथ इंजन

भारत की अर्थव्यवस्था को विकसित बनाने और प्रति व्यक्ति आय को 12 हजार डॉलर तक ले जाने का रास्ता खेत-खलिहानों से होकर ही जाएगा। देश की अर्थव्यवस्था के प्रमुख हिस्सेदार कृषि क्षेत्र की लगातार 4.5 फीसदी की सालाना वृद्धि दर के बिना यह संभव नहीं है। किसान कल्याण के तमाम दावों, नीतियों और आर्थिक उदारीकरण के कदमों के बावजूद देश की 45 फीसदी आबादी को आज भी कृषि क्षेत्र ही रोजगार दे रहा है। कृषि क्षेत्र आर्थिक और रणनीतिक दृष्टि से देश की रीढ़ है और देश का सामाजिक विकास कृषि और किसानों की खुशहाली के बिना संभव नहीं है। इसके लिए कृषि क्षेत्र का मजबूत होना जरूरी है। लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं है। इसके लिए एक समग्र नीति और उसी के अनुरूप योजनाओं की जरूरत है जो अभी मौजूद नहीं हैं।
यह बहुत ही अफसोस की बात है कि देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़े भागीदार और देश की आबादी के आधे से अधिक हिस्से की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र के लिए अभी कोई नीति ही नहीं है। साल 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार के समय एक छोटा दस्तावेज कृषि नीति के रूप में आया था। उसे एक सिनॉप्सिस के रूप में देखा जा सकता है लेकिन वह कोई समग्र नीति नहीं थी। लेकिन यह शुरुआत भी वहीं रुक गई। इसके बाद टुकड़ों-टुकड़ों में कृषि से संबंधित नीतियां बनती गईं और फैसले होते रहे। अमेरिका जैसी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में जहां 2022 के आंकड़ों के मुताबिक केवल 20 लाख जोत हैं, वहां एक निश्चित अंतराल पर कृषि नीति में बदलाव कर उसे नया रूप दिया जाता है। यूरोपीय यूनियन भी एक निश्चित अंतराल पर अपनी कृषि नीति की समीक्षा करता है। लेकिन भारत में इस पर कोई बात ही नहीं करता, यह कोई मुद्दा ही नहीं है। यहां सबसे अधिक फोकस मार्केटिंग पर रहता है। अगर हम जून, 2020 में लाये गये तीन कृषि कानूनों को देखें तो इनका केंद्र बिंदु केवल कृषि उत्पादों की मार्केंटिंग से जुड़े मुद्दे थे।
हमें कृषि में उच्च वृद्धि दर हासिल करने और वाकई कृषि क्षेत्र में मौजूद संभावनाओं का फायदा उठाते हुए उसे देश की इकोनॉमी का ग्रोथ इंजन बनाना है तो हमें मौजूदा किसानों के लिए कृषि नीति नहीं बनानी है, बल्कि किसानों के बच्चों और उनकी अगली पीढ़ी को ध्यान में रखकर कृषि नीति बनानी होगी। इसका उद्देश्य यह हो कि कृषि से दूर हो रहे किसानों को कैसे कृषि क्षेत्र में बनाये रखा जा सके। यह फिलहाल नहीं दिखता है क्योंकि अधिकांश युवा आबादी कृषि के अलावा दूसरे क्षेत्रों में काम करना चाहती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पूर्व महानिदेशक डॉ. आर.एस. परोदा लगातार इस बात पर जोर देते हैं कि हमें युवाओं की कृषि में वापसी के लिए नयी सोच तैयार करनी होगी और उनके मुताबिक नीतियां बनाकर लागू करनी होंगी।


पिछले महीने रूरल वॉयस के तीसरे स्थापना दिवस पर आयोजित रूरल वॉयस एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव में कृषि को आर्थिक विकास का संवाहक बनाने से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर कृषि क्षेत्र के विशेषज्ञों, नीति-निर्माताओं और किसान प्रतिनिधियों के साथ संवाद हुआ। इस मौके पर अमूल के पूर्व एमडी और इंडियन डेयरी एसोसिएशन के प्रेसीडेंट डॉ. आरएस सोढ़ी ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि जब भी किसान और शहरी उपभोक्ताओं के बीच एक को चुनने की बारी आती है तो नीति-निर्माताओं का झुकाव अक्सर उपभोक्ता की तरफ होता है। शेयर बाजार का सेंसेक्स बढ़ता है तो उसे तरक्की के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है, लेकिन जब सब्जियों या खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ते हैं तो उसे खाद्य महंगाई करार दिया जाता है। वास्तव में, इस सोच और ढर्रे को बदलने की जरूरत है।    
डॉ. सोढ़ी का कहना है कि अकेले डेयरी सेक्टर में अगले 7-8 साल में एक लाख करोड़ रुपये का निवेश होगा। करीब 12 करोड़ लीटर दूध की प्रोसेसिंग बढ़ेगी तो इससे 72 लाख नए रोजगार के अवसर पैदा होंगे। वर्ष 2023 तक फूड मार्केट तीन गुना से ज्यादा बढ़कर 170 लाख करोड़ रुपये का हो जाएगा। आज उपभोक्ता भी अच्छा खाना चाहते हैं। अच्छी क्वालिटी और पोषण के लिए अधिक दाम चुकाने को भी तैयार हैं। इसलिए किसानों को ऐसी चीजों का उत्पादन बढ़ाना चाहिए जिसकी बाजार में मांग है। हमें किसानों को बाजार की इन संभावनाओं को समझने और इन्हें भुनाने में सक्षम बनाना होगा।
असल में कृषि उत्पादन के चार आधार हैं जमीन, पानी, ऊर्जा और श्रम। इनका उपयोग कर बेहतर उत्पादन और उत्पादकता हासिल करने के चार टेक्नोलॉजीकल फैक्टर हैं- जेनेटिक्स, क्रॉप न्यूट्रीशन, क्रॉप प्रोटेक्शन और एग्रोनॉमिक इंटरवेंशन। जमीन के लिए जहां भूमि उपलब्धता अहम है, उतना ही अहम है इसका स्वास्थ्य यानी इसमें उर्वर तत्वों की उपस्थिति और उनका लगातर बेहतर स्तर पर बने रहना। वहीं देश में ठेके पर खेती के बढ़ते चलन को बहुत से एक्सपर्ट मिट्टी के स्वास्थ्य के खराब होने से जोड़ रहे हैं।
नाबार्ड के पूर्व चेयरमैन तथा एमसीएक्स के चेयरमैन डॉ. हर्ष कुमार भनवाला के अनुसार अभी 30 फीसदी किसान ऐसे हैं जिनका खेत उनका अपना नहीं है। वे बटाई पर जमीन लेकर खेती करते हैं। कम समय के लिए ठेके पर जमीन लेने वाले बटाईदार जमीन के स्वास्थ को लेकर बहुत संजीदा नहीं रहते क्योंकि उनको लगता है कि इस पर उनका निवेश उनके लिए फायदेमंद नहीं है। ऐसे में लैंड लीज एक्ट को नीतिगत प्राथमिकता में रखने का सुझाव दिया जा रहा है। ऐसा एक्ट जो जमीन के मालिक को यह भरोसा दे सके कि उसके मालिकाना हक पर कोई आंच नहीं आने वाली है और बटाईदार को लंबे समय तक खेती से जमीन उपलब्ध हो सके। नीति आयोग ने एक मॉडल लैंड लीज एक्ट तैयार किया है जो कई साल से ग्रामीण विकास मंत्रालय के पास है, लेकिन राजनीतिक जोखिम के चलते इस पर कोई अमल नहीं हो रहा है।
दूसरा बड़ा कारक है पानी। देश के अनेक इलाके अधिक भू जल दोहन के चलते डार्क जोन में तब्दील हो चुके हैं। यह स्थिति हरित क्रांति की कामयाबी वाले क्षेत्रों में अधिक है। इसका उपाय भी नीतिगत स्तर ही मिल सकेगा लेकिन वह एक समग्र नीति के जरिये ही संभव है, जिसमें फसल विविधीकरण से लेकर किसानों को इंसेंटिव और मार्केटिंक का भरोसा निहित हो। जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए भी फसल विविधीकरण की तरफ बढ़ना जरूरी है, लेकिन इसमें व्यावहारिक पक्ष को ध्यान में रखना भी जरूरी है।
श्रम की बात लगातार हो रही है। देश में युवा बेरोजगारों की फौज खड़ी होती जा रही है लेकिन वह कृषि से दूर भाग रहे हैं। ऐसे में युवाओं को कृषि में रोकने के लिए भविष्य के नीतिगत प्रावधान जरूरी हैं। कृभको के चेयरमैन डॉ. चंद्रपाल सिंह यादव कहते हैं कि आज खेती के प्रति नौजवानों में आकर्षण नहीं है। यह आकर्षण तब बढ़ेगा जब खेती में फायदा दिखेगा। उनका सुझाव है कि युवा कोऑपरेटिव से जुड़कर नई तकनीक से खेती करें, उपज में वैल्यू एडिशन करें तो खुद को रोजगार देने के साथ दूसरों को भी रोजगार दे सकते हैं। इसके लिए सरकार को कोऑपरेटिव का इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में मदद करनी चाहिए।
इसके साथ ही महिलाओं को भी कृषि क्षेत्र में बनाये रखने की संभावनाएं तलाशनी होंगी। अब भी देश के कृषि क्षेत्र में महिला किसानों की बड़ी हिस्सेदारी है। ताजा लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक देश की कामकाजी आबादी का लगभग 45 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में काम करता है। एक समय यह स्तर घटकर 42 फीसदी तक आ गया था लेकिन मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार के अवसर घटने के चलते यह फिर बढ़ गया है। असल में 1991 में नई औद्योगिक नीति के जरिये आर्थिक उदारीकरण आया तो यह धारणा बहुत मजबूत थी कि देश में औद्योगिक विकास तेज होगा और आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि को छोड़कर उद्योगों का रुख करेगा, जिसके चलते कृषि पर बोझ कम हो जाएगा और ग्रामीण भारत में लोगों की संख्या घटने से वहां लोगों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर होगी।


यह बात सही है कि इस बीच देश में शहरीकरण बढ़ा है और शहरी आबादी का प्रतिशत भी बढ़ा है लेकिन बड़ी संख्या में खेती पर निर्भर लोग कम होंगे, यह सही साबित नहीं हुआ। दूसरी ओर भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने का सपना पूरा नहीं हुआ है। सरकार मैन्यूक्चरिंग को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 25 फीसदी हिस्सेदारी तक ले जाने के लिए तमाम योजनाएं लागू करती रही है और हर साल लाखों करोड़ रुपये के इंसेंटिव देती रही है। लेकिन यह अब भी 12 से 13 फीसदी पर ही अटकी है। दूसरी ओर कुल कामकाजी लोगों की संख्या की हिस्सेदारी करीब 14 फीसदी तक पहुंचने के बाद लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक अब 11 फीसदी के आसपास है। इकोनॉमिस्ट्स का आकलन है कि छह फीसदी औद्योगिक वृद्धि दर रोजगार अवसरों में केवल एक फीसदी का इजाफा करती। मैन्यूफैक्चरिंग में ऑटोमेशन और तकनीक का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में कृषि क्षेत्र अगर तेजी से बढ़ता है तो यहां रोजगार की अधिक संभावनाएं पैदा होंगी और यह अधिक उत्पादकता वाला रोजगार हो सकता है। साथ ही तकनीक का इस्तेमाल बढ़ने से रोजगार की गुणवत्ता में भी सुधार की बड़ी संभावनाएं कृषि क्षेत्र में हैं।
अगला कारक है इनर्जी। इसके लिए जहां किसान बैलों से होने वाली परंपरागत खेती से दूर जा रहा है और ट्रैक्टर समेत तमाम आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल करने लगा है। यह बात अलग है कि सभी किसान आधुनिकतम उपकरण नहीं खरीद सकते हैं। ट्रैक्टर, डीजल पंप और पावर ट्यूबवैल अब हर जगह हैं। यही नहीं सोलर पावर का इस्तेमाल कर सिंचाई सुविधाओं का तेजी से विकास हो रहा है। इनर्जी के मामले में किसानों को इसकी दरों में निश्चितता की दरकार है कयोंकि इसकी लागत में बढ़ोतरी का सीधा अर्थ है किसान की उत्पादन लागत में बढ़ोतरी। ऐसे में अगर उसी अनुपात में फसल के दाम नहीं बढ़ते हैं तो किसान घाटे में जाता है।
जहां तक टेक्नोलॉजी की बात है तो कृषि उत्पादन और कृषि वृद्धि दर में तकनीक की दृष्टि से जेनेटिक्स की अहमियत सबसे अधिक है। जेनेटिक्स ही तय करते हैं कि बीज की क्या गुणवत्ता है, कैसी उत्पादकता है और वह किस तरह की बीमारियों और कीट से लड़ने की क्षमता रखता है। ऐसे में बीज और प्लांट मैटीरियल को विकसित और परिष्कृत करने के लिए जेनेटिक्स में उपलब्ध पारंपरिक और आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए। इसमें अगर जेनेटिक्स मोडिफिकेशन और जीन एडिटिंग जैसी तकनीक का इस्तेमाल बेहतर उत्पादकता और क्रॉप प्रोटेक्शन को सुनिश्चित करता है तो उसे अपनाने में देरी नहीं होनी चाहिए। रूरल वॉयस के साथ एक इंटरव्यू में नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद ने कहा कि जहां पारंपरिक तकनीक कामयाब नहीं हो रही है उन फसलों में हमें जीएम टेक्नोलॉजी को अपनाना चाहिए।
दूसरा अहम फैक्टर है क्रॉप न्यूट्रीशन। इसमें सबसे पहले तो मिट्टी में उर्वर तत्वों को संरक्षित करने और उसकी उर्वरता बढ़ाने के लिए जरूरी उर्वरक, मिनरल्स और फसल पद्धतियों पर फोकस करना होगा। वहीं न्यूट्रीशन के चुनिंदा उत्पादों से आगे जाकर केमिकल और बॉयो फर्टिलाइजर में जो भी उत्पाद और विकल्प उपलब्ध हैं उनका उपयोग करना जरूरी है। इसके लिए नये उत्पादों की मंजूरी और उनकी किफायती उपलब्धता के लिए सब्सिडी नीति में बदलाव की जरूरत पड़ेगी। साथ ही सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में जो भी इस दिशा में बेहतर उत्पाद उपलब्ध कराता है उसे मौका दिया जाना चाहिए। वहीं क्रॉप न्यूट्रीशन से आर्थिक फायदे का आकलन किया जाना जरूरी है। अधिक न्यूट्रिशन अगर उत्पादकता और आर्थिक फायदे पर कारगर नहीं है तो उसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए। लेकिन यहां नीति को पारदर्शी बनाना होगा।
इसके बाद है क्रॉप प्रोटेक्शन। पिछले कई दशकों में फसलों में कीटनाशकों का उपयोग काफी बढ़ा है। साथ ही फसलों की किस्में बीमारियों से प्रभावित होने की दर भी बढ़ी है। इसके लिए इंटीग्रेटेड पेस्ट मैनेजमेंट को केंद्र में रखकर केमिकल और बॉयो केमिकल दोनों तरह के उत्पादों का उपयोग जरूरी है। लेकिन यह बात भी सही है कि एग्रोकेमिकल मे मॉलिक्यूल विकसित करने में हमारे देश की कंपनियों का रिकॉर्ड बहुत औसत है। अधिकांश निर्भरता विदेशों में विकसित मॉलिक्यूल और वहां से आयातिक मैटीरियल पर है। साथ ही नकली पेस्टीसाइड की एक पैरेलल इंडस्ट्री देश में चल रही है। जिसका खामियाजा किसानों को आर्थिक रूप से और फसल नुकसान दोनों रूप में भुगतना पड़ता है। इस मसले पर भी सरकार को ध्यान देने की जरूरत है। साथ में अगर जीएम किस्मों के जरिये क्रॉप प्रोटेक्शन में कामयाबी मिलती है तो जहां संभव है वहां इसका फायदा लिया जा सकता है।
अगला और अहम फैक्टर है एग्रोनॉमिक इंटरवेंशन। इसका दायरा वृहद है। इसमें फसल की लागत के आकलन से लेकर मार्केटिंग के पक्ष को को भी जोड़ा जा सकता है। इस मोर्चे पर हमारे देश में रिसर्च और अध्ययन की कमी को नकारा नहीं जा सकता है। अगर इस पर सही तरीके से अमल होता है तो यह किसानों और कृषि के लिए फायदेमंद होगा। शोध संस्थानों के ट्रॉयल फील्ड की उत्पादन लागत के आंकड़े सामने आने चाहिए और उन किस्मों का किसानों के खेतों में उत्पादन, उत्पादकता और लागत के साथ तुलनात्मक अध्ययन की जरूरत है।
कृषि क्षेत्र के विकास और यहां निवेश की संभावनाओं पर भी बात करना जरूरी है। नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद का कहना है कि 4.5 फीसदी की कृषि विकास दर के जरिये ही 2047 तक भारत विकसित राष्ट्र का सपना पूरा कर सकता है। ऐसे में सरकार के सामने एक बेहतर मौका है कि वह कृषि को केंद्र में रखकर अपनी आर्थिक नीतियां तय करे। हालांकि अभी ऐसा नहीं हो रहा है लेकिन ऐसा करना जरूरी है क्योंकि कृषि क्षेत्र में बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं जो देश के विकास की गति को तेज कर सकती हैं। लेकिन उसके लिए कृषि क्षेत्र से जुड़ी नीतियों में बदलाव करना होगा और निवेश के लिए बेहत मौके पैदा करने होंगे।
चिंताजनक बात यह है कि कृषि क्षेत्र में निवेश करने में निजी कारपोरेट क्षेत्र की दिलचस्पी बहुत कम है और यह तीन फीसदी से भी कम है। कृषि क्षेत्र में अधिकांश निवेश या तो सार्वजनिक निवेश है फिर किसानों का खुद का निवेश है। यह स्थिति कृषि के विकास के पहिये को तेज नहीं कर सकती है। केंद्र और राज्य सरकारें अपने बजट में कृषि क्षेत्र के लिए आवंटित राशि का बड़ा हिस्सा इनकम सपोर्ट या सब्सिडी के रूप में दे रही हैं, वहीं कैपिटल एक्सपेंडिचर इनका खर्च नगण्य है। चालू साल के केंद्रीय बजट में कृषि के लिए कैपिटल एक्सपेंडिचर 100 करोड़ रुपये से भी कम है जबकि सरकार ने 11.11 लाख करोड़ रुपये के कैपिटल एक्सपेंडिचर का प्रावधान किया है। इसका सबसे बड़ा हिस्सा ढांचागत सुविधाओं के विकास पर जा रहा है। यही नहीं एग्रीकल्चर रिसर्च और एजुकेशन पर सरकार का खर्च या तो स्थिर है या कम हो रहा है।
सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष डीएन ठाकुर किसानों की पूंजी की समस्या को दूर करने के लिए सॉवरिन फंड बनाने की वकालत करते हैं। इस फंड के जरिए बैंकों को गारंटी दी जाए ताकि वे किसानों को आसानी से कर्ज दे सकें। उनका कहना है कि गांव के स्तर पर सहकारी संस्थाओं को इतना समर्थ बना दिया जाए कि वह अपने सदस्य - हर किसान के एक-एक दाने की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कर सकें और किसानों को उपज बेचने में परेशानी न हो। इतने बड़े देश में कोऑपरेटिव के अलग-अलग मॉडल अपनाने की जरूरत है।  
यहां जिन मुद्दों को केंद्र में रखा गया है वह सब एक समग्र कृषि नीति का हिस्सा होंगे तो कृषि क्षेत्र की आर्थिक संभावनाओं का फायदा उठाया जा सकेगा। उत्पादन के बराबर ही अहमियत कृषि उत्पादों के मूल्य और मार्केटिंग ढांचे की है। इसके लिए किसान की आय को केंद्र में रखने की जरूत है। घरेलू उत्पादन, बाजार में उपलब्धता, कीमतें और आयात-निर्यात के फैसलों के केंद्र में उपभोक्ता को रखने की नीति को बदलने की जरूरत है। यहां सबसे चर्चित मुद्दे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मामले में यह सोच अपनानी होगी कि किसानों को यह दाम कैसे दिया जाए।

Subscribe here to get interesting stuff and updates!