जलवायु परिवर्तन के कारण 2012 में वैश्विक सोयाबीन फसल को एक-तिहाई का नुकसान: अध्ययन
एक नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि 2012 में अर्जेंटीना, ब्राजील और अमेरिका में एक साथ हुए सोयाबीन फसल के नुकसान में एक-तिहाई से अधिक हिस्से के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार था।

एक नए अध्ययन में खुलासा हुआ है कि 2012 में अर्जेंटीना, ब्राजील और अमेरिका में एक साथ हुए सोयाबीन फसल के नुकसान में एक-तिहाई से अधिक हिस्से के लिए जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार था। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित इस शोध में 2012 में इन तीन देशों में हुई अत्यधिक गर्मी और सूखे की स्थिति के प्रभाव का विश्लेषण किया गया। जलवायु और फसल मॉडल का उपयोग करके, शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि बिना जलवायु परिवर्तन के दुनिया में सोयाबीन की पैदावार कितनी होती। अध्ययन के निष्कर्षों से पता चला कि 2012 में उच्च तापमान और सूखी मिट्टी के कारण जलवायु परिवर्तन ने कुल पैदावार में 35% कमी ला दी।
मक्का, चावल और गेहूं के साथ-साथ सोयाबीन चार प्रमुख फसलों में से एक है, जो मिलकर वैश्विक कैलोरी खपत का लगभग 65% और दुनिया की 45% कृषि भूमि को कवर करती हैं। कार्बन ब्रीफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में वैश्विक सोयाबीन उत्पादन लगभग 36.5 करोड़ टन तक पहुंच गया। हालांकि, इस उत्पादन का 4% से भी कम हिस्सा सीधे मानव उपभोग के लिए गया। इसका अधिकांश हिस्सा पशु चारा, वनस्पति तेल और बायोफ्यूल में इस्तेमाल किया गया।
सोयाबीन दुनिया में सबसे अधिक व्यापार की जाने वाली कृषि कमोडिटी है। वैश्विक कृषि व्यापार के कुल मूल्य का 10% अधिक हिस्सा इसी का है। सोयाबीन उत्पादन का अधिकांश हिस्सा अमेरिका, ब्राजील और अर्जेंटीना में केंद्रित है, जो संयुक्त रूप से लगभग 75% योगदान करते हैं। केवल तीन क्षेत्रों में इतना अधिक उत्पादन एकाग्र होने के कारण वैश्विक सोयाबीन आपूर्ति क्षेत्रीय परिस्थितियों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाती है। विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न झटके फसल की पैदावार को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं। इस तरह की घटनाएं वैश्विक खाद्य प्रणाली को बाधित कर सकती हैं, जिससे आपूर्ति श्रृंखलाओं में रुकावटें आती हैं और कीमतों में उछाल आता है।
एक दशक बाद अध्ययन क्यों
2012 में फसल को नुकसान जलवायु परिवर्तन से प्रभावित वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए एक स्पष्ट उदाहरण है। उस वर्ष, अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के कई हिस्सों में अत्यधिक गर्मी और सूखे की स्थिति ने वैश्विक सोयाबीन उत्पादन में 10% की गिरावट ला दी, जिससे कीमतें भी रिकॉर्ड दर्ज की गईं। रिपोर्ट के प्रमुख लेखक जलवायु वैज्ञानिक डॉ. रायद हामिद ने कहा कि 2012 में हुई घटना की तीव्रता ने इसे अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण मामला बना दिया, भले ही यह घटना एक दशक से अधिक पुरानी हो।
2012 में कम पैदावार तीन साल तक चलने वाली ला नीना घटना के अंत में आई। ला नीना अल नीनो-सदर्न ओसीलेशन (ENSO) का ‘शीत चरण’ है। यह प्रशांत महासागर में ठंडे तापमान से जुड़ा है। हालांकि, यह आमतौर पर दक्षिण-पूर्वी दक्षिण अमेरिका और अमेरिका में अधिक गर्म और शुष्क परिस्थितियों को जन्म देता है। यूएस नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) के अनुसार 2012 की ला नीना घटना अब तक की तीसरी सबसे गर्म घटना थी, जिसने सोयाबीन फसलों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा कीं।
क्षेत्रीय प्रभाव में अंतर
अध्ययन ने 2012 की घटना के क्षेत्रीय प्रभावों में महत्वपूर्ण अंतर को भी उजागर किया। अमेरिका में जलवायु परिवर्तन के कारण सोयाबीन उत्पादन में 3.5% की गिरावट आई, जबकि दक्षिण-पूर्वी दक्षिण अमेरिका में उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज की गई। दिलचस्प बात यह है कि मध्य ब्राजील में जलवायु परिवर्तन ने उत्पादन 14% तक बढ़ा दिया। यह दर्शाता है कि उस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का सोयाबीन पैदावार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
यह अध्ययन जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक खाद्य प्रणालियों की संवेदनशीलता को उजागर करता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहां सोयाबीन जैसी प्रमुख फसलों का उत्पादन होता है। जब प्रमुख उत्पादक क्षेत्रों में एक साथ चरम मौसम की घटनाएं होती हैं, तो इसके प्रभाव से वैश्विक बाजार अस्थिर हो सकते हैं, खाद्य सुरक्षा को खतरा हो सकता है और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्थाओं पर अतिरिक्त दबाव पड़ सकता है।
जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसम की घटनाओं की पुनरावृत्ति और तीव्रता में वृद्धि होने की आशंका है, इसलिए अध्ययन में कृषि प्रणालियों में अनुकूलन उपायों और बेहतर क्लाइमेट रेजिलिएंस की तत्काल आवश्यकता पर जोर दिया गया है, ताकि वैश्विक खाद्य आपूर्ति की रक्षा की जा सके।