रूरल वॉयस के चौथे एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव में वक्ताओं ने किसानों की अनेक समस्याएं सामने रखीं और उनके समाधान भी बताए। वक्ताओं ने रिसर्च पर खर्च बढ़ाने की जरूरत बताई और कहा कि निजी क्षेत्र को दलहन, तिलहन में नई किस्में विकसित करनी चाहिए। लागत कम करने के लिए किसानों को स्मार्ट खेती के लिए भी तैयार होना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि सहकारिता के क्षेत्र में पारदर्शिता को जरूरी बताया, क्योंकि कुछ लोग ही बार-बार चुन कर आना चाहते हैं। आय बढ़ाने के लिए किसानों को एमएसपी से बाहर निकलना होगा और फसलों का विविधीकरण करना पड़ेगा। उन्हें अनाज से हट कर बागवानी की तरफ जाना होगा, पास के बजाय दूर की मंडियों में जाना होगा। चीन से तुलना करते हुए वक्ताओं ने कहा कि वहां खेती की जमीन कम है, इसके बावजूद उनका कृषि उत्पादन 1.4 ट्रिलियन डॉलर का है। जबकि भारत में यह 450 अरब डॉलर के आसपास ही है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए चीन के किसानों ने नई किस्मों और टेक्नोलॉजी को अपनाया है।
पहला सत्रः अगली पीढ़ी की कृषि के लिए, अगली पीढ़ी की सहकारी संस्था
कोऑपरेटिव इलेक्शन अथॉरिटी के चेयरमैन देवेंद्र कुमार सिंह ने बताया कि सहकारिता मंत्रालय के गठन के चार साल में इसके प्रति लोगों का भरोसा बढ़ा, उन्हें लगा कि इसकी सचमुच जरूरत थी। उन्होंने सहकारिता के क्षेत्र में पारदर्शिता को जरूरी बताया, क्योंकि कुछ लोग ही बार-बार चुन कर आना चाहते हैं। बोर्ड में महिलाओं को बराबरी का हिस्सा देना भी जरूरी है। ऐसा नहीं करने का मतलब है कि हम 2047 में विकसित भारत की बात नहीं कर रहे हैं। महिलाओं की भागीदारी सिर्फ नाम के लिए नहीं, उनके विचारों को भी स्थान देना जरूरी है।
मार्केटिंग के महत्व पर उन्होंने कहा कि किसान एमएसपी से बाहर निकलें और फसलों का विविधीकरण करें, अनाज से हट कर बागवानी की तरफ जाएं, पास के बजाय दूर की मंडी में जाने की सोचें। किसानों को सोचना चाहिए कि वे कैसे देश और विदेश के बड़े बाजारों में अपनी उपज कैसे बेच सकें। इसके लिए सुधारों की जरूरत है। निर्यात के लिए गुणवत्ता के मानदंड को पूरा करना पड़ेगा।
नेशनल फेडरेशन ऑफ कोऑपरेटिव शुगर फैक्ट्रीज लिमिटेड (एनएफसीएसएफ) के प्रबंध निदेशक प्रकाश नाइकनवरे ने कहा कि कोऑपरेटिव कृषि के हर क्षेत्र में किसानों की मदद के लिए काम कर रहे हैं। देश के 52 लाख गन्ना किसानों का खेत एक से डेढ़ एकड़ का है। हर चीनी मिल में 15 से 20 हजार किसान साथ आते हैं। वही बोर्ड में होते हैं। इस मॉडल पर बाकी दुनिया के लोगों को आश्चर्य होता है। कोऑपरेटिव किसानों का होता है, इसलिए जो दाम मिलता है उसे किसानों में ही बांटते हैं।
उन्होंने बताया कि हर साल कोऑपरेटिव के जरिए किसानों को 36,000 करोड़ के आसपास दिया जाता है। कोऑपरेटिव मिलिंग और प्रोडक्ट में इनोवेशन कर रहे हैं। इनका मकसद यही है कि किसान के हाथ में ज्यादा पैसा कैसे जाए। उदाहरण के लिए गन्ने के खेती में भी कोऑपरेटिव के जरिए एआई का इस्तेमाल हो रहा है। आने वाले समय में गन्ना काटने में मशीन का इस्तेमाल बड़े पैमाने होने जा रहा है। इस दिशा में काम हो रहा है। मशीन से क्वालिटी और रिकवरी अच्छी होती है।
उन्होंने कहा कि सहकारिता मंत्रालय मिशन मोड में काम कर रहा है। इसने अब तक 54 पहल की शुरुआत की है। वर्ष 2018 में नेशनल बायोफ्यूल पॉलिसी आई थी। आज पेट्रोल में 14 प्रतिशत इथेनॉल का प्रयोग होता है, जिसमें चीनी मिलों का बड़ा योगदान है। नई नीति में सबसे पहले कोऑपरेटिव शुगर मिल का इथेनॉल खरीदा जाएगा।
उन्होंने कहा कि देश में 13 करोड़ किसान पैक्स से जुड़े हैं। पैक्स को मल्टीपर्पस बनाने की कोशिश की जा रही है। उन्हें एलपीजी वितरण, जन औषधि केंद्र, पीएम किसान समृद्धि केंद्र जैसी जिम्मेदारियां दी गई हैं। अब हम वास्तव में सहकार से समृद्धि को हासिल करने जा रहे हैं। दुनिया का सबसे अनाज भंडारण कोऑपरेटिव में होने जा रहा है।
एनसीईएल के प्रबंध निदेशक अनुपम कौशिक ने संस्थागत आवश्यकता के बारे में कहा कि 14.1 करोड़ हेक्टेयर शुद्ध खेती की जमीन है, जिन पर 14.7 करोड़ कृषक परिवार खेती करते हैं। कुल कृषि उत्पादन करीब 430 अरब डॉलर का है और संबद्ध को मिलाकर कुल उत्पादन 600 अरब डॉलर है। चीन से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि वहां खेती की जमीन कम है, इसके बावजूद उनका कृषि उत्पादन 1.4 ट्रिलियन डॉलर का है।
उन्होंने कहा कि जहां भी संगठनात्मक प्रयास हुए हैं, वहां प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ी है। इसी परिप्रेक्ष्य में संस्थाओं को देखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए दूध में आत्मनिर्भरता सहकारिता के कारण हासिल हुई, जहां रिटेल कीमत का 85 प्रतिशत किसानों को मिलता है। ऐसा दूसरे उत्पादों में भी करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारत की 55 प्रतिशत जनसंख्या 17 प्रतिशत जीडीपी में भागीदार। इसे 30-40 प्रतिशत तक ले जाना होगा, वरना समाज में असमानता होगी।
दूसरा सत्रः निजी क्षेत्र- किसानों की भागीदारी
सवन्ना सीड प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ व एमडी अजय राणा ने कहा कि भारत में करीब 40-42 हजार करोड़ का बीज बिकता है। इसमें गन्ना शामिल नहीं है। विश्व में 5 लाख करोड़ रुपये का बीज कारोबार होता है। भारत का हिस्सा 10 प्रतिशत से भी कम है। चीन के पास क्षेत्रफल कम होने के बावजूद हमसे ढाई गुना आमदनी खेती से करता है, क्योंकि वह बेहतर बीज का प्रयोग करता है।
भारत में धान की उत्पादकता 4.5 टन प्रति हेक्टेयर है जबिक चीन में 70 टन। अन्य फसलों में भी यही स्थिति। वहां किसान नई टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हैं। धान में 50 प्रतिशत किसान संकर बीज का प्रयोग करते हैं जबकि भारत में ऐसे किसान सिर्फ 10 प्रतिशत हैं। सिंचाई के साधन में भी बड़ा अंतर है।
उन्होंने कहा कि कंपनियां रिसर्च पर 10 से 12 प्रतिशत खर्च करती हैं। पहले क्रांति धान और गेहूं की हुई थी। उसके बाद 20-25 साल में मक्का में बड़ी क्रांति हुई है। इसका उत्पादन तीन गुना हो गया है। कपास में भी 2003 के बाद क्रांति हुई, लेकिन पांच साल से कपास उत्पादन कम हो रहा है। हम कपास के फिर से आयातक बनते जा रहे हैं।
उन्होंने बताया कि कॉन्ट्रैक्ट खेती के लिए सवन्ना के साथ 10 हजार किसान जुड़े हैं, 10 लाख किसान हमसे बीज खरीदते हैं। उन्होंने कहा कि धान की उत्पादकता 4.5 से 6 टन भी कर लें तो हम पूरी दुनिया को खिला सकते हैं।
सिंगापुर स्थित एमएनसी एग्रोकॉर्प इंडिया ट्रेड सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड के सीओओ राजीव यादव ने कहा कि निजी क्षेत्र हमेशा किसानों के साथ काम करता रहा है। इस साल 14 करोड़ टन चावल उत्पादन का अनुमान है। इसमें से 5.2 करोड़ टन एफसीआई खरीदेगा। 2.1 से 2.2 करोड़ टन निर्यात की संभावना जो निजी क्षेत्र करेगा। निजी कंपनियां वेयरहाउस खड़ी कर रही हैं, किसानों को क्रेडिट सुविधा दे रही हैं ताकि किसानों को यह आजादी मिले कि कब उपज बेचना है। बीज में भी निजी क्षेत्र बड़ी भूमिका निभा रहा है। आरएंडडी, ग्लोबल लिंकेज और उत्पादकता बढ़ाने में भी निजी क्षेत्र बड़े स्तर पर योगदान कर रहा है।
मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज ऑफ इंडिया लिमिटेड (एमएसीएक्स) के वाइस प्रेसिडेंड (बिजनेस डेवलपमेंट) संजय गाखर ने कहा, किसानों के लिए सबसे जरूरी है कि उपज कब और किस भाव पर बेचना है। 2003 में एमसीएक्स के आने से पहले किसानों के पास स्पॉट मार्केट का ही विकल्प होता था। कमोडिटी एक्सचेंज में तीन महीने बाद के भाव भी एक्सचेंज पर दिखते हैं। वे भाव देश भर के खरीदार की तरफ से होते हैं। उन्होंने कहा कि 2004 से पहले 10 साल तक मेंथा ऑयल 450 रुपये किलो के आसपास बिकता था। अब इसके दाम काफी बढ़ गए हैं। बिक्री मूल्य में किसान को मिलने वाला हिस्सा भी बढ़ा है। किसान को लगने लगा है कि अच्छी क्वालिटी की उपज होगी तो अच्छे दाम मिलेंगे। हालांकि अभी ट्रेडिंग के लिए कमोडिटी की संख्या सीमित है। अभी 104 एग्री और नॉन एग्री कमोडिटी में ट्रेडिंग की अनुमति सेबी ने दे रखी है।
धानुका एग्रीटेक के चीफ साइंटिफिक एडवाइजर डॉ. पीके चक्रवर्ती ने कहा कि सरकार और निजी क्षेत्र को साथ मिल कर काम करने की जरूरत है। फसलों में 20 से 40 प्रतिशत पैदावार का नुकसान होता है। कम से कम 70 लाख टन बागवानी उत्पादन नुकसान और 60 लाख टन खाद्यान्न का नुकसान होता है। कपास में पिंक बॉलवर्म से 70 से 80 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है। करीब 40 प्रतिशत नुकसान खर-पतवार के कारण होता है। उन्हें बचाने के लिए रिसर्च हो रही हैं।
तीसरा सत्रः किसानों के लिए सार्वजनिक संस्थान
पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन ने कहा कि बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पर 11 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की गई, लेकिन कृषि इन्फा का इसमें जिक्र नहीं। कोई एपीएमसी नहीं जिसमें सरकार ने बड़ा निवेश किया हो। वह निजी क्षेत्र पर निर्भर है। कोशिश थी कि एपीएमसी से बाहर सिर्फ पैन से कारोबार हो सके। लेकिन वह नहीं हो सका। जरूरी है कि आने वाले समय में सरकार भी निवेश करे। आरएंडडी में निवेश बढ़ाने की जरूरत है। मक्का में कामयाबी निजी क्षेत्र के आरएंडडी से आई। वित्त मंत्री ने कहा था कि प्रतिस्पर्धा मोड में रिसर्च करवाई जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के पूर्व निदेशक डॉ. ए.के. सिंह ने बताया कि पिछले 10 वर्षों में अलग-अलग फसलों की 2900 किस्में विकसित हुई हैं। इनमें 2600 से ज्यादा जलवायु सहिष्णु हैं। अनाज उत्पादन 33-35 करोड़ टन तक पहुंचा है जिसमें चावल 13 करोड़ टन और गेहूं 11 करोड़ टन से अधिक है। इसमें सरकारी संस्थानों का योगदान है।
उन्होंने कहा कि निजी क्षेत्र को दलहन, तिलहन में नई किस्में विकसित करनी चाहिए। विकसित देश कृषि जीडीपी का 3 प्रतिशत तक कृषि शोध पर खर्च करते हैं, जबकि भारत अभी 0.5 प्रतिशत भी नहीं होता। इसके बजट में बढ़ोतरी 0.5 प्रतिशत हुई जबकि महंगाई 5.5 प्रतिशत बढ़ी है। रासायनिक खेती करने वाले किसानों को लगभग 5000 रुपये प्रति एकड़ की सब्सिडी मिलती है, जैविक खेती करने वालों को नहीं। उन्हें मदद की जरूरत।
उन्होंने कहा कि किसानों को स्मार्ट खेती के लिए भी तैयार होना पड़ेगा। उदाहरण के लिए ड्रोन से जरूरी जगह पर ही दवा का छिड़काव किया जा सकता है। इससे लागत कम होगी और उपज का अच्छा मूल्य मिलेगा। इसके अलावा सॉयल हेल्थ कार्ड में डिजिटल मैपिंग का प्रयास कर रहे हैं। उसके आधार पर फर्टिलाइजर उपलब्ध कराया जा सकता है। उन्होंने कहा कि पराली न जलाने पर किसानों को कार्बन क्रेडिट के तौर पर एक हेक्टेयर के 30-35 हजार रुपये मिल सकते हैं।
पूर्व आईएएस को नेशनल प्रोडक्टिविटी काउंसिल के पूर्व डायरेक्टर जनरल संदीप कुमार नायक ने कहा कि कोऑपरेटिव सेक्टर देश की जीडीपी में 30 से 32 प्रतिशत योगदान करता है। सार्वजनिक संस्थान बनाने में एनसीडीसी का बड़ा योगदान रहा है। आज इसका टर्नओवर एक लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने का अनुमान है, जो कई साल पहले सिर्फ 8000 करोड़ के आसपास था। उन्होंने कहा कि शोध पर कोऑपरेटिव सेक्टर की भूमिका को भी हाइलाइट नहीं किया जाता है। प्रोटीन इनटेक बढ़ाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि इसका समाधान काफी जटिल है। इसके लिए किसानों को पशुपालन, मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में प्रेरित करना होगा।
भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजयवीर जाखड़ ने कहा, सरकारी संस्थानों का सबसे बड़ा काम निजी संस्थानों से डिलीवर करवाना है। इस काम में सार्वजनिक संस्थान पूरी तरह विफल रहे हैं। एक्सटेंशन सर्विसेज में नाकामी के कारण किसान गलत मात्रा में उर्वरक और कीटनाशकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। केवीके के पास अपना काम चलाने का पैसा नहीं होता, वे किसानों की क्या मदद करेंगे। आईसीएआर और कृषि विश्वविद्यालय 30-40 साल से नई किस्में ला रहे हैं, लेकिन उनमें से कितने प्रतिशत किस्में सफल हो रही हैं। समस्या गवर्नेंस की है।
उन्होंने कहा कि समस्या किसानों के साथ भी है। मंडी बोर्ड में चुनाव ही नहीं हो रहे और किसान उसमें वोट तक नहीं देते। किसानों को स्थानीय मुद्दों के लिए आवाज उठाना होगा, तभी सार्वजनिक संस्थान सही तरीके से काम करेंगे। कृषि के लिए जीएसटी की तरह काउंसिल बनाने की चर्चा है, लेकिन क्या वह कामयाब होगी। संस्थान जरूरी हैं, लेकिन कौन से संस्थान की जरूरत है यह देखना जरूरी है। हर स्कीम को उसके लाभार्थी से आकलन से कराने की जरूरत है, तभी असलियत सामने आएगी। राज्य सरकारों को भी अपने यहां कोऑपरेटिव को मदद करने की जरूरत है। गुजरात सरकार की मदद से ही अमूल सफल हुआ।