भारतीय कृषि अस्तित्व के संकट से गुजर रही है। पूरा ग्रामीण क्षेत्र सामाजिक और पर्यावरण की चुनौतियों से घिरा है। हालांकि सड़क और स्वच्छता जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर और मोबाइल फोन के क्षेत्र में स्पष्ट सुधार भी हुए हैं। आप पूछ सकते हैं, तो क्या यह विरोधाभास है? जवाब है, ‘हां’। इस जवाब का आधार है किसान संगठनों, सिविल सोसायटी, नीति निर्माताओं और मार्केट इंटरमीडियरी जैसे स्टेकहोल्डर के साथ छह महीने तक हुई चर्चा। यह चर्चा नई दिल्ली या अन्य महानगरों में नहीं, बल्कि विविध कृषि-जलवायु, आर्थिक शक्ति और फसल पैटर्न वाले पांच राज्यों के छोटे शहरों में हुई। हमारे निष्कर्ष आपको कृषि की हकीकत से अवगत कराएंगे। यह नई दिल्ली अथवा किसी प्रदेश की राजधानी में बैठे ब्यूरोक्रेट के आकलन के विपरीत हो सकता है, लेकिन यह ग्रामीण क्षेत्र के समग्र विचार को प्रदर्शित करता है, जिसे एक प्रभावी नीतिगत हस्तक्षेप और राजनीतिक मदद की दरकार है।
अगर आप नई दिल्ली में किसी वरिष्ठ सरकारी अधिकारी से बात कीजिए तो वे आपको बताएंगे कि नई सड़कों के निर्माण, बिजली कनेक्शन, घर और टॉयलेट बनाने जैसे क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। वे आपको यह भी बता सकते हैं कि ग्रामीण इलाकों में मोबाइल फोन अब आम हो गए हैं तथा वहां हर तरह के सामान और सेवाओं का बाजार बढ़ रहा है।
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वास्तव में ग्रामीण भारत ने अनेक बदलाव देखे हैं। सड़क, बिजली जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर तथा विभिन्न सेवाओं तक पहुंच निश्चित रूप से बेहतर हुई है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों की योजनाओं को श्रेय दिया जाना चाहिए। लेकिन ये भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर सुविधाएं गांव और छोटे शहरों में रहने वालों की बढ़ती आकांक्षाओं की ओर भी इशारा करती हैं। उनकी आकांक्षाएं शहर वासियों के समान हैं, भले ही ग्रामीण क्षेत्र के केंद्र ‘कृषि’ के सामने अपने हाल पर छोड़ दिए जाने का जोखिम है। हालांकि ग्रामीण भारत की आकांक्षाएं सही और अमल में लाने योग्य हैं। बशर्ते इसके लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति हो तथा भ्रष्टाचार की समस्या के साथ प्रभावी तरीके से निपटा जाए।
देशभर में हमारी चर्चा में कृषि क्षेत्र के लिए जो जोखिम उभर कर सामने आए, उनमें कर्ज का बढ़ता स्तर, श्रमिकों की मजदूरी समेत बढ़ती इनपुट लागत, नकली कीटनाशकों की बेरोकटोक बिक्री, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, उपज की उचित कीमत न मिलना और राजनीतिक उदासीनता शामिल हैं।
राजस्थान के जोधपुर में बालोतरा, बाड़मेर, जैसलमेर, सीकर, नागौर तथा अन्य जिलों से आए लोगों से जब हमने सवाल किया कि “2030 में आपका गांव का सपना क्या है,” तो उनका जवाब था, “प्लास्टिक मुक्त, पर्यावरण युक्त, नशा मुक्त, वाई-फाई युक्त। परिवहन सुविधा सहित, प्रदूषण रहित, 24 घंटे बिजली और एक स्टेडियम हो जिसमें लड़के, लड़कियां, महिलाएं रोज दौड़ें। आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं हों और कृषि संबंधी जानकारी विज्ञान के आधार पर मिले।”
एक अन्य प्रतिभागी ने कहा, “हमारे गांव हरे-भरे हों, जल स्रोत पर्याप्त और शुद्ध हो। साफ-सुथरे गांव हों, प्लास्टिक मुक्त हो, विद्यालयों में लड़के-लड़कियों की संख्या खूब बड़ी हो, खास कर सरकारी संस्थानों में।”
गांवों में रहने वालों का एक सपना है। वे अपने गांव में शहरों के समान सुविधाएं चाहते हैं। वे भी बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली आदि की उम्मीद रखते हैं जिनसे जीवन आसान हो। लेकिन शांतिपूर्ण और प्रदूषण मुक्त ऐसा गांव जहां सबके पास काम हो, हकीकत से काफी दूर है। ग्राम्य जीवन काफी बदल गया है। अनेक ग्रामीण क्षेत्र अब भी निरंतर बिजली, अच्छी सड़कें, साफ पानी, क्वालिटी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं से महरूम हैं। लोग संघर्ष कर रहे हैं तथा अधिकतर के लिए खेती मुनाफे का काम नहीं रह गया है। ना आमदनी के लिहाज से, ना सामाजिक स्टेटस के लिहाज से। यही नहीं, ग्राम वासी जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जीवन शैली से पनपने वाली बीमारियों, बेरोजगारी, ड्रग्स जैसी नई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। एक समय यह समस्याएं शहरों की हुआ करती थीं, गांवों की नहीं।
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मीडिया संस्थान रूरल वॉयस, जो रूरल वर्ल्ड का साझा पब्लिकेशन भी है, और गैर-लाभकारी संस्था सॉक्रेटस ने ग्रामीण भारत के नागरिकों की चुनौतियों और आकांक्षाओं को सुनने-समझने के लिए उनके साथ अपनी तरह की पहली अखिल भारतीय सम्मेलन श्रृंखला शुरू करने का फैसला किया। इसके पीछे दो मुख्य कारण थे। पहला, ग्रामीण क्षेत्रों को अक्सर मुख्यधारा के विमर्श में हाशिए पर रखा जाता है। खबरों में किसान आत्महत्या, मिलावटी शराब या मध्याह्न भोजन योजना पर बहस को छोड़ दें तो ग्रामीण क्षेत्र की बातों को शायद ही जगह मिलती है। ऐसे देश में जहां आधी से अधिक आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में बसी है, यह बेमेल बड़ा अविश्वसनीय लगता है। दूसरा कारण इंटरनेट और बेहतर बुनियादी ढांचे के साथ ग्रामीण परिदृश्य में पिछले 15 वर्षों में हुए बड़े बदलावों से संबंधित है।
इन सम्मेलनों के माध्यम से, सॉक्रेटस और रूरल वॉयस का उद्देश्य ग्रामीण भारत की वर्तमान मनःस्थिति को समझना और वहां उठाए गए मुद्दों पर चर्चा शुरू करना था। इस लेख का उद्देश्य उन लोगों के विचारों और भावनाओं को ईमानदारी से प्रतिबिंबित करना है जिनसे हमने उनके जीवन, उनकी समस्याओं, आशाओं और उज्जवल भविष्य के सपनों के बारे में बात की।
हमारे इस कार्य में देश के 5 राज्यों के लोगों का प्रतिनिधित्व है। यह 5 क्षेत्रों में विविधता को दिखाने का प्रयास है- उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और उत्तर-पूर्व। हमने उत्तर-पूर्व पर विशेष ध्यान दिया है। यहां की कम आबादी, विशिष्ट सांस्कृतिक विविधता और दूरी को देखते हुए, इसे अक्सर राष्ट्रीय संवाद से बाहर रखा जाता है। हालांकि, हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारत विशाल और विविधतापूर्ण देश है। परंतु हम हर क्षेत्र या व्यक्ति के दृष्टिकोण को शामिल नहीं कर सकते थे। इसलिए हमने भारत के हर क्षेत्र से पांच राज्यों को चुना। प्रत्येक राज्य में हमने एक स्थानीय संगठन के साथ साझेदारी की, जिसने वहां की आबादी का व्यापक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने में हमारी मदद की।
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हमारे सम्मेलन पांच जगहों पर थे। प्रत्येक स्थान पर हमने आसपास के 10-12 जिलों के लोगों के साथ बैठक की। ये स्थान थे भुवनेश्वर (ओडिशा), कोयंबटूर (तमिलनाडु), जोधपुर (राजस्थान), मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) और शिलांग (मेघालय)। ये राज्य सांस्कृतिक, आर्थिक, कृषि-जलवायु और राजनीतिक रूप से भिन्न हैं।
हमारे स्थानीय साझेदार थे- ओडिशा में लाइवलीहुड ऑस्टरनेटिव्स इन ओडिशा, तमिलनाडु में टीएनएफपीए (तमिलनाडु फार्मर्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन) और एफएमआईएफ (फार्मर्स मर्चेंट्स इंडस्ट्रियलिस्ट्स फेडरेशन), राजस्थान में साउथ एशिया बायोटेक्नोलॉजी सेंटर, उत्तर प्रदेश में किसान प्रतिनिधि उमेश पंवार, नरेंद्र पाल वर्मा व धर्मेंद्र मलिक और मेघालय में नेसफास (नॉर्थ ईस्ट सोसायटी फॉर एग्रोइकोलॉजी सपोर्ट)। उनकी मदद से हम 60 जिलों से 300 से अधिक प्रतिभागियों को साथ लाने में सफल रहे।
सम्मेलन में विभिन्न पेशे के लोगों ने भाग लिया। उनमें किसान, स्थानीय व्यापारी और व्यवसायी, स्वयं सहायता समूहों के सदस्य, स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधि, स्थानीय सरकारी अधिकारी, मजदूर और प्रवासी, कॉलेज छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता और सेवा क्षेत्र के पेशेवर शामिल थे। सम्मेलन में यह सुनिश्चित भी किया गया कि सभी लिंग और सामाजिक समूहों के लोग उपस्थित हों।
कृषि के सामने आर्थिक सामाजिक और पर्यावरण संबंधी अस्तित्व का संकट
“किसान तो खुशहाल है ही नहीं, 100% किसान कर्जदार हुआ बैठा है।” - मुजफ्फरनगर का एक प्रतिभागी।
बीज से लेकर मजदूरी और ईंधन से लेकर कीटनाशक तक सभी इनपुट महंगे हो गए हैं। इन्हें बाजार से ही खरीदना पड़ता है। उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग साल दर साल बढ़ रहा है। किसानों को उनकी उपज की सही और समय पर कीमत नहीं मिल रही है। शामली के गन्ना किसानों की शिकायत है कि वर्षों से उनका भुगतान लंबित है। ओडिशा के एक सब्जी किसान का कहना है कि दूर बाजार तक पहुंचने के लिए उसके पास परिवहन और कोल्ड स्टोरेज की सुविधा नहीं है। यही शिकायत मेघालय के किसानों की है। तमिलनाडु के किसानों ने सभी फसलों के लिए समर्थन मूल्य की बात कही।
एक तरफ खेती की लागत बढ़ी है तो दूसरी तरफ इसमें जोखिम भी बढ़ा है। जलवायु परिवर्तन से मौसम असमान हो गया है जिसकी वजह से हीट वेव, असमय बारिश और कीटों के हमले होते हैं। जलवायु परिवर्तन पर चर्चा अब अभिजात वर्ग से निकलकर सबके बीच आ गई है। हर जगह इस विषय पर विस्तार से चर्चा हुई। चाहे गेहूं या धान हो, आम या गन्ना हो या फिर टमाटर हो, हर फसल पर जलवायु परिवर्तन का असर है और लोग असहाय दिख रहे हैं। मानव और पशु का संघर्ष देश के अलग-अलग हिस्से में अलग रूप में सामने आया। उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं की समस्या गंभीर नजर आई जिनकी वजह से किसान खेतों में ही सोने के लिए मजबूर हैं। ओडिशा और राजस्थान में भी पशु फसलों को बर्बाद कर रहे हैं। कोयंबटूर के आसपास हाथी जैसे जानवरों का अक्सर किसानों से सामना होता है।
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एक प्रतिभागी के अनुसार, “केमिकल का अत्यधिक प्रयोग गांव में सबसे ज्यादा बर्बादी का कारण है। केमिकल बहुत ज्यादा है, चाहे वह जमीन में हो, जानवरों में हो, इंसानों में हो, हर जगह केमिकल ही केमिकल है।”
हम लोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहर मुजफ्फरनगर में थे। पंजाब के साथ यह क्षेत्र भी भारत में हरित क्रांति के केंद्र में रहा है। लेकिन यहां भी किसान स्वयं उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल का मुद्दा सामने लेकर आए। इससे पता चलता है कि इनका प्रयोग कितना असंतुलित तरीके से हो रहा है। किसानों का कहना था-
“नकली पेस्टिसाइड आ गई है कोई चेकिंग नहीं है।”
“डीलर ट्रेड में लाला लोग बैठे हैं जिनको एग्रीकल्चर का एबीसीडी भी नहीं पता। वे हमें दवाइयां दे रहे हैं।”
अत्यधिक रसायनों के इस्तेमाल को लेकर आलोचना हर जगह दिखाई दी। आश्चर्यजनक रूप से प्राकृतिक खेती का नैरेटिव लोकप्रिय दिखा। लोगों का कहना था कि रसायनों से मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है, पानी प्रदूषित हो गया है, खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता गिर गई है, फसलों में गंभीर बीमारियां लगने लगी हैं और खर्च भी बढ़ गया है। किसान प्राकृतिक और नियमित खेती के नैरेटिव में फस गए हैं। हर साल होने वाले और कई बार अप्रत्याशित रूप से कीटों के हमले पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। खेती को सस्टेनेबल और खाद्य पदार्थों को सेहतमंद बनाने का विचार लगभग हर जगह दिखा, खासकर राजस्थान और ओडिशा में। मुजफ्फरनगर और कोयंबटूर में किसान ज्यादा प्राकृतिक की ओर जाना चाहते हैं, लेकिन वे पसोपेश में हैं कि यह सफल होगा या नहीं। अनेक लोगों के लिए यह जोखिम बहुत बड़ा है। कुल मिलाकर समाधान के लिए जो सुझाव आए उनमें नकली कीटनाशकों पर रोक, डीलरों का नियमन, किसानों को कृत्रिम इनपुट के संतुलित इस्तेमाल की जानकारी देना, ऑर्गेनिक खेती अपनाना और प्राकृतिक सॉयल सप्लीमेंट को अपनाना शामिल हैं। मेघालय के पश्चिमी खासी हिल्स के एक किसान का कहना था कि किसान होने के नाते उन्हें प्रकृति का ध्यान रखने की जरूरत है, और बदले में प्रकृति उनका ख्याल रखेगी।
आकांक्षाओं और वास्तविकता में अंतर से मजदूरों की कमी, बेरोजगारी और ड्रग्स की समस्या
जैसा एक प्रतिभागी का कहना था, “अगर बिहार के मजदूर न आएं तो आप खेती नहीं कर सकते। हमने खुद खेती करनी छोड़ दी है।” चाहे मुजफ्फरनगर हो या कोयंबटूर हर जगह किसानों की शिकायत है कि खेतों में काम करने के लिए मजदूर तलाशना बड़ा संघर्ष हो गया है। मजदूरी काफी बढ़ गई है। गांव के युवा भले ही खाली बैठे हों लेकिन वे खेतों में नहीं जाएंगे। इसलिए खेत मालिक अनेक मौकों पर प्रवासी मजदूरों पर ही निर्भर होते हैं।
“नरेगा को खेती में जोड़कर न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित की जाए। हमारे राजनीतिक तंत्र की सबसे बड़ी समस्या है मुफ्त में चीजें देना।” मजदूरों की समस्या से परेशान बागपत के एक किसान का कहना था कि कृषि मजदूरी को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह इस स्कीम से मजदूरी का एक हिस्सा भुगतान हो जाएगा। विभिन्न क्षेत्र के भू-स्वामी किसानों की राय थी कि तथाकथित मुफ्त वितरण बंद होना चाहिए। यह लोगों के काम करने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है।
एक किसान के अनुसार, “किसान से आजकल कोई शादी नहीं करता। बच्चे एसी में बैठना पसंद करते हैं।”
भारत में कृषि का भविष्य दुविधापूर्ण लगता है तो इसका कारण सिर्फ आर्थिक या पर्यावरण संबंधी चुनौतियां नहीं, बल्कि इससे गंभीर सामाजिक चुनौती भी जुड़ी हुई है। युवा खेती करना नहीं चाहते। खेती करने वालों को दुल्हन नहीं मिलती। समाज खेती को चुका हुआ मानने लगा है। उसे लगता है कि खेती में भविष्य अनिश्चित है, इसमें कोई कमाई नहीं। फसल खराब होने पर किसान के कर्ज में डूबने की आशंका बहुत अधिक है।
इसका परिणाम यह है कि परिवार की मदद से युवा उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। हालांकि गिने-चुने सरकारी पदों को छोड़ दें तो गांवों में अच्छी नौकरी कहीं नहीं है। खेती से इतर मैन्युफैक्चरिंग, सर्विसेज या लघु उद्योगों में रोजगार के अवसर भी बहुत कम हैं। इसके कई कारण हैं- ग्रामीण क्षेत्रों में सीमित क्वालिटी शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा का अभाव तथा ग्रामीण उद्योगों को आगे बढ़ाने के लिए कर्ज और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी। नतीजा- आकांक्षाओं और क्षमताओं से लबरेज युवक-युवतियां बेरोजगार हैं।
“गांव नशा मुक्त होना चाहिए, यह सब की प्राथमिकता है। नशा नहीं होना चाहिए और इसके प्रति युवाओं में जागरूकता बहुत जरूरी है।” - एक प्रतिभागी।
2016 में हिंदी फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ ने पंजाब में ड्रग्स की समस्या पर फोकस किया था। 2023 में ऐसा लगता है कि ड्रग्स का इस्तेमाल शहरी अभिजात वर्ग और पंजाब तक ही सीमित नहीं है। भुवनेश्वर हो या जोधपुर, हर जगह हमें यह सुनने को मिला कि समाज के हर वर्ग में बड़ी संख्या में युवा ड्रग्स ले रहे हैं।
शराब ग्रामीण इलाकों में लंबे समय से प्रमुख समस्या रही है। मेघालय, तमिलनाडु और ओडिशा में यह समस्या हमें अब भी सुनने को मिली। हालांकि ड्रग्स का पूरे देश में बढ़ता इस्तेमाल देख लगता है मुख्यधारा की मीडिया की नजरों में यह नहीं आया। गहरी समझ के अभाव में कोई इसके अलग-अलग कारण सोच सकता है। जैसे, क्या यह बेरोजगारी के कारण है, क्या यह इस वजह से है कि लोकप्रिय गाने और मीडिया इसे ‘कूल’ और स्वीकार्य बताने लगा है, या फिर ड्रग्स आसानी से मिलने लगे हैं? बेरोजगारी, सामाजिक संस्थाओं की कमी, लोगों की बढ़ती चाहत और उस हिसाब से ड्रग्स की उपलब्धता के कारण यह पूरे देश में महामारी की तरह फैल गई है।
ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर अब भी बुनियादी सेवाएं उपलब्ध कराने में असमर्थ
लोग अब भी अच्छी क्वालिटी के बुनियादी इन्फ्रास्ट्रक्चर का इंतजार कर रहे हैं। मेघालय के गारो, खासी और जैंतिया समुदाय के लोगों को अभी तक आने-जाने अथवा सामान ले जाने के लिए अच्छी सड़कें नहीं मिली हैं। रोड कनेक्टिविटी बढ़ी तो है, लेकिन वह अपर्याप्त है। जहां सड़क है वहां सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट नहीं है। यही स्थिति बिजली की है। ग्रामीण भारत में पूरे दिन बिजली की सप्लाई आज भी सपना है। आज के युग में इंटरनेट का लगातार कनेक्शन मिलना भी आवश्यक है।
राजस्थान के बालोतरा के एक किसान को अभी तक पीने के लिए साफ पानी का इंतजार है। देश के दूसरे छोर पर स्थित मेघालय के लोगों की भी यही स्थिति है, जो नल का कनेक्शन चाहते हैं। मुजफ्फरनगर में किसानों के पास पानी तो है, लेकिन उनकी चिंता भूजल में मिल चुके रसायनों और धातुओं के जहरीले प्रभाव को लेकर है।
गांव में शिक्षा की बात आती है तो अक्सर लोगों को लगता है कि वे पीछे छूट गए हैं। सरकारी और निजी स्कूलों के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। लोग अच्छी सार्वजनिक शिक्षा चाहते हैं, लेकिन जहां स्कूल है वहां शिक्षकों की संख्या पर्याप्त नहीं। सरकारी स्कूलों के बारे में धारणा है कि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकते।
अच्छी सेहत और स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत भी हर जगह लोगों में बढ़ती दिखाई दी। जीवन शैली से जुड़ी बीमारियां बढ़ने के साथ लोग बेहतर इलाज की मांग करने लगे हैं, लेकिन मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल गांव से काफी दूर हैं। स्थानीय स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर में अनेक खामियां हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र पर्याप्त नहीं और वहां दवाई और उपकरण भी नहीं मिलते। एक प्रतिभागी के अनुसार, “हम अपने गांव में स्वच्छ वातावरण चाहते हैं, वहां आराम करने की जगह हो, खेल का मैदान हो, व्यायाम करने की सुविधा हो।”
गांव में रहने वाली पुरानी पीढ़ी समाज में बदलाव को देख रही है। उन्हें लगता है कि लोगों में भाईचारा कम होता जा रहा है। युवा पीढ़ी हमेशा अपने फोन में लगी रहती है और वह गांव-परिवार से दूर हो गई है। खानपान और जीवन शैली बदलने के साथ युवाओं में मोटापे की बीमारी बढ़ रही है।
अक्सर अनियोजित तरीके से सड़कों और इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण होने से पेड़ काटे जा रहे हैं। वाहनों की संख्या और कचरा बढ़ता जा रहा है। लोगों के बैठने के लिए पहले जो खुली जगह हुआ करती थी, अब वह कहीं नहीं दिखती। अब लोग पेड़ के नीचे बैठकर जीवन और राजनीति की चर्चा नहीं करते। ऐसे स्थान की जरूरत है जहां लोग एकत्र हो सकें, आराम से बैठ सकें, बातें कर सकें तथा जहां युवा खेलकूद-व्यायाम कर सकें। एक स्थान सबके मनोरंजन का भी हो। गांव को पुनर्जीवित करने के लिए इस तरह के स्थान का निर्माण करना सबसे आसान और महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है।
चुनावी राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार
“सबसे पहले वादा यह हो कि वादा करने वाला वादा नहीं निभाए तो उसे कानूनन अपराध माना जाए और इसके लिए सजा का प्रावधान हो। क्योंकि वे वादा करते हैं, आप वोट देते हैं, वे चले जाते हैं फिर अगले 5 साल बाद आए ही नहीं तो बात ही खत्म हो गई।”
कोयंबटूर सम्मेलन में विभिन्न जिलों से आए ग्रामीण लोगों ने चुनावी राजनीति में धनबल और बाहुबल का मुद्दा उठाया। वहां एक व्यक्ति का कहना था कि कानून अभी सिर्फ किसानों को निशाना बनाता है। अगर कहीं भ्रष्टाचार सामने आता है तो सरकारी अधिकारी पर भी कार्रवाई होनी चाहिए।
भ्रष्टाचार के खिलाफ राजस्थान में भी तगड़ा माहौल दिखा। सम्मेलन में आए लोगों ने पैसे देकर और ‘मुफ्त’ का वादा करके मतदाताओं को लुभाने पर रोक लगाने की मांग की। वे चाहते हैं कि भ्रष्टाचारी नेताओं और आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगे। लोग जुमले सुनकर थक गए हैं। वे चाहते हैं कि उनका प्रतिनिधि जो वादे करके चुनाव जीता है, उन वादों को वह पूरा करे।
ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत अभी दूर का सपना है। प्रशासनिक कार्यों में भ्रष्टाचार भी एक बड़ा मुद्दा उभर कर सामने आया। ज्यादातर लोगों का कहना था कि स्थानीय प्रशासन में भ्रष्टाचार उनके गांव की प्रगति में बाधा है। पंचायत और कोऑपरेटिव में भ्रष्टाचार मुजफ्फरनगर और जोधपुर में कई गरमा-गरम बहस का मुद्दा रहा। स्थानीय स्तर पर जवाबदेही बढ़ाने के एक समाधान के रूप में ग्राम सभाओं को मजबूत बनाने का सुझाव आया। भुवनेश्वर में प्रतिभागियों ने मनरेगा जैसी सरकारी स्कीम समेत हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार को लेकर चिंता जताई। शिलांग में भी लोगों की मांग थी कि भ्रष्टाचार मुक्त सरकार बने और वह वादों पर खरी उतरे।भ्रष्टाचार पर बातचीत हाल के वर्षों में भले ही कम हुई जान पड़ती हो, लेकिन लोगों को लगता है कि यह लगातार गंभीर मुद्दा बना हुआ है।
वोट देने से पहले काफी सोच-विचार
जब लोगों से पूछा गया कि राज्य और राष्ट्रीय चुनाव में उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा क्या रहेगा, तो कागज पर अपनी बात लिखने से पहले उन्होंने काफी देर तक सोच विचार किया। लोग राजनीतिक रूप से जागरूक हैं। केंद्र और राज्य सरकार के लिए कौन से मुद्दे प्राथमिकता में है, यह अंतर स्पष्ट है। मेघालय में लोकसभा प्रत्याशी से ज्यादातर लोगों की मांग थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर राज्य और वहां की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करे, जनजातीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाए, शांति कायम करने में भूमिका निभाए और राष्ट्रीय योजनाओं को राज्य में अमल करवाए। राज्य चुनाव के प्रतिनिधियों से उनकी उम्मीद थी कि वह सामुदायिक विकास, जलापूर्ति और रोजगार के लिए कम करे। इसी तरह राजस्थान में विधानसभा चुनाव के प्रत्याशियों से लोगों की उम्मीदें नौकरियां, कानून व्यवस्था, शिक्षा, बिजली आदि को लेकर थी, तो राष्ट्रीय प्रतिनिधियों से नदियों को जोड़ने पर फोकस करने की अपेक्षा थी।
पानी भी हर क्षेत्र में लोगों की चर्चा का विषय रहा। भारत दुनिया के सबसे अधिक जल संकट वाले क्षेत्रों में है। चाहे पीने के पानी की बात हो अथवा सिंचाई के पानी की, इसकी कमी हम सबको प्रभावित करती है। दुर्भाग्यवश ग्रामीण क्षेत्रों में लोग औरों से ज्यादा इस समस्या को भुगत रहे हैं। यह जरूरी है कि हमारी राजनीतिक और नीतिगत बातचीत में इन दोनों महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल किया जाए।
ग्रामीण भारत अपना उचित स्थान मांग रहा है
“राजनीतिक दल ग्रामीण विकास की योजनाओं के मुद्दों को अपने घोषणा पत्र में शामिल कर घोषणा पत्र समिति में ग्रामीणों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करें।” एक प्रतिभागी का यह कहना गांव की आकांक्षा को बताता है। देश के 60 जिलों के 300 से ज्यादा लोगों की दबी हुई आकांक्षा यही है कि राष्ट्रीय परिकल्पना में ग्रामीण भारत को भी स्थान मिले। हमारा मीडिया, सिनेमा, हमारी आकांक्षाएं और राजनीति सब 65% भारतीयों के जीवन की हकीकत से दूर जाती दिख रही हैं। इन ज्वलंत मुद्दों का समाधान न करना गवर्नेंस की नाकामी है। सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव जैसी समस्याएं तो दशकों से हैं, जलवायु परिवर्तन और ड्रग्स की समस्याएं हालिया हैं।
लोगों में कृषि गतिविधियों के प्रति आकर्षण फिर से जगाने की जरूरत है। किसानों के बच्चे और युवा खेती नहीं करते हैं तो कोई भविष्य नहीं है। इसलिए एक किसान का कहना था, “क्या स्वाभिमान नहीं है हमारे अंदर… हम मेहनत वाले लोग हैं, अन्नदाता कहलाए जाते हैं किसान… खुद नहीं कमा सकते क्या… आप हमें व्यवस्थाएं दीजिए, साधन दीजिए, बाकी का हम कर लेंगे।”
लोगों को अब भी अपने गांव पर और खुद पर गर्व है। वे विकास चाहते हैं, लेकिन जानते हैं कि शहर जाने का मतलब जरूरी नहीं कि उनका जीवन बेहतर हो जाएगा। वे ऐसे अनेक लोगों को जानते हैं जो शहरों में झुग्गी बस्तियों में रहते हैं, गिग इकोनॉमी में काम करते हैं। इसके बजाय वे गांव में ही अपना बेहतर भविष्य बना सकते हैं। अनकहा सवाल है- ‘फ्री बी’ देने के बदले क्या यह संभव नहीं कि गांव में निवेश किया जाए और स्थानीय स्तर पर उद्यमी तथा बिजनेस खड़े किए जाएं, जिससे वहां के लोगों का जीवन सुधर सके? क्या अच्छी एक्सटेंशन सेवा और मार्केटिंग से खेती की मदद नहीं की जा सकती है?
ग्रामीण भारत की आकांक्षा एक बेहतर जीवन की है, और यह आकांक्षा पूरे देश में है। गांव के लोग काम करने और इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए तैयार हैं। कोयंबटूर में किसानों का एक समूह किसान परिवारों को डिस्काउंट पर चिकित्सा सुविधा मुहैया कराता है। लोग एकजुट हों तो उनकी ताकत बढ़ जाती है। सरकार सही कदम उठाए और बाजार की मदद मिले, तो इनकी आकांक्षाएं हकीकत बन सकती हैं।
(प्रचुर गोयल सॉक्रेटस के डायरेक्टर हैं।)