उत्तराखंड में फलों की पैदावार में भारी गिरावट, गर्म होती जलवायु का असर

उत्तराखंड में प्रमुख फलों के उत्पादन में भारी गिरावट आई है साथ ही फल उत्पादन का क्षेत्र भी घट गया है। इसे गर्म होती जलवायु और घटती ठंड से जोड़कर देखा जा रहा है।

उत्तराखंड में फलों की पैदावार में भारी गिरावट, गर्म होती जलवायु का असर

साल 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही राज्य को बागवानी प्रदेश के तौर पर विकसित करने के दावे होते रहे हैं, लेकिन गर्म होती जलवायु के कारण राज्य का फल उत्पादन संकट में पड़ गया है। कभी नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा और खुबानी के बड़े उत्पादकों में शुमार रहा उत्तराखंड सेब उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उत्तराखंड में प्रमुख फलों की पैदावार में भारी गिरावट आई है। साथ ही फल उत्पादन का क्षेत्र भी घटा है। इसके पीछे बढ़ती गर्मी और घटती ठंड को वजह माना जा रहा है। 

पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था क्लाइमेट ट्रेंड्स के अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2020 से उत्तराखंड में प्रमुख फलों के क्षेत्र और पैदावार पर खासा प्रभाव पड़ा है। यह प्रभाव ट्रॉपिकल यानी उष्णकटिबंधीय फलों की तुलना में टेंपरेट यानी शीतोष्ण फलों के उत्पादन में खासतौर पर देखा जा रहा है। उत्तराखंड में फल उत्पादन में बदलाव को तापमान के बदलते पैटर्न से जोड़कर देखा जा रहा है। बढ़ती गर्मी के कारण कई पहाड़ी फलों के उत्पादन पर असर पड़ा है और किसानों का रुझान उष्णकटिबंधीय फलों की ओर बढ़ रहा है जो बदली जलवायु परिस्थितियों का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। 

उत्तराखंड में 2016-17 से 2022-23 तक बागवानी उत्पादन

प्रमुख फलों के क्षेत्र और उत्पादन का ट्रेंड

उत्तराखंड में फलों की पैदावार के साथ-साथ फलों के उत्पादन क्षेत्र में भी गिरावट देखी जा रही है। हिमालयी क्षेत्र के ऊंचाई वाले स्थानों पर आड़ू, खुबानी, आलूबुखारा और अखरोट जैसे फलों के उत्पादन में सबसे अधिक कमी देखी गई है। वर्ष 2016-17 में उत्तराखंड में 25,201.58 हेक्टेयर में सेब का उत्पादन किया जाता था जो वर्ष 2022-23 में घटकर 11,327.33 हेक्टेयर हो गया है। इस अवधि में सेब के उत्पादन में 30 प्रतिशत की कमी आई है। इसी तरह नींबू की विभिन्न प्रजातियों में 58 प्रतिशत की कमी देखी गई है। जबकि अमरूद का क्षेत्र 36 फीसदी और उत्पादन लगभग 95 फीसदी बढ़ा है। 

उत्तराखंड में फल उत्पादन और क्षेत्र में आई कमी 

 

2016-17

2022-23

कमी (%)

फल उत्पादन का कुल क्षेत्र (हेक्टेयर में)

177323.5

81692.58

54

फलों का कुल उत्पादन (मीट्रिक टन में)

662847.11

369447.3

44

 

2016-17 से 2022-23 के बीच उत्तराखंड में फलों के क्षेत्र और उत्पादन में कमी 

फल फलों के क्षेत्र में बदलाव (%) उत्पादन में बदलाव (%) 
नाशपाती -71.61 -74.1
खुबानी -71.17 -69.01
आलूबुखारा -70.49 -65.18
अखरोट -67.29 -52.69
सेब -55.05 -30.18
नींबू प्रजातियां -53.03 -58.48
लीची -49.78 -20.62
आम -42.2 -24.46
आड़ू -30.48 -37.61
करौंदा -23.49 63.77
अमरूद 36.63 94.89

स्रोतः बागवानी विभाग, उत्तराखंड सरकार

वर्ष 2016-17 से 2022-23 के बीच उत्तराखंड में लीची और आम के क्षेत्र में क्रमशः 49 और 42 प्रतिशत की कमी आई है जबकि इनके उत्पादन में क्रमशः 20 एवं 24 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में फलों के उत्पादन में कमी विभिन्न प्रकार के फलों को उगाने के पैटर्न में बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रही है। इसके पीछे कृषि के तौर-तरीकों, भूमि उपयोग और बाजार की परिस्थितियों में बदलाव के साथ-साथ संभवतः कुछ फलों पर पड़ रहे पर्यावरणीय प्रभाव का भी असर है। अमरूद और करौंदा के उत्पादन में वृद्धि बताती है कि राज्य के किसान इस प्रकार के फलों को उगाने में दिलचस्पी ले रहे हैं जो स्थानीय मांग और परिस्थितियों के हिसाब से अधिक अनुकूल हैं।

 

विभिन्न फलों के क्षेत्र और उत्पादन में बदलाव (%)

स्रोतः बागवानी विभाग, उत्तराखंड सरकार

उत्तराखंड में फलों के क्षेत्र और उत्पादन में आई गिरावट को जिलेवार देखें तो सबसे ज्यादा फलों का क्षेत्र टिहरी, देहरादून और अल्मोड़ा जिलों में घटा है जबकि फल उत्पादन में सबसे अधिक कमी अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और हरिद्वार जनपदों में दर्ज की गई है। अल्मोड़ा में फलों का उत्पादन 84 प्रतिशत कम हो गया है जो उत्तराखंड के सभी जिलों में सर्वाधिक है। चमोली में वर्ष 2016-17 से 2022-23 के बीच बागवानी के क्षेत्रफल में केवल 13 प्रतिशत की कमी हुई है, लेकिन फल उत्पादन 53 प्रतिशत घट गया है।

जिलेवार फलों के क्षेत्रफल और मुख्य फलों के उत्पादन में बदलाव 

जिला उपज क्षेत्र (%) पैदावार में बदलाव (%) 
टिहरी -75.61 -24.77
देहरादून -68.68 -19.75
अल्मोड़ा -66.85 -83.88
पिथौरागढ़ -63.65 -66.24
हरिद्वार -57.33 -64.57
पौड़ी -56.49 -35.71
चंपावत -49.77 -41.3
उत्तरकाशी -42.94 26.5
बागेश्वर -32.56 -39.25
रुद्रप्रयाग -28.14 11.73
चमोली -13.33 -52.94
नैनीताल -11.27 -20.75
ऊधम सिंह नगर 5.03 18.38

स्रोतः बागवानी विभाग, उत्तराखंड सरकार

इस दौरान एकमात्र उधमसिंह नगर जिले में फलों का क्षेत्र 5 फीसदी बढ़ा है जो तराई में बागवानी के बढ़ते रुझान का संकेत है। उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग में बागवानी के क्षेत्रफल में क्रमशः 43 और 28 प्रतिशत की कमी होने के बावजूद फलों के उत्पादन में 26.5 और 11.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।

फल उत्पादन पर बढ़ते तापमान का प्रभाव

उत्तराखंड में बागवानी के बदलते पैटर्न को बढ़ते तापमान से जोड़कर देखा जा रहा है। तापमान के पैटर्न में बदलाव फलों की वृद्धि, विकास और समग्र उत्पादकता पर सीधा प्रभाव डालता है। अधिक तापमान के कारण फलों पर गर्मी, पानी की कमी और बारिश के बदलते पैटर्न का असर पड़ता है, जिससे पैदावार प्रभावित होती है। बदलते तापमान के कारण फलों में कीटों और रोगों का प्रकोप भी बढ़ सकता है, जिससे कीट व रोग नियंत्रण की जरूरत बढ़ जाती है।  

 

1970 से 2022 के बीच उत्तराखंड में तापमान का ट्रेंड

स्रोतः क्लाइमेट सेंट्रल

क्लाइमेट सेंट्रल के अनुसार, वर्ष 1970 से 2022 के बीच उत्तराखंड में औसत तापमान 0.02 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ा है। राज्य में इस दौरान करीब 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ा है और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गर्मी बढ़ी है। शोध दर्शाते हैं कि अपेक्षाकृत गर्म सर्दियों के कारण ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बर्फ तेजी से पिघली है जिससे हिमाच्छादित क्षेत्र तेजी से सिकुड़ रहा है। 

बीते बीस वर्ष में उत्तराखंड के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सर्दियों का तापमान प्रति दशक 0.12 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ा है। जबकि हर दशक में बारिश 11.3 मिमी की दर से कम हुई है जिससे बर्फ से ढके क्षेत्र में प्रति दशक 58.3 वर्ग किमी की दर से कमी आई है। उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग जिलों में बर्फ से ढका क्षेत्र वर्ष 2000 की तुलना में वर्ष 2020 में 90-100 वर्ग किमी तक सिमट गया है।  

हिमालयी क्षेत्रों में सर्दियों की ठंड और बर्फबारी सेब, नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा, अखरोट, खुबानी आदि फलों के लिए बहुत जरूरी है। बढ़ती गर्मी के कारण हिम क्षेत्र के घटने तथा बारिश व बर्फबारी में कमी के कारण पहाड़ी फलों को जरूरी ठंडक (चिलिंग रिक्वायरमेंट) नहीं मिल पा रही है। इससे फलों के उत्पादन पर असर पड़ा है। 

शीतोष्ण फलों के लिए ठंड की जरूरत

आईसीएआर-सीएसएलआइआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक तथा बागवानी विशेषज्ञ डॉ. पंकज नौटियाल कहते हैं, "सेब जैसे परंपरागत शीतोष्ण फल को दिसंबर से मार्च के दौरान 1200-1600 घंटे के लिए 7 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान की चिलिंग रिक्वायरमेंट होती है। उत्तराखंड में पिछले 5-10 वर्षों में हुई बर्फबारी की तुलना में सेब को 2-3 गुना अधिक बर्फबारी चाहिए। कम बर्फबारी के कारण सेब की गुणवत्ता और पैदावार प्रभावित हुई है।"

रानीखेत के किसान मोहन चौबटिया कहते हैं, "बारिश और बर्फ कम होने से फल उगाने में बहुत दिक्कत हो रही है। अल्मोड़ा में बीते दो दशक में ठंडे स्थानों पर होने वाले फलों का उत्पादन आधा रह गया है। सबसे अधिक नुकसान उन किसानों को हुआ है जो सिंचाई का खर्च नहीं उठा सकते हैं।"

बागवानी में बदलाव

गर्म जलवायु उष्णकटिबंधीय फलों की खेती के अनुकूल होती है जबकि बढ़ती गर्मी शीतोष्ण फलों के विकास में बाधक है। इसलिए, उत्तराखंड के किसान धीरे-धीरे उष्णकटिबंधीय फलों की ओर रुख कर रहे हैं। कुछ जिलों में किसान सेब की कम ठंड की जरूरत वाली किस्मों को चुन रहे हैं या फिर आड़ू, अखरोट और खुबानी जैसे फलों की जगह कीवी और अनार जैसे उष्णकटिबंधीय विकल्प अपना रहे हैं। उत्तरकाशी जिले के निचले पहाड़ी क्षेत्रों में आम की सघन किस्में भी उगाई जा रही हैं जो अधिक लाभ देती हैं।

आपदाओं की मार 

उत्तराखंड अक्सर प्राकृतिक आपदाओं की मार झेलने वाला राज्य है। भारी बारिश, बाढ़, भूस्खलन और ओलावृष्टि से कृषि और बागवानी को नुकसान पहुंचता है। वर्ष 2023 में चरम मौसमी घटनाओं के कारण उत्तराखंड में 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि को नुकसान हुआ था। कृषि की कठिन परिस्थितियों के कारण पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी इलाकों में पलायन बढ़ा है जो राज्य में बागवानी के घटते क्षेत्र का बड़ा कारण है। 

जलवायु अनुकूल कृषि की जरूरत 

फलों की घटती पैदावार के कारण उत्तराखंड के बागवानी उद्योग के सामने संकट खड़ा हो गया है। नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में कृषि भौतिकी विभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नटराज का कहना है कि तापमान में अल्पकालिक परिवर्तन और प्रवृत्तियां चिंताजनक हैं। मौसम की दीर्घकालिक प्रवृत्तियों और कृषि उपज के साथ इसके संबंध का अध्ययन करने की आवश्यकता है। 

जलवायु दशाओं में परिवर्तन के कारण उत्तराखंड अपनी फल किस्मों की समृद्ध विविधता खोने के कगार पर है। इस सकंट से बागवानी को बचाने के लिए जलवायु अनुकूल कृषि की ओर रुख करना आवश्यक है। इसके लिए डॉ. नटराज स्थान विशेष के हिसाब से जलवायु अनुकूल किस्मों की पहचान और विकास पर जोर देते हैं। मौसम की मार से किसानों को बचाने के लिए क्लाइमेट फाइनेंसिंग भी जरूरी है। साथ ही गांव के स्तर पर मौसम संबंधी सलाह समयबद्ध तरीके से पहुंचनी चाहिए ताकि किसान विपरीत परिस्थितियों की समय रहते तैयारी कर सकें। 

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