उत्तर प्रदेश ने कैसे रोका भाजपा का बहुमत रथ

केंद्र में तीसरी बार बहुमत की सरकार बनाकर सत्तारूढ़ होने की भाजपा की उम्मीदें उत्तर प्रदेश के राजनीतिक भंवर में फंस कर रह गई।

उत्तर प्रदेश ने कैसे रोका भाजपा का बहुमत रथ

लोक सभा चुनावों की मतगणना के ताजा आंकड़े इस चुनाव में एक बड़े सियासी फेरबदल की ओर संकेत कर रहे हैं। लगातार दो विधानसभा चुनाव हारने वाली समाजवादी पार्टी और कांग्रेस संयुक्त रूप से उत्तर प्रदेश की 44 सीटों पर भाजपा को पछाड़ रही है जबकि भाजपा ने यहां अपने सहयोगियों के साथ 80 में से 80 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा था। जिस तरह से उत्तर प्रदेश से केंद्रीय मंत्रियों की हार हुई है वह इस बात का संकेत देता है कि उनका जमीनी मुद्दों से कोई खास लेना देना नहीं था। इसके साथ ही केवल बुलडोजर और लाभार्थी सुविधाएं चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है। यहां पर मोदी की गारंटी और मोदी योगी की डबल इंजन सरकार को अखिलेश यादव का पीडीए फार्मूला और राहुल गांधी का न्याय टक्कर देने में कामयाब रहा है। 

भाजपा को केंद्र में सत्तारूढ होने की राह 2014 में उत्तर प्रदेश से ही मिली थी। मुजफ्फनगर के दंगों और केंद्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने जो माहौल बनाया उसका भाजपा को मिला था। यह माना जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। यही वजह थी कि एक बड़ी राजनीतिक रणनीति के तहत नरेंद्र मोदी ने वाराणसी को अपनी दूसरी लोक सभा सीट चुना था। इस बार भी वह वाराणसी से लोक सभा के लिए चुने गये हैं लेकिन उनका मार्जिन बहुत घट गया है।

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी सीटें बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल को चुनावों के ऐन पहले अपने साथ लिया। लेकिन उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को कोई खास फायदा नहीं मिलता दिख रहा है। हालांकि, लोक दल ने तो अपने हिस्से की दो सीटें जीत ली हैं लेकिन भाजपा को जिस तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, नगीना और मुरादाबाद सीट गंवानी पड़ी, वह इस भाजपा-रालोद गठबंधन के लिए शुभ संकेत नहीं है। मतदान के वक्त ही सपा-रालोद गठबंधन टूटने से रालोद मतदाताओं में निराशा साफ झलक रही थी। पश्चिमी यूपी की कई सीटों पर कम मतदान के पीछे भी यह बड़ी वजह है।  

असल में बेरोजगारी, अग्निवीर, किसानों की मुश्किलें और सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के हितों की अनदेखी जैसे मुद्दों के साथ भाजपा द्वारा संविधान संशोधन करने के जो आरोप सपा और कांग्रेस ने लगाये वह लोगों के जेहन में चले गये। यही नहीं इन चुनावों का एक बड़ा राजनीतिक फैक्टर मायावती की बसपा का पूरे दमखम से चुनाव में नहीं उतरना भी रहा है। 

भाजपा का अति आत्मविश्वास जमीन पर चल रहे बदलाव को भांप नहीं पाया। सरकार की मौजूदगी, मीडिया का साथ और संसाधनों की बहुलता के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सहारे भाजपा उत्तर प्रदेश में अधिकांश सीटों को जीतने की उम्मीद पाले हुए थी। असल में अगर इन चुनावो के मार्जिन को हम देखें तो जिस राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश से भगौड़ा जैसे संबोधन से संबोधित किया जा रहा था, उनका रायबरेली से मार्जिन प्रधान मंत्री की जीत के मार्जिन से दोगुना है।

जिस अमेठी सीट से राहुल गांधी को भगौड़ा बताया जा रहा था वहां कांग्रेस ने गांधी परिवार के करीबी जिस किशोरीलाल शर्मा को टिकट दिया। उन्होंने केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी की जाइंट किलर की छवि को 2019 की उनकी जीत के दोगुना से अधिक मार्जिन से ध्वस्त कर दिया है। 

उत्तर प्रदेश देश की राजनीति की दिशा तय करता है। लोक सभा के चुनाव नतीजे इस को साबित करने के लिए काफी हैं कि मतदाताओं ने केंद्र के साथ ही राज्य सरकार के कामकाज पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी फिर से यूपी में एक बड़ी ताकत बनकर उभरी है।

जिस तरह से पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने टिकटों का वितरण और कई सीटों पर टिकटों में बदलाव किया, उनकी रणनीति कारगर होती दिख रही है। जब विपक्षी के कई दिग्गज चुनाव मैदान में उतरने से डर रहे थे, तब उन्होंने अपने परिवार के पांच सदस्यों को चुनाव में उतार दिया। कई सीटों पर गैर-यादव ओबीसी, एससी और अगड़ी जातियों को हिस्सेदारी दी। वहीं, बहुत अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट नहीं देकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से बचने का प्रयास किया। वह लगातार पीडीए के हितों के लिए लड़ने की बात करते रहे।

खास बात यह रही है कि जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भाजपा को 2014 और 2019 में बड़ी लीड के साथ मोदी लहर का माहौल मिला था उसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पहले चरण से भाजपा के खिलाफ अंडर करंट का माहौल दिखने लगा था। हर अगले चरण के साथ विपक्ष का हमला सरकार पर बढ़ता गया। नतीजे इस माहौल को साबित भी करते दिखते हैं।

असल में भाजपा यह समझने में कामयाब नहीं हुई कि उत्तर प्रदेश में खेतिहर जातियां और ग्रामीण आबादी का बड़ा हिस्सा बहुत अधिक बाजार परस्त नीतियों में अपना फायदा नहीं देखता है। यही वजह है कि बेरोजगारी बढ़ता स्तर और महंगाई जैसे मुद्दों को पार्टी ने नकारने की नीति अपनाई और बड़े-बड़े एक्सप्रेसवे, एयरपोर्ट्स, राम मंदिर, मंदिर कारीडोर जैसे काम को अपनी बड़ी उपलब्धियों में शुमार किया। लेकिन मतदाता कुछ और ही मन बना चुके थे। यही वजह है कि जिस राम मंदिर के सहारे भाजपा चुनावी वैतरणी पार उतरने की उम्मीद पाले थे वहां की फैजाबाद सीट पर भी वह समाजवादी पार्टी से पिछड़ गई।

इस चुनाव की एक बड़ी बात यह रही कि इसमें मतदाताओं को बहुत हद तक हिंदू-मुस्लिम के बीच नहीं बांटा जा सका। लेकिन यहां गैर मुस्लिम लोगों ने मुद्दों पर वोट किया वहीं मुस्लिम मतदाताओं ने अपने वोटों का बंटवारा नहीं कर भाजपा को हराने के लिए वोट दिया। वहीं मायावती के मतदाताओं का एक हिस्सा कांग्रेस और सपा की ओर जाता दिखा। यही वजह है कि पिछली बार 10 सीटें जीतने वाली बसपा का इस बार खाता भी नहीं खुल सका। जबकि आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के चंद्रशेखर ने नगीना से शानदार जीत हासिल की है। यह यूपी की बहुजन राजनीति में बड़ा उलटफेर साबित हो सकता है।   

चुनाव नतीजे देर रात तक साफ हो जाएंगे लेकिन इन चुनावों ने कई बड़े सवाल भाजपा के सामने खड़े कर दिये हैं। जिनका उत्तर उसे आने वाले दिनों में ढ़ूंढ़ना होगा। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार सत्तारूढ़ होते हैं तो उनको पहली बार गठबंधन सरकार को चलाने का अनुभव हासिल होगा। जहां उनको बड़े फैसलों में सहयोगी दलों की राय पर निर्भर रहना होगा। वहीं  मजबूत विपक्ष उनके लिए संसद और संसद के बाहर लगातार मुश्किलें पैदा करेगा। हालांकि अभी किस तरह के समीकरण बनते हैं यह अगले कुछ दिनों में साफ होगा क्योंकि यह चुनाव नतीजे नये सियासी समीकरणों की वजह भी बनेंगे।  

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