देश के सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में चीनी उद्योग संगठन के एक पदाधिकारी के मुताबिक, चीनी मिलों ने किसानों का पिछले साल का लगभग पूरा भुगतान कर दिया है। केवल चुनिंदा चीनी मिलों ने ही अभी तक पूरा भुगतान नहीं किया है, जिनका रिकॉर्ड लगातार खराब रहा है। हां, इस साल के भुगतान में काफी तेजी है। संगठन के एक प्रतिनिधि की इस लेखक के साथ 14 मार्च की बातचीत से तो यही लगता है कि ‘अच्छे दिन’ आ गए। बकौल उनके, इस साल करीब 59 फीसदी गन्ना मूल्य का भुगतान 13 मार्च तक हो गया। लेकिन ध्यान से देखेंगे तो तसवीर उलट जाती है। सच्चाई यह है कि पिछले पेराई सीजन यानी अक्तूबर 2018 से सितंबर 2019 के लिए किसानों के गन्ना मूल्य का भुगतान फरवरी 2020 तक ही अधिकांश चीनी मिलें कर सकीं। अभी उस साल का 278.81 करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है। राज्य में चीनी मिलें अप्रैल-मई में ही बंद हो जाती हैं। गन्ना आपूर्ति के 14 दिन के भीतर भुगतान का कानून है, उसके बाद इस पर ब्याज देय होता है लेकिन किसान भुगतान मिल जाने को गनीमत मानता है।
अब बात 2019-20 के चालू पेराई सीजन की। यह सीजन अक्तूबर 2019 में शुरू हुआ और सितंबर 2020 तक चलेगा। चीनी मिलें अप्रैल-मई में ही बंद होने लगेंगी। चीनी के लिए न्यूनतम बिक्री मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू होने, दुनिया के बाजार में चीनी की खपत उत्पादन से अधिक होने के चलते कीमतों में सुधार और निर्यात पर सब्सिडी देने के साथ ही सरकार ने 40 लाख टन चीनी का बफर स्टॉक भी बना रखा है जिसके भंडारण और ब्याज का खर्च सरकार उठाती है। उसके बाद भी चीनी मिलों पर 13 मार्च, 2020 तक गन्ना किसानों का 9,053.25 करोड़ रुपये का बकाया है। वैसे, यह 14 दिन पहले तक का बकाया है यानी इन 14 दिनों में जो गन्ना आपूर्ति हुई है, उसे जोड़ने पर आंकड़ा इससे अधिक रहेगा।
दूसरे पिछले दो साल में राज्य की योगी सरकार ने गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) नहीं बढ़ाया है। सरकार जल्दी ही तीन साल पूरे होने का जश्न मनाएगी लेकिन राज्य के करीब 45 लाख गन्ना किसानों के लिए तीन साल की उपलब्धियों में कोई जगह नहीं होगी। ऐसा कौन-सा कारोबार है जिसमें तीन साल बिना कोई कीमत बढ़े फायदा हो सकता है जबकि खाद, बीज, बिजली और डीजल की कीमतें बढ़ गई हैं। ऊपर से किसानों को उनके गन्ने का भुगतान के लिए आठ से दस माह तक का इंतजार करना पड़े।
असल में यही वह उधार का अर्थशास्त्र है जो चीनी मिलों के लिए अच्छे दिन लेकर आता है। बाजार में कीमतों में कमी के नाम पर केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर तमाम सहूलियतें ली गईं। राज्य सरकार को गन्ने के एसएपी में बढ़ोतरी नहीं करने के लिए मनाया गया। गन्ना किसानों को भुगतान नहीं करके कच्चे माल को लंबे समय तक उधार की तरह इस्तेमाल किया गया। इस उधार पर ब्याज भी नहीं देना पड़ता। अगर इस साल के नौ हजार करोड़ रुपये के लिए चीनी मिलों को बैंकों से कर्ज लेना पड़ता तो आप समझ सकते हैं कि ब्याज का कितना बोझ पड़ता।
वैसे, चीनी मिलों को 14 दिन के भीतर भुगतान न करने पर ब्याज देना होता है। इस मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ब्याज देने का आदेश भी दे दिया। राज्य सरकार के गन्ना आयुक्त कार्यालय ने इसकी गणना भी की। पूर्ववर्ती अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी सरकार के समय ब्याज की राशि दो हजार करोड़ रुपये को पार कर गई थी, लेकिन उस सरकार ने ‘जनहित’ में ब्याज माफ कर दिया था। मामला फिर अदालत में गया तो योगी सरकार को इस मुद्दे पर विचार करने का आदेश मिला। राज्य सरकार ने फैसला लटकाए रखा तो वीएम सिंह ने अदालत की अवमानना का केस दायर किया। इस पर राज्य सरकार ने मुनाफे और घाटे वाली चीनी मिलों के लिए ब्याज की दो दरें तय कीं। लेकिन ब्याज भुगतान पर अभी तक अमल नहीं किया है। अगर अमल हो जाता है तो चीनी मिलें ब्याज मुक्त पूंजी के इस बिजनेस मॉडल को छोड़कर किसानों को समय पर भुगतान करने पर मजबूर होंगी।
हालांकि इस फार्मूले को ईजाद करने में उन नेताओं की भूमिका कम नहीं है जो दिन-रात किसानों के हितैषी होने का दम भरते रहते हैं। यह दीगर है कि पिछले कुछ बरसों में गन्ना मूल्य में बढ़ोतरी और समय पर भुगतान के लिए किसान आंदोलन अब नहीं दिखते जो सरकारों पर दबाव बना सकें। शायद किसान भी अब किसान होने की बजाय धर्म और जाति के खांचे में ज्यादा फिट हो गया है। ऐसे में जायज हक की बात का कम होना स्वाभाविक है।