बिहार को विशेष राज्य का दर्जा क्यों मिलना चाहिए?
वर्तमान में 'विशेष श्रेणी का दर्जा' देने वाले मापदंडों में प्रमुख हैं - पहाड़ी और कठिन इलाके, कम जनसंख्या घनत्व और/या जनजातीय आबादी का पड़ोसी देश की सीमाओं से मिलना, आर्थिक और ढांचागत पिछड़ापन इत्यादि। इस तरह के मानदंडों के आधार पर बिहार को अति-आवश्यक 'विशेष श्रेणी का दर्जा' से महरूम रखा गया है।
भारत में वर्तमान में 29 राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश हैं। वित्त आयोग के अध्यक्ष की सिफारिशों के आधार पर इन सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को हर पांच साल में संघीय सरकार के राजस्व का एक निश्चित प्रतिशत प्राप्त होता है। किन्तु इनमें से ग्यारह राज्यों, जो अंतर्राष्ट्रीय सीमाएँ साझा करते हैं, को 'विशेष श्रेणी राज्य' का दर्जा केंद्र सरकार द्वारा प्राप्त है। ये हैं: मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, सिक्किम, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, असम, जम्मू और कश्मीर तथा नगालैंड; अर्थात मुख्य रूप से आर्थिक रूप से कमज़ोर पहाड़ी राज्यों का एक समूह।
स्वतंत्रता प्राप्ति के आरंभिक वर्षों में समग्र रूप से देश अल्प विकसित था। आय सभी क्षेत्रों में असमान रूप से वितरित थी। अतः सभी क्षेत्रों के संतुलित विकास को एक स्पष्ट सरकारी लक्ष्य बनाया गया। यह तर्क दिया गया कि यदि बाजार तंत्र को प्राथमिक भूमिका दी गई और राज्य की भूमिका प्रतिबंधित कर दी गई, तो देश का आर्थिक विकास उन चुनिंदा इलाकों तक ही सीमित रहेगा जो अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं, जिसके परिणामस्वरूप असमानता और बढ़ जाएगी। इसलिए, असमानता कम करने के लिए सक्रिय राजकीय हस्तक्षेप की परिकल्पना की गई थी। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए नियोजित तंत्र केंद्र से राज्यों को संसाधनों का हस्तांतरण करता था। यह कार्य वित्त आयोग और योजना आयोग के माध्यम से संपन्न किये जाते थे।
किन्तु किसी राज्य के विकास का स्तर ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और समाजशास्त्रीय कारकों का एक जटिल समुच्चय होता है। राज्यों के लिए 'विशेष श्रेणी न केवल राज्यों को विशेष केंद्रीय धन के आवंटन को आसान बनाने के लिए था, बल्कि वंचित क्षेत्रों और कम विकसित राज्यों में विकास को बढ़ावा देने के लिए कुछ अतिरिक्त सुविधाएं (विशेष रूप से कर रियायतें) देना भी था।
ऐतिहासिक रूप से वंचित बिहार राज्य के लिए, 'विशेष श्रेणी का दर्जा' आवश्यक है। बिहार राज्य स्वतंत्रता पूर्व तीन शताब्दियों से प्रशासन की उदासीनता का शिकार रहा है। इस उदासीनता के मुख्य बिंदु हैं – ब्रिटिश शासन द्वारा अपनाई गई शोषणकारी आर्थिक नीतियां; स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रथम दशक में बिहार में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन का पूरी तरह क्रियान्वित नहीं हो पाना; 1952 से भारत सरकार द्वारा लागू माल ढुलाई समानीकरण नीति (freight equalization policy) का बिहार पर दुष्प्रभाव; 1961 से 1990 तक प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता; नवंबर 2000 में प्रदेश के विभाजन (बिहार और झारखंड) के उपरांत बिहार राज्य से अधिकांश खनिज एवं राजस्व पैदा करने वाले स्रोतों से वंचित हो जाना इत्यादि। इन वजहों से बिहार विकास के पैमाने पर पिछड़ेपन से जूझ रहा है। 'विशेष श्रेणी का दर्जा' ही इसके विकास को गति प्रदान कर सकता है। इससे ही राज्य में बड़े पैमाने पर निजी और सार्वजनिक निवेश का मार्ग प्रशस्त होगा।
वर्तमान में 'विशेष श्रेणी का दर्जा' देने वाले मापदंडों में प्रमुख हैं - पहाड़ी और कठिन इलाके, कम जनसंख्या घनत्व और/या जनजातीय आबादी का पड़ोसी देश की सीमाओं से मिलना, आर्थिक और ढांचागत पिछड़ापन इत्यादि। इस तरह के मानदंडों के आधार पर बिहार को अति-आवश्यक 'विशेष श्रेणी का दर्जा' से महरूम रखा गया है। हालांकि बिहार राज्य भूमि से घिरा है किन्तु मात्र इस वजह से इसे 'विशेष श्रेणी का दर्जा' से वंचित रखना अन्याय है। अतः इस मापदंड पर दोबारा गौर करने की जरूरत है।
जब से नीतीश कुमार सत्ता में आए हैं तब से वह बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। उनकी इस मांग का आधार यह है कि विशेष राज्य का दर्जा औद्योगिक घरानों को आकर्षित करके, औद्योगीकरण की गति को तीव्र करके धनोपार्जन एवं रोजगार के अवसर प्रदान कर बिहार को सशक्त बनाएगा। यदि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा के तहत समुचित वित्तीय सहायता मिलती है तो औद्योगीकरण में तीव्रता आएगी। इस मांग को एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री इन इंडिया (एसोचैम) ने भी समर्थन दिया है ताकि बिहार को बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्रों को विकसित करने के लिए अगले पांच वर्षों में 2.5 लाख करोड़ रुपये का निवेश मिल सके। इससे राज्य को विकास की प्रतिस्पर्धा में बनाए रखने में मदद मिलेगी। बड़े पैमाने पर निवेश तभी संभव है जब बिहार को विशेष श्रेणी का दर्जा देकर एक आकर्षक और अत्यधिक अनुकूल वातावरण दिया जाए जैसा कि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अन्य राज्यों के मामलों में किया गया था। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने से केंद्र सरकार को जितना राजस्व का घाटा होगा उससे कहीं अधिक राजस्व बिहार के द्वारा अर्जित हो जायेगा।
बुनियादी ढांचे के विकास के लिए काफी हद तक बिहार सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश पर निर्भर रहा है, लेकिन इस क्षेत्र में समुचित विकास के लिए निजी निवेश को प्रोत्साहित करना आवश्यक है। निजी निवेश से बुनियादी ढांचे और औद्योगिक विकास में तेजी आएगी, जिसका असर शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों पर स्वत: पड़ेगा। इसके अलावा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होगी और जनसामान्य की क्रय शक्ति में सुधार होगा। विशेष राज्य का दर्जा बिहार में निवेशकों का विश्वास बढ़ाने में सहायक होगा।
यद्यपि बिहार में शराब की बिक्री-खरीद पर प्रतिबंध के कारण राज्य के खजाने को नुकसान हुआ है, किन्तु यह माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सामान्य रूप से समाज की बेहतरी का प्रतीक है। इसके अलावा समानांतर रूप से अन्य क्षेत्रों जैसे - पर्यटन को बढ़ावा देकर वित्तीय नुकसान की भरपाई करने का प्रयास किया गया, और इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है।
हालाँकि, वित्तीय संकट में फंसे राज्य को बाहर निकालने के प्रयासों के बावजूद, यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि राज्य के विकास की यह गति यथेष्ट नहीं है क्योंकि इतने प्रयासों के बावजूद देश के बाकी हिस्सों की तुलना इस प्रदेश में विकास की गति धीमी है। यह तथ्य ‘विशेष श्रेणी दर्जे’ की मांग को और अधिक बल प्रदान करता है और यही बिहार को विभिन्न विकास मानकों पर राष्ट्रीय औसत के करीब लाने के लिए प्रेरित करने वाला नीतिगत उपाय भी माना जा सकता है।
बिहार सरकार की मांग को बिहार विधान परिषद और बिहार विधान सभा में सर्वसम्मत प्रस्तावों द्वारा समर्थन प्राप्त है। संभवतः उपर्युक्त बातों को मद्देनज़र रखकर पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान, केंद्रीय वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने पटना में कहा था कि केंद्र सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने पर गंभीरतापूर्वक विचार करेगी। दूसरी ओर, केंद्र को यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछली तीन शताब्दियों में बिहार जिस तरह की आर्थिक उपेक्षा का शिकार हुआ है, वैसा किसी अन्य राज्य ने नहीं झेला है। अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार बिहार को समुचित विकास के लिए बेहद आवश्यक ‘विशेष श्रेणी का दर्जा’ प्रदान करे। बिहार समेत देश का समग्र विकसित भारत के सपने को साकार करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
(लेखिका प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्षा- रिटायर्ड, स्नातकोत्तर दर्शनशास्त्र विभाग, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना; पूर्व प्रतिकुलपति, बी.एन. मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा, बिहार और पूर्व विजिटिंग प्रोफेसर, महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट, मोका, मारीशस हैं)