पश्चिम यूपी में गुरुवार को मतदान, यहां की राजनीति में गन्ना और चीनी उद्योग क्यों है सदाबहार
राज्य में गन्ना और चीनी उद्योग की कामयाबी में मुलायम, मायावती और योगी सरकारों की हिस्सेदारी है। प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा जो सहारनपुर से शुरू होकर अपर दोआब, रुहेलखंड, तराई और पूरब में देवरिया तक जाता है, वह गन्ना उत्पादन के बहुत अनुकूल है
उत्तर प्रदेश में गन्ना और राजनीति को अलग करना लगभग असंभव सा है। इसकी दो वजह हैं। पहली यह कि गन्ना और चीनी उद्योग राज्य की आर्थिक गतिविधियों की लाइफलाइन की तरह है। इससे 40 लाख से अधिक किसान सीधे जुड़े हैं। यह राज्य का सबसे बड़ा उद्योग भी है। पिछले पांच सीजन से राज्य देश का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक बना हुआ है। यह एथनॉल का सबसे बड़ा उत्पादक होने के साथ पेट्रोल में 10 फीसदी ब्लैंडिंग हासिल करने वाला देश का पहला राज्य भी है। दिलचस्प बात यह है कि यह सब गन्ना और चीनी उद्योग पर केंद्रित राजनीति के साथ-साथ पिछले दो दशकों से कुछ कम अवधि में ही हो गया है। इस उपलब्धि के लिए तीन अलग राजनीतिक दल दावा कर सकते हैं। समाजवादी पार्टी, बसपा और मौजूदा भाजपा सरकार तीनों इस उपलब्धि को भुना सकती हैं। दूसरी वजह यह है कि इससे इतनी बड़ी संख्या में लोग जुड़े हैं कि राजनीतिक रूप से इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है।
इसकी शुरुआत 2003 में सत्ता में आई मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने की। वह 2004 में चीनी उद्योग में निवेश के लिए चीनी उद्योग प्रोत्साहन नीति लेकर आई। उस समय राज्य की कुल गन्ना पेराई क्षमता चार लाख टन थी। इस नीति के चलते अनेक नई चीनी मिलें स्थापित हुईं और पुरानी चीनी मिलों की पेराई क्षमता का विस्तार हुआ। 2006-07 में राज्य की कुल गन्ना पेराई क्षमता सात लाख टन पहुंच गई और मिलों की संख्या में भी काफी बढ़ोतरी हुई। इस समय राज्य में कुल 120 चीनी मिलें हैं और इनकी कुल पेराई क्षमता 7,87,275 टन प्रति दिन की है। देखा जाए तो राज्य में किसी एक सरकार के कार्यकाल में चीनी मिलों की स्थापना और निवेश का सबसे महत्वपूर्ण कार्यकाल मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व वाला रहा है।
उसके बाद 2007 में मायावती सत्ता में आईं। उनकी सरकार ने इस निवेश प्रोत्साहन नीति के तहत चीनी मिलों को मिलने वाले प्रोत्साहन में कटौती कर दी। लेकिन मायावती के कार्यकाल में गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) में सबसे अधिक बढ़ोतरी हुई। उनके पांच साल के कार्यकाल में कुल 120 रुपये प्रति क्विटंल की बढ़ोतरी हुई। चीनी उद्योग को एक दूरी पर रखते हुए मायावती ने सख्त रुख अपनाया और चीनी की कीमतों को बेहतर रखने के लिए राज्य में रॉ शुगर के आयात पर भी रोक लगा दी थी। इसके साथ ही चीनी मिलों पर गन्ना किसानों को समय पर भुगतान करने को लेकर उनकी सरकार का रुख बहुत सख्त रहा। यहां यह बात भी सच है कि राजनीति के केंद्र में रहने वाले गन्ने और चीनी के मुद्दों ने सबसे अधिक चीनी मिल लगवाने वाले मुलायम सिंह यादव को दोबारा गद्दी नहीं सौंपी। सबसे अधिक गन्ना एसएपी बढ़ाने वाली मायावती को भी दोबारा गद्दी नहीं मिली और वह सत्ता से बाहर हो गईं।
मायावती के बाद सत्ता में आई अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार के दौरान चीनी उद्योग और किसानों की मुश्कलें बढ़ीं, क्योंकि तब देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों में भारी गिरावट आ गई थी। इसके बावजूद उनके कार्यकाल में गन्ने के एसएपी में 65 रुपये प्रति क्विटंल की बढ़ोतरी हुई और राज्य सरकार ने उद्योग की मदद के लिए गन्ना किसानों को करीब 3000 करोड़ रुपये का सीधे भुगतान किया। हालांकि तीन साल तक गन्ने का एसएपी फ्रीज भी रहा।
राज्य में चीनी उद्योग और गन्ना किसानों के मामले में तीसरा बड़ा बदलाव मौजूदा योगी आदित्यनाथ सरकार के कार्यकाल में हुआ है। इसमें दो बातें अहम रहीं। एक तो गन्ने की नई प्रजाति सीओ-0238 का क्षेत्रफल तेजी से बढ़ने के चलते गन्ना की उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी हुई। दूसरे, चीनी की रिकवरी भी दो से तीन फीसदी तक बढ़ गई। किसानों को गन्ने की अधिक उत्पादकता का फायदा मिला और चीनी मिलों को अधिक रिकवरी का। लेकिन एसएपी के मामले में किसानों को इस दौरान मायूस होना पड़ा, क्योंकि पांच साल में दो बार में केवल 35 रुपये प्रति क्विटंल की वृद्धि हुई। तीन साल एसएपी फ्रीज रहा। मौजूदा सरकार की उपलब्धि राज्य में एथनॉल उत्पादन का रफ्तार पकड़ना रही है। केंद्र सरकार द्वारा एथनॉल ब्लैंडिंग की नीति लागू करने के लिए दिये गये वित्तीय प्रोत्साहन और डिस्टीलरी स्थापित करने के लिए जरूरी मंजूरी प्रक्रिया में तेजी लाना इसकी वजह है।
इस समय उत्तर प्रदेश में एथनॉल की कुल उत्पादन क्षमता 107.21 करोड़ लीटर हो गई है। साल 2016-17 में उत्तर प्रदेश में एथनॉल की उत्पादन क्षमता 43.25 करोड़ लीटर थी। यानी यह 2020-21 में दोगुना से भी अधिक हो गई। इस अवधि में राज्य में एथनॉल उत्पादन करने वाली डिस्टीलरी की संख्या भी 44 से बढ़कर 75 हो गई है। राज्य में चीनी उद्योग का लक्ष्य ऑयल मार्केटिंग कंपनियों (ओएमसी) को चालू एथनॉल सीजन (दिसंबर 2021 से नवंबर 2022) में 160 करोड़ लीटर एथनॉल की आपूर्ति करने का है।
इस तरह राज्य में गन्ना और चीनी उद्योग की इस कामयाबी में तीन सरकारों की हिस्सेदारी है। भले ही पर्यावरणविदों का एक वर्ग कुछ भी दावा करे, हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश का एक बड़ा हिस्सा जो सहारनपुर से शुरू होकर अपर दोआब, रुहेलखंड, तराई और पूरब में देवरिया तक जाता है, वह गन्ना उत्पादन के बहुत अनुकूल है। यहां पानी है, गन्ना उत्पादन के लिए बेहतर जलवायु है और अब उसके प्रसंस्करण के लिए देश के सबसे एफिशिएंट संयंत्रों का जाल बिछ गया है। यहां इसकी खेती करने वाले 40 लाख से अधिक किसान सालाना 20 करोड़ टन से अधिक गन्ना का उत्पादन करते हैं। उनके साथ काम करने वाले करीब उतने ही मजदूर हैं। राज्य की सबसे बड़ी इंडस्ट्री चीनी उद्योग में भी करीब 1.5 लाख कामगार और मजदूर काम करते हैं। लाखों लोग गुड़ और खांडसारी उद्योग में काम कर अपनी आजीविका और बिजनेस चलाते हैं। चीनी उद्योग के सहउत्पादों और उससे जुड़े उद्योगों में भी लोगों को काम मिलता है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 24 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में एक बड़ा हिस्सा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से गन्ना और चीनी उद्योग से अपनी आजीविका हासिल करता है।
देश की राजनीति के लिए सबसे अहम उत्तर प्रदेश अब विधानसभा चुनावों में जा रहा है और 10 फरवरी को पहले चरण का मतदान होगा। सात चरणों में होने वाले मतदान के बाद 10 मार्च को आने वाले नतीजे तय करेंगे कि अगली सरकार किसकी होगी। लेकिन यह बात तय है कि गन्ना हर सरकार की नीतियों के केंद्र में था और रहेगा। यही वजह है कि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य में जबरदस्त चुनाव प्रचार में लगे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, सभी के वादों और उपलब्धियों में गन्ने का जिक्र होता है। वहीं मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और राज्य में नई सरकार के दावेदार अखिलेश यादव भी गन्ना किसानों को लुभाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। सपा की सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी की कामयाबी के लिए गन्ना क्षेत्र ही सबसे अहम है, क्योंकि यही उनकी पार्टी का मुख्य प्रभाव क्षेत्र है।
सरकार किसी भी पार्टी की बने और मुख्यमंत्री कोई भी हो, उसके सामने राज्य में गन्ना उत्पादन की मौजूदा स्थिति बेहतर नतीजे लाने की क्षमता रखती है। केंद्र सरकार ने एथनॉल ब्लैंडिंग का स्तर 15 फीसदी तक ले जाने की नीति बनाई है। इसकी सबसे अधिक आपूर्ति उत्तर प्रदेश से ही संभव है। लेकिन इस पूरे गणित में किसान कहां है और किसान व उद्योग के हितों के बीच कैसा संतुलन बनता है, वही बात सरकार और राजनीति का भी संतुलन बनाने का काम करेगी।
बात केवल चीनी, बिजली और एथनॉल तक की नहीं है, गन्ने के जूस से सीधे एथनॉल बनाने की नीति के चलते चीनी उत्पादन जरूरी नहीं होगा। एथनॉल बनाने के बाद उससे निकलने वाले अपशिष्ट में पोटाश उर्वरक है, तो चीनी बनाने के समय निकलने वाले प्रैसमड को कंप्रैस कर बॉयो सीएनजी का उत्पादन भी होने लगा है। यानी एक कच्चे माल गन्ने से तैयार होने वाले उत्पादों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसलिए उत्तर प्रदेश को मिनी ब्राजील में तब्दील किया जा सकता है। लेकिन इसका फायदा अगर किसानों के साथ बांटा जाएगा तो राजनीतिक नतीजे भी बेहतर हो सकते हैं।