जलवायु संकट का बोझ किसानों पर मत डालिएः प्रो. ग्लेन डेनिंग

कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. ग्लेन डेनिंग का मानना है कि कृषि में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सिर्फ किसानों से यह नहीं कह सकते कि ऐसा मत करो। इसके लिए उन्हें उचित मुआवजा भी मिलना चाहिए। किसान मुख्य रूप से अपनी आय से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। यही उनकी प्रेरणा शक्ति है।

प्रो. ग्लेन डेनिंग के साथ बात करते रूरल वॉयस के एडिटर-इन-चीफ हरवीर सिंह।

वैश्विक खाद्य सुरक्षा और सतत विकास पर अपने कार्यों के लिए प्रसिद्ध अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. ग्लेन डेनिंग का मानना है कि कृषि में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सिर्फ किसानों से यह नहीं कह सकते कि ऐसा मत करो। इसके लिए उन्हें उचित मुआवजा भी मिलना चाहिए। किसान मुख्य रूप से अपनी आय से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। यही उनकी प्रेरणा शक्ति है। ‘यूनिवर्सल फूड सिक्योरिटी: हाउ टू एंड हंगर वाइल प्रोटेक्टिंग द प्लैनेट’ पुस्तक के लेखक प्रो. डेनिंग का कहना है कि दुनिया का आधा खाद्य उत्पादन उर्वरकों पर निर्भर है, इसलिए इनका इस्तेमाल अचानक बंद नहीं किया जा सकता। रूरल वॉयस के एडिटर-इन-चीफ हरवीर सिंह के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और पुनर्योजी (रीजेनरेटिव) खेती की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इन्हें वे संगठन परिभाषित करते हैं जो अपने विचारों को बढ़ावा देकर इससे लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। बातचीत के मुख्य अंशः-

डॉ. ग्लेन, आप वैश्विक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और कृषि में सतत विकास की चुनौतियों को कैसे देखते हैं? वर्तमान जलवायु परिस्थितियों, छोटी होती जोत और भू-राजनीतिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए, आप इन समस्याओं को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए कौन सी रणनीति को उपयुक्त मानते हैं?
सबसे पहले इसे एक व्यापक दृष्टिकोण से देखते हैं। कृषि का उद्देश्य क्या है? कृषि का उद्देश्य 10,000 वर्षों से मुख्य रूप से खाद्य सुरक्षा रहा है। हम खाद्य सुरक्षा के लिए भोजन का उत्पादन कर रहे हैं। समय के साथ किसान कॉमर्शियल होते गए। उन्होंने बाजारों में भाग लेना शुरू किया। वे सरप्लस उत्पादन करने लगे जिससे शहरों का विकास संभव हुआ। इसने हमें मैन्युफैक्चरिंग और अन्य चीजों में विशेषज्ञता हासिल करने में सक्षम बनाया। इसलिए आप और मैं अब किसान नहीं हैं।
दुनिया की जनसंख्या अब 8 अरब से अधिक हो गई है। भारत की जनसंख्या 1.45 अरब है। तो चुनौती यह है कि हम इतने लोगों को बिना पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए कैसे पोषण प्रदान करें। क्योंकि अगर हम उन्हें अभी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हुए पोषण देंगे तो हम भविष्य में पोषण प्रदान नहीं कर पाएंगे। 
दूसरी तरफ जनसंख्या बढ़ रही है। दुनिया की आबादी 2050 तक लगभग 10 अरब हो जाएगी। हमारी खान-पान की शैली भी बदल रही है। हम अब अधिक पशुधन उत्पाद, बागवानी उत्पाद और समुद्री खाद्य पदार्थ उपभोग कर रहे हैं। इन सबका बोझ अंततः किसानों पर आता है। 
करीब 30 वर्षों में हमारी कृषि प्रणाली जलवायु से प्रभावित हुई है। जलवायु गर्म होगी तो प्रतिकूल मौसम की घटनाएं होंगी। तटीय क्षेत्र अधिक खारा हो सकता है, सूखे और बाढ़ की आशंका बढ़ सकती है। हम अब भी हर किसी के लिए टिकाऊ और स्वस्थ आहार प्राप्त नहीं कर रहे हैं, भविष्य की तो बात ही छोड़ दीजिए। इसलिए निश्चित रूप से हमारे सामने संकट है। वैश्विक स्तर पर मैंने अनुमान लगाया है कि दुनिया की आधी आबादी को स्वस्थ आहार नहीं मिलता है।
भारत में हमने हरित क्रांति की सफलता को देखा है। इसने 1960 के दशक में आयात पर निर्भर भारत को अब दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक बना दिया। इस अवधि में भारत की जनसंख्या 50 करोड़ से बढ़कर 145 करोड़ हो गई। इतनी आबादी के बाद भी सबसे बड़ा चावल निर्यातक बनना एक असाधारण उपलब्धि है। पिछले साल जब सरकार ने गैर-बासमती चावल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया, तो इसे अफ्रीका, फिलीपींस और इंडोनेशिया समेत दुनिया भर में महसूस किया गया। इस तरह भारत विशेष रूप से अनाज के संदर्भ में न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण स्थिति में आ गया है।

-एक खाद्य आयातक देश से दुनिया का सबसे बड़ा चावल निर्यातक बनने का श्रेय किसे देंगे, हरित क्रांति को?
बिल्कुल। लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि यह उन्नत तकनीकों का एक संयोजन है, जिसमें मुख्य रूप से तीन चीजें शामिल हैं। एक तो उन्नत किस्में और नई प्रजातियां, दूसरा आईसीएआर (ICAR) और आईएआरआई (IARI) जैसी संस्थाओं का योगदान और तीसरा, उर्वरकों का उपयोग और सिंचित क्षेत्रों का विस्तार। इन तीनों को मिलाकर तकनीकी क्षमता तैयार होती है। लेकिन जो चीज हरित क्रांति के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी, वह यह कि सरकार ने भी इनपुट, क्रेडिट, बाजार और समर्थन मूल्य के माध्यम से इसमें भूमिका निभाई। हालांकि इस संदर्भ में भारत अनोखा नहीं था। यही स्थिति इंडोनेशिया, फिलीपींस, वियतनाम और यहां तक कि चीन में भी थी। 
कभी-कभी इसे इसलिए आलोचना का सामना करना पड़ता है कि इसे सरकार का बहुत अधिक समर्थन था। लेकिन ऐसा क्यों था? बुनियादी खाद्य पदार्थों की सुरक्षा समाज की स्थिरता निर्धारित करती है। अगर खाद्य कीमतें अचानक दोगुनी हो जाएं तो अराजकता फैल सकती है, और कोई भी समाज ऐसा नहीं चाहता। यही कारण है कि विशेष रूप से एशियाई देशों में खाद्य सुरक्षा पर नेतृत्व का बहुत मजबूत फोकस रहा है। दिसंबर 2022 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कृषि को खाद्य सुरक्षा के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा घोषित किया। यही कारण है कि यह उनकी प्राथमिकता सूची में ऊंचे स्थान पर है।
हरित क्रांति के सबसे बड़े प्रभावों में एक था खाद्य कीमतों की स्थिरता। मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्रों से जुड़े शहरी श्रमिकों के लिए अपेक्षाकृत कम और स्थिर खाद्य कीमतें बनाए रखने के कारण एशिया अन्य क्षेत्रों की तुलना में प्रतिस्पर्धी बना हुआ है। हरित क्रांति के जनक प्रो. एमएस स्वामीनाथन मेरे मार्गदर्शक भी रहे हैं। 1982 से 1988 तक मुझे अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (IRRI) में उनके साथ काम करने का मौका मिला। भारत में जन्मे कई विचारों को हम दुनिया के अन्य हिस्सों में भी ले गए। मुझे लगता है कि जब नेतृत्व, संस्थान, तकनीक और नीतियां एक साथ आती हैं तो बड़े बदलाव हो सकते हैं।

-बड़ी मात्रा में अनाज उत्पादन और मुफ्त अनाज वितरण के बावजूद भारत हंगर इंडेक्स में निचले स्थान पर क्यों है? सबके लिए पोषक और स्वस्थ भोजन सुनिश्चित करने में हम क्यों संघर्ष कर रहे हैं?
अनाज मुख्य रूप से हमें कैलोरी प्रदान करते हैं। भारत ने इसमें बड़ी सफलता हासिल की है। लेकिन हंगर इंडेक्स में मुख्य फोकस पोषण पर है। कैलोरी हमारे पोषण का सिर्फ एक हिस्सा है। संतुलित आहार में प्रोटीन, सूक्ष्म पोषक तत्व और खनिजों की आवश्यकता होती है। केवल कैलोरी पर जीवित रहना पर्याप्त नहीं है। अन्य तत्वों की कमी से स्टंटिंग की समस्या हो सकती है।
कुछ मुद्दे हैं। पहली बात जिसे दक्षिण एशिया या भारत का रहस्य भी कहा जाता है, वह यह है कि समग्र आर्थिक विकास भारत में बहुत अच्छा चल रहा है, देश अनाज का निर्यातक बन गया है, फिर भी स्टंटिंग का स्तर इतना अधिक क्यों है? पांच साल से कम उम्र के बच्चे अपनी आयु के हिसाब से छोटे कद के रह जाते हैं। स्टंटिंग से जुड़े कुपोषण से शरीर में प्रतिरक्षा कम होती है। ऐसे बच्चे शिक्षा समेत किसी भी मामले में कभी अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं कर पाते। इनकी कमी से बच्चों की मौत नहीं होगी, लेकिन उनकी क्षमता कम हो जाएगी। भारत में स्टंटिंग का वर्तमान स्तर लगभग 36% है, जो दुनिया में सबसे उच्च स्तरों में से एक है। यह हंगर इंडेक्स का एक प्रमुख घटक है।

-क्या आपको लगता है कि भारत दो अलग देशों की तरह बढ़ रहा है? एक ऐसा भारत जो गांवों में बसता है, कृषि पर निर्भर है, और जहां आय 10,000 रुपये प्रति माह से भी कम है। दूसरा, एक उभरता हुआ मध्य वर्ग और संपन्न पेशेवर, जो वैश्विक लक्जरी ब्रांडों को आकर्षित कर रहा है। एक भारत फल-फूल रहा है तो दूसरा पीछे छूट रहा है। यहां आप कौन सी नीतिगत विफलता देखते हैं? क्या हमारे नीति निर्माता अब भी इसे नकार रहे हैं?
प्रो. स्वामीनाथन मुझसे कहते थे, विशेषज्ञ आपको भारत के बारे में जो भी बताते हैं, उसका विपरीत भी सच है। यही बात आप कह रहे हैं। मैं कहूंगा कि यहां दो नहीं, बल्कि कई भारत हैं। यहां अत्यधिक गरीबी भी है और अत्यधिक धन भी, लेकिन इनके बीच में भी बहुत कुछ मौजूद है।
यहां मैं फिर स्टंटिंग की बात कहूंगा, जिसमें भारत ने वास्तव में कुछ प्रगति की है। पिछले 20 वर्षों में यह 48% से घटकर लगभग 36% पर आ गया है। लेकिन 36% को भी राष्ट्रीय त्रासदी के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि एक-तिहाई बच्चे जीवन की शुरुआत में ही पिछड़ रहे हैं। इस मुद्दे को राष्ट्रीय नीति में उच्चतम स्तर पर उठाया जाना चाहिए।
कुपोषण कम करना वास्तव में रॉकेट साइंस जैसा है। इसके लिए विशेषज्ञता और प्रयास दोनों की आवश्यकता होती है। हमें पता है कि कुपोषण को कैसे कम किया जा सकता है। दुनिया के कई देशों ने इसे कम करने में सफलता प्राप्त की है। ब्राजील इसका शानदार उदाहरण है। यहां तक कि भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश और नेपाल इसमें काफी सफल रहे हैं। इंडोनेशिया, वियतनाम और अफ्रीका के कई देशों ने कुपोषण स्तर को आधा कर दिया है। इसके लिए कई कारकों का संयोजन जरूरी है। इसका कोई एकमात्र समाधान नहीं है।
इसके लिए आहार में विविधता, स्तनपान और पोषण में अनुपूरण (सप्लीमेंटेशन) भी महत्वपूर्ण हैं। परिवारों के बीच असमानता के साथ यह भी अहम है कि अनेक घरों में महिलाएं और बच्चे पोषक भोजन से वंचित रहते हैं। इन सबके पीछे सबसे बड़ा कारण गरीबी है। यदि लोग गरीब हैं, तो वे केवल गेहूं-चावल जैसे बुनियादी अनाज ही खरीद सकते हैं। दालें हमेशा अनाज से महंगी होती हैं। दूध और अंडे जैसे पशु उत्पाद महंगे होते हैं। फल तो सभी महंगे होते ही हैं।
यदि आपके पास पैसा नहीं है, तो यह मायने नहीं रखता कि मैं आपको कितना समझाऊं कि यह आपके और बच्चों के आहार के लिए बेहतर है। आपकी अधिकांश आय चावल या गेहूं पर ही खर्च हो जाती है। इसलिए मुझे लगता है कि गरीबी दूर करने के लिए गंभीर प्रयास करना बहुत जरूरी है। सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम इस अंतर को कम करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कुछ अच्छे कार्यक्रम चल रहे हैं, जैसे लक्षित खाद्य वितरण। आप कह सकते हैं कि यह अक्षम है, पर्याप्त रूप से लक्षित नहीं है, लेकिन मैं आपको बताना चाहूंगा कि दुनिया के अनेक हिस्सों में यह भी नहीं है। इसलिए सवाल है कि हम इन कार्यक्रमों को बेहतर कैसे बना सकते हैं, मध्याह्न भोजन कार्यक्रम को अधिक प्रभावी और पोषक कैसे बना सकते हैं, स्कूल प्रणाली में पोषण को कैसे शामिल कर सकते हैं।
यह काफी जटिल है। इसलिए हमें कई मोर्चों पर काम करना होगा। यह केवल ICAR और कृषि मंत्रालय का काम नहीं है। सभी संबंधित मंत्रालयों को एक साथ काम करना होगा। इसका मतलब है कि उच्चतम स्तर पर, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री को यह कहना होगा कि यह हमारे भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

-अब वैज्ञानिक हरित क्रांति 2.0 या 3.0 की आवश्यकता पर चर्चा कर रहे हैं। आज की कृषि चुनौतियों के बारे में दस साल पहले किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया था। अचानक सूखा, बाढ़, बढ़ता तापमान और इस साल की गेहूं की खराब फसल इन समस्याओं को उजागर करती है। ये सस्टेनेबिलिटी की प्रमुख चुनौतियां हैं। आगे कैसे बढ़ा जाए?
मेरा मानना है कि हम अनुसंधान और विकास में कम निवेश कर रहे हैं। आपको लग सकता है कि भारत में बहुत सारे पीएचडी हैं। लेकिन हमें अनुसंधान और विकास, खासकर लचीलापन (रेजिलियंस) निर्माण पर अधिक निवेश करने की जरूरत है। हम सूखा और बाढ़ दोनों झेलते हैं। हमें बेहतर तकनीक विकसित करनी होगी जो इन परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगा सके। हमें विविधता लाने की जरूरत है। हमें दलहन और कुछ अन्य अनाजों की उत्पादकता में सुधार के लिए अधिक धन खर्च करने की आवश्यकता है। वे कभी चावल और गेहूं की जगह नहीं ले सकते, लेकिन वे देश के कुछ क्षेत्रों में अब भी महत्वपूर्ण हैं। हमने इन फसलों में इतना निवेश करने की कभी नहीं सोची।
मेरा मानना है कि पहली हरित क्रांति मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालित थी। अब हमें निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी के साथ अधिक अवसरों की तलाश करनी होगी, उन्हें इस राष्ट्रीय मिशन का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। मुझे लगता है कि परिवहन, विद्युतीकरण जैसा बुनियादी ढांचा महत्वपूर्ण होने वाला है। हमारे पास जानकारी है। हम निश्चित रूप से सुधार कर सकते हैं।
जैसा डॉ. स्वामीनाथन कहते थे, आपको ज्ञान (know-how) और क्रियान्वयन (do-how) का संयोजन चाहिए। मुझे लगता है कि क्रियान्वयन थोड़ा पीछे रह गया है। मैंने अपनी किताब लिखते समय इस पर बहुत समय बिताया। मैंने सिर्फ यह नहीं कहा कि यह करो या वह करो, बल्कि यह कि आप वास्तव में इसे कैसे करते हैं? आप कैसे इस तरह के कार्यक्रम तैयार करें जो किसानों को अलग तरीके से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करें और उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच मजबूत संबंध बनाएं?
हम एक और समस्या का सामना कर रहे हैं। इसे पोषण की दोहरी समस्या कहा जाता है। मैंने ज्यादातर समय कुपोषण के बारे में बात की है। कुपोषण का एक और रूप है पोषक तत्वों का अत्यधिक सेवन। यह मोटापा और अधिक वजन की महामारी पैदा कर रहा है। यह हमें मधुमेह, हृदय रोग, कैंसर और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं की ओर ले जा रहा है। इसलिए यह भी चर्चा का हिस्सा होना चाहिए। आपको केवल पोषक तत्वों की कमी दूर करने की आवश्यकता नहीं, बल्कि शुगर, नमक, वसा की अधिकता को भी कम करना होगा। 
सस्टेनेबिलिटी एक और कारक है जिसे प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। भारत के कई हिस्सों में पानी का अत्यधिक दोहन हो रहा है और जल स्तर नीचे जा रहा है। इन बातों को उजागर करने की जरूरत है।
आप केवल किसान से यह नहीं कह सकते कि इसे मत करो। आपको ऐसा प्रोत्साहन तंत्र बनाना होगा जिससे वे ऐसा न करें। लोगों और किसानों को अधिक टिकाऊ प्रणालियों की ओर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना होगा।
भारत, ऑस्ट्रेलिया या कोई अन्य देश, मैं जहां भी गया हूं एक बात सही है कि किसान मुख्य रूप से अपनी आय से प्रेरित होकर कार्य करते हैं। कोई भी किसान यह सोचकर व्यवहार नहीं बदलेगा कि आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा या जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ेगा। इसलिए सरकारों को कदम उठाने की जरूरत है, इन पर्यावरणीय मुद्दों को देखना चाहिए और क्षरण को कम करना चाहिए।

-हाल में भारत सरकार ने प्राकृतिक खेती पर काफी जोर दिया है। दो साल का नेचुरल फार्मिंग मिशन भी शुरू किया गया। आप प्राकृतिक खेती की इस पहल को कैसे देखते हैं? क्या आपको लगता है कि यह व्यावहारिक और वास्तव में संभव है?
यदि कोई मुझसे प्राकृतिक खेती करने की बात कहेगा तो मैं पूछूंगा कि प्राकृतिक खेती से आपका मतलब क्या है। अगर उसका जवाब पुनर्योजी (रिजेनरेटिव) खेती है तो मैं फिर पूछूंगा कि पुनर्योजी खेती से आपका क्या मतलब है। उसका जवाब मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार, फसलों के पोषण में सुधार और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करना हो सकता है। मुझे लगता है कि यह अच्छी कृषि है। हमें वह सब करना चाहिए। लेकिन अगर उसका जवाब है कि कोई बाहरी इनपुट का इस्तेमाल नहीं करना या बहुत कम इस्तेमाल करना, तो मैं कहूंगा कि इससे आपका क्या मतलब है? उसका जवाब हो सकता है- कोई आनुवंशिक संशोधन नहीं, कोई जीएमओ नहीं, कोई जीनोम संपादित फसलें नहीं क्योंकि यह प्राकृतिक नहीं है।
उर्वरकों को अनेक संगठन प्राकृतिक नहीं मानते, लेकिन दुनिया का आधा खाद्य उत्पादन उर्वरकों की मदद से ही होता है। अगर हम प्राकृतिक खेती की ओर बड़े पैमाने पर चले गए तो परिणाम शायद बुरे होंगे। हमने देखा कि श्रीलंका में क्या हुआ। उन्होंने उर्वरकों का आयात बिल्कुल बंद कर दिया था। तत्काल उत्पादन इतना कम हो गया कि सड़कों पर दंगे हो गए। लोग भूखे मर रहे थे। जल्दी ही सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा। 
दरअसल यह तरीका काम नहीं करेगा। यह वास्तव में बकवास है। आप इसे स्थानीय स्तर पर कर सकते हैं और कह सकते हैं, “मेरे पास एक ऑर्गेनिक फार्म है, और मैं इसके प्रोडक्ट ताज पैलेस रेस्तरां को बेच रहा हूं।” आप इससे पैसे भी कमा लेंगे क्योंकि अमीर लोग इसे पसंद करते हैं। इस पर उन्हें आय का ज्यादा हिस्सा खर्च नहीं करना पड़ता है। वे इसे खुशी-खुशी करेंगे। लेकिन यह तरीका काम नहीं करेगा। इसलिए हमें उर्वरकों की जरूरत है।

-हम जैविक खेती, प्राकृतिक खेती और पुनर्योजी खेती पर चर्चा कर रहे हैं। क्या आप इन तीनों के बीच अंतर को स्पष्ट कर सकते हैं?
सबसे पहले, इनमें से किसी की भी स्पष्ट परिभाषा नहीं है। इन्हें वे संगठन परिभाषित करते हैं जो खास तरह के विचारों को बढ़ावा दे रहे हैं। जब आप इस तरह विचारों को बढ़ावा देते हैं, तो इसके पीछे लाभ होता है। मैं किसी राष्ट्रीय संगठन का नाम नहीं लूंगा, लेकिन ग्रीनपीस का नाम लूंगा। ग्रीनपीस ने लंबे समय से किसी भी प्रकार के आनुवंशिक संशोधन को खारिज किया है। व्हेल और बाघों को बचाने जैसे काम ग्रीनपीस अद्भुत करता है। 
लेकिन जब वे जीएमओ के खिलाफ बोलते हैं तो वहां समस्या है। एक जीएमओ है गोल्डन राइस। यह ऐसा चावल है जिसमें विटामिन ए उच्च मात्रा में होता है। इसे पर्याप्त मात्रा में खाया जाए तो विटामिन ए की कमी दूर हो सकती है, बच्चों में अंधापन और मौत की आशंका कम कर सकता है। इसे खारिज करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। कुछ लोग कह सकते हैं कि इससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ होगा। लेकिन नहीं, यह पूरी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र में है। लेकिन अधिकांश देशों को यह मानने पर मजबूर किया गया है कि यह जोखिम भरा है। जो लोग ये फैसले ले रहे हैं उनके बच्चे विटामिन ए की कमी के कारण अंधे नहीं हो रहे हैं। 
इसलिए मेरी राय है कि हमें नीति निर्माताओं को ये बातें समझाने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए ताकि उन्हें इसके संभावित लाभों की जानकारी मिल सके। साथ ही यह भी समझा जा सके कि निष्क्रियता के जोखिम और नुकसान क्या हैं।

-डॉ. गुरदेव खुश इससे जुड़े हुए थे...।
हां, वे सुधारों के अगुवा रहे हैं। भारत के पास दुनिया के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक हैं। जैसे कि आईआरआरआई (IRRI) में पौधों के प्रजनन विभाग को भारतीय वैज्ञानिकों ने चलाया है। यह एक त्रासदी है कि वे अपने देश में वापस आकर आनुवंशिक संशोधन जैसा काम नहीं कर सकते हैं। हमें प्रौद्योगिकी का लोकतंत्रीकरण करना होगा।
अमेरिकी और ऑस्ट्रेलियाई किसानों की मशीनरी, डिजिटल तकनीक, मौसम के पूर्वानुमान, अपने क्षेत्रों में पोषक तत्वों और पानी आदि से संबंधित जानकारी तक अच्छी पहुंच है। उन्हें फसलों की ऐसी किस्में मिलती हैं जो अच्छी तरह से अनुकूलित हैं। लेकिन यह सब केवल उच्च आय वाले देशों में अपेक्षाकृत बड़े किसानों के लिए उपलब्ध क्यों है? हमें इसका लोकतंत्रीकरण करना होगा। यह एक नैतिक मुद्दा भी है। हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि छोटे किसानों भी इनका इस्तेमाल कर सकें। छोटे किसानों का भविष्य ऐसी टेक्नोलॉजी से ही बेहतर होगा।

-जलवायु परिवर्तन सस्टेनेबल कृषि और खाद्य सुरक्षा किस प्रकार का खतरा उत्पन्न करता है?
जलवायु परिवर्तन से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण तापमान बढ़ता है। यह सूखा, बाढ़, समुद्र का जलस्तर बढ़ने और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है। वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि इनसे कृषि उत्पादकता और उत्पादन प्रभावित होगी। 
हमारी कृषि प्रणाली बहुत संवेदनशील है। भारत में वर्षा पर निर्भर किसानों सिंचाई संपन्न किसानों की तुलना में अधिक संघर्ष करना पड़ेगा। मुझे लगता है कि सिंचाई वाले किसानों के पास अधिक विकल्प होते हैं, और वे अधिक समृद्ध भी होते हैं। इसलिए वे अपनी उत्पादन विधि को बदलने का खर्च उठा सकते हैं। वर्षा पर आश्रित किसान, विशेष रूप से पूर्वी भारत में, इस प्रकार के झटकों से अधिक प्रभावित होंगे।
इसलिए एक आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसका एक और पहलू यह है कि कृषि भी जलवायु परिवर्तन में योगदान करती है। संपूर्ण खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक-तिहाई योगदान करती है। इसलिए कृषि क्षेत्र को समाधान भी तलाशना होगा। लेकिन मैं फिर वही कहूंगा, हम किसानों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे बिना किसी क्षतिपूर्ति के विश्व की समस्या को हल करने में मदद करें। हमें किसानों की मदद करने की जरूरत है। यदि किसान कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए खेती का तरीका बदलते हैं, तो उन्हें उन सभी से क्षतिपूर्ति भी मिलनी चाहिए, जो इससे लाभान्वित होने वाले हैं।