रिसर्च की कमी और किसानों तक टेक्नोलॉजी की पहुंच न होना मिलेट उत्पादन बढ़ाने में बाधकः फिक्की-पीडब्लूसी रिपोर्ट
जलवायु परिवर्तन से निपटने और पोषण उपलब्ध कराने के इन अनाजों के गुणों को देखते हुए मिलेट का उत्पादन और खपत बढ़ाना काफी मददगार हो सकता है। उद्योग संगठन फिक्की और कंसल्टेंसी फर्म पीडब्लूसी की तरफ से मिलेट पर जारी एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इसमें मिलेट उत्पादन बढ़ाने में आने वाली समस्याओं पर भी गौर किया गया है। किसानों तक टेक्नोलॉजी की पहुंच न होना, प्रोसेसिंग मशीनों का महंगा होना, पर्याप्त रिसर्च का अभाव आदि इसके प्रमुख कारण बताए गए हैं।
भारत में मिलेट यानी मोटे अनाज की मांग हाल के समय में बढ़ रही है, लेकिन इसके बढ़ने की दर बहुत धीमी है। जलवायु परिवर्तन से निपटने और पोषण उपलब्ध कराने के इन अनाजों के गुणों को देखते हुए मिलेट का उत्पादन और खपत बढ़ाना काफी मददगार हो सकता है। उद्योग संगठन फिक्की और कंसल्टेंसी फर्म पीडब्लूसी की तरफ से मिलेट पर जारी एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। इसमें मिलेट उत्पादन बढ़ाने में आने वाली समस्याओं पर भी गौर किया गया है। किसानों तक टेक्नोलॉजी की पहुंच न होना, प्रोसेसिंग मशीनों का महंगा होना, पर्याप्त रिसर्च का अभाव आदि इसके प्रमुख कारण बताए गए हैं।
रिपोर्ट के अनुसार, मिलेट को लेकर कई ऐसी धारणाएं हैं जो स्वास्थ्य और पोषण में इनके इस्तेमाल के साथ किसानों की संपन्नता को भी बाधित करती हैं। विपरीत मौसम को झेलने में सक्षम होने के कारण लंबे समय से मिलेट को ‘गरीबों की फसल’ कहा जाता रहा है। किसानों को भी जब अवसर मिलता है, वे मिलेट की जगह दूसरी फसल उगाना चाहते हैं क्योंकि उनकी उन्हें बेहतर कीमत मिलती है।
टेक्नोलॉजी तक किसानों की पहुंच नहीं
भारत के ज्यादातर राज्यों में अभी तक छोटे किसान पारंपरिक तरीके से ही मिलेट की खेती करते हैं। इसकी मूल वजह आधुनिक टेक्नोलॉजी का अभाव नहीं, बल्कि किसानों को या तो टेक्नोलॉजी की जानकारी नहीं होती या उनके पास इतने पैसे नहीं होते कि वे नई टेक्नोलॉजी का प्रयोग कर सकें। इससे फसलों की उत्पादकता प्रभावित होती है। एक और चुनौती प्रोसेस्ड मिलेट की कम शेल्फ लाइफ है।
भारत में नौ तरह के मिलेट उगाए जाते हैं। उन सबका आकार अलग होता है। यहां तक कि किसी एक मिलेट में भी देखा जाए तो दानों का आकार, टेक्सचर आदि अलग होते हैं। कुछ मिलेट के छिलके आसानी से उतर जाते हैं तो कुछ के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए इनकी प्रोसेसिंग में अलग तरह के फैब्रिकेशन की आवश्यकता पड़ती है। इस समय ज्यादातर प्रोसेसिंग उपकरण निर्माता कोई एक तरह की मशीन ही उपलब्ध कराते हैं।
प्रोसेसिंग का ज्यादा खर्च
रिपोर्ट के अनुसार, अभी जो प्रोसेसिंग मशीनरी बाजार में उपलब्ध हैं उनकी क्षमता प्रति घंटे दो टन तक होती है जो बहुत कम है। बड़ी मशीनों की कीमत दो करोड़ रुपए के आसपास होने के कारण छोटी इकाइयां उन्हें नहीं खरीद सकती हैं। ज्यादातर प्रोसेसिंग मशीनों को धान की प्रोसेसिंग मशीनों में मामूली बदलाव करके बनाया गया है। इसके अलावा इन मशीनों में ग्रेन रिकवरी भी 70% से 80% तक ही है जो कम है। इस तरह शुरू में 15 से 20 लाख रुपए मिलेट प्रोसेसिंग यूनिट में लगाने के बाद भी प्रोसेसिंग का खर्च काफी अधिक होता है। यह 10 से 14 रुपए प्रति किलो के आसपास बैठता है।
पॉलिसी और रिसर्च में ध्यान कम
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत सरप्लस खाद्यान्न वाला देश बन गया है, लेकिन अनाज उत्पादन बढ़ाने में पूरा फोकस सिर्फ गेहूं और चावल पर किया गया। इन दोनों की तुलना में मिलेट पर निवेश कम हुआ। पॉलिसी और रिसर्च दोनों नजरिए से इस पर ध्यान भी कम दिया गया। जहां तक वैरायटी में सुधार की बात है तो वह भी प्रमुख मिलेट तक ही सीमित रहा। अभी तक मिलेट के लिए कोई क्वालिटी स्टैंडर्ड अथवा ग्रेड तय नहीं हुआ है।
हाल तक मिलेट सरकार की खरीद पॉलिसी में शामिल नहीं थे। मोटे अनाजों की खरीद मक्के तक सीमित होती थी। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) हर साल प्रमुख मिलेट यानी ज्वार, बाजरा और रागी का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है, लेकिन छोटी मिलेट फसलों के लिए कोई खरीद नीति न होने के कारण इनका एमएसपी भी तय नहीं किया जाता है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मिलेट रिसर्च को हाल में ग्लोबल सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस ऑन मिलेट का दर्जा दिया गया है, लेकिन इसमें मुख्य रूप से ज्वार पर ही फोकस किया जाता है। देश में छोटी मिलेट किस्मों पर रिसर्च के लिए 14 केंद्र हैं, लेकिन फसल के हिसाब से कोई निर्धारित रिसर्च सेंटर अथवा इंस्टीट्यूट नहीं है। आईआईएमआर के अनुसार 2012 तक छोटी मिलेट फसलों की सिर्फ 14 वैरायटी जारी की गई थी। हालांकि मिलेट वैल्यू चेन में शामिल विभिन्न पक्ष अपनी तरफ से प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वैश्विक मिलेट इकोसिस्टम को अगले स्तर तक ले जाने के लिए चौतरफा प्रयासों की जरूरत है।
मिलेट का सबसे अधिक उत्पादन करने वाले 10 देश |
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देश |
उत्पादन |
हिस्सेदारी |
भारत |
12.64 मिलियन टन |
41% |
निगर |
3.10 मिलियन टन |
10% |
चीन |
2.69 मिलियन टन |
9% |
नाइजीरिया |
1.96 मिलियन टन |
6% |
माली |
1.78 मिलियन टन |
6% |
सूडान |
1.45 मिलियन टन |
5% |
इथोपिया |
1.15 मिलियन टन |
4% |
सेनेगल |
1.02 मिलियन टन |
3% |
बुरकीनाफासो |
0.91 मिलियन टन |
3% |
चाड |
0.68 मिलियन टन |
2% |
भारत में दुनिया का 41% मिलेट उत्पादन
रिपोर्ट के अनुसार मिलेट का वैश्विक उत्पादन लगभग 30.59 मिलियन टन है और 30.86 मिलियन हेक्टर जमीन में इसकी खेती होती है। दुनिया के शीर्ष 10 मिलेट उपजाने वाले देश 90% मिलेट का उत्पादन करते हैं। शीर्ष 10 देशों में भारत और चीन को छोड़कर बाकी सब अफ्रीका के हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मिलेट उत्पादक देश है। यहां दुनिया का 41% और एशिया का 80% मिलेट उत्पादन होता है जबकि 40% खपत अफ्रीका में होती है।
वर्ष 2021 में दुनिया में 198.66 मिलियन डॉलर के मिलेट का निर्यात किया गया। सबसे अधिक निर्यात यूक्रेन, अमेरिका, भारत, रूस और फ्रांस ने किया। सबसे बड़े आयातकों में इंडोनेशिया, यूरोपीय यूनियन, जर्मनी, बेल्जियम और कनाडा शामिल हैं। मिलेट का ग्लोबल बाजार 2023 से 2028 तक सालाना औसतन 4.6 प्रतिशत की दर से बढ़ते हुए 13.8 अरब डॉलर का हो जाने की उम्मीद है।
भारत में सबसे अधिक बाजरे का उत्पादन होता है। उसके बाद ज्वार और रागी हैं। सबसे अधिक उत्पादन राजस्थान में होता है। टॉप 10 राज्यों में उसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश हैं।
मिलेट दुनिया में सबसे पुराने खेती किए जाने वाले अनाज हैं। हड़प्पा की खुदाई में जले हुए मिलेट मिले हैं। इसके अलावा वेदों में भी इनका जिक्र है। इससे पता चलता है कि मिलेट का काफी लंबा इतिहास रहा है। एशिया और अफ्रीका में ये स्टेपल फूड यानी रोज खाया जाने वाला अनाज रहे हैं। ज्यादातर मिलेट का मूल एशिया और अफ्रीका रहा है। माना जाता है कि ज्वार, बाजरा और रागी का मूल अफ्रीका, कुटकी और कोदो का भारत, कंगनी और बर्री का चीन तथा झंगोरा का जापान रहा है।
जलवायु परिवर्तन को सहने में सक्षम
रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन और सेहत से जुड़ी समस्याओं के संदर्भ में मिलेट महत्वपूर्ण समाधान उपलब्ध कराते हैं। आज दुनिया भर के विशेषज्ञ इन पोषक अनाजों का उत्पादन और खपत बढ़ाने की सलाह दे रहे हैं। मिलेट किसानों और उपभोक्ताओं के साथ जलवायु संकट का भी समाधान बन सकते हैं। हर साल जलवायु परिवर्तन का असर बढ़ता जा रहा है और यह वैश्विक कृषि तथा खाद्य उत्पादन प्रणाली को प्रभावित कर रहा है।
वर्ल्ड बैंक का आकलन है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्ष 2030 तक 3.2 करोड़ से लेकर 13.2 करोड़ तक लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे। इनमें सबसे ज्यादा लोग सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया के होंगे। ऐसे परिदृश्य में मिलेट जलवायु रोधी खेती के लिए भविष्य की फसल के तौर पर कम कर सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार बीते तीन दशकों में एक्सट्रीम वेदर की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं और इसके पीछे जलवायु परिवर्तन का हाथ है। इन दिनों हीटवेव, सूखा और बाढ़ की घटनाएं बहुत आम हो गई हैं। दूसरी तरफ ग्लेशियर पिघलने से समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। आर्कटिक सागर में बर्फ काफी कम हो गई है। समुद्र का तापमान बढ़ने से मरीन हीटवेव बढ़ा है। जलवायु से संबंधित ये बदलाव हमारे जीवन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं और खाद्य सुरक्षा पर भी असर डाल रहे हैं। मिलेट हमें बेहतर पर्यावरण और आर्थिक संपन्नता का अवसर मुहैया कराते हैं। ये अधिक तापमान, कम पानी तथा अपेक्षाकृत कम पोषक मिट्टी में भी पनप सकते हैं। इनके लिए ज्यादा इनपुट की भी जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए छोटे किसानों को इन पर अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा।