पहले से ही लड़खड़ा रही विश्व अर्थव्यवस्था को यूक्रेन पर रूस के हमले ने और विकट स्थिति में ला दिया है। विकासशील देशों में नौकरियां और आमदनी कोविड-19 से पहले के स्तर से अब भी बहुत नीचे हैं। विकसित देश कई दशकों की सबसे ऊंची महंगाई दर का सामना कर रहे हैं। रूस की सेना के यूक्रेन सीमा पार करने के साथ ही कच्चे तेल के दाम तेजी से बढ़ने लगे, इससे स्थिति और खराब होगी। रूस दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल उत्पादक है। विश्व उत्पादन में इसकी हिस्सेदारी 15.5 फ़ीसदी है। प्राकृतिक गैस का यह सबसे बड़ा उत्पादक है। अंतरराष्ट्रीय कच्चा तेल बाजार में व्यवधान की आशंका को देखते हुए ब्रेंट क्रूड के दाम गुरुवार को 113 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गए। यह 2014 के बाद का सबसे ऊंचा स्तर है। ऐसे में जब फिलहाल रूस-यूक्रेन युद्ध फिलहाल खत्म होने के आसार नहीं लग रहे हैं, आने वाले दिनों में कच्चे तेल की कीमतों में और वृद्धि होने की आशंका है।
महंगाई के दबाव ने अनेक देशों में यूक्रेन संकट से पहले ही बजटीय गणित को उलट-पुलट करना शुरू कर दिया था। कच्चे तेल के दाम जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यह स्थिति आगे और खराब होगी। ऊंची महंगाई दर ने पूरी दुनिया में उपभोक्ताओं को प्रभावित किया है, उनकी क्रय शक्ति कम हुई है। महंगाई का सबसे अधिक असर समाज के उस वर्ग पर हुआ है जिन्हें महामारी के दौरान नौकरी से हाथ धोना पड़ा था और जिनकी कमाई घट गई थी। इससे पहले कि वे अपना जीवन पटरी पर वापस ला पाते उनके सामने घटती क्रय शक्ति की नई समस्या खड़ी हो गई है।
भारत जैसे देशों में आय में असमानता पहले ही अस्वीकार्य स्तर पर पहुंच गई थी और अब यह भी स्पष्ट है कि उससे भी बुरा वक्त आने वाला है। तेल की कीमतों का झटका अर्थव्यवस्था के हर सेक्टर पर होगा और अपेक्षाकृत कम आय वाले लोग इससे अधिक प्रभावित होंगे। उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता कम होगी तो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में डिमांड घटेगी। यह सेक्टर पहले ही काफी दबाव में है क्योंकि ज्यादातर उद्योग महामारी से पहले ही मांग में गिरावट का सामना कर रहे थे। इनके सामने मौजूदा समस्याएं तो बरकरार हैं ही, उन्हें ऊंची इनपुट लागत का भी सामना करना पड़ रहा है जिससे उनके लिए हालात और बिगड़ रहे हैं।
अनेक विकसित देशों में महंगाई कई दशकों के सबसे ऊंचे स्तर पर है और वहां वित्तीय बाजार कई हफ्ते से लगातार अस्थिरता का सामना कर रहे हैं। अमेरिका का केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ब्याज दरें बढ़ाने पर विचार कर रहा है जिससे वैश्विक पूंजी बाजार में बड़ा झटका लग सकता है। निवेशक वित्तीय पूंजी को सुरक्षित जगहों पर लगाना चाहेंगे, जिसका नतीजा यह होगा कि भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में व्यापक अनिश्चितता व्याप्त हो जाएगी। इन परिस्थितियों में विदेशी निवेशकों के पैसे निकालने से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के ना सिर्फ शेयर बाजार गिरेंगे बल्कि उन्हें लंबे समय तक पूंजी प्रवाह का भी सामना करना पड़ेगा। वहां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी कम हो सकता है।
यूक्रेन पर रूस के हमले के तत्काल बाद कृषि कमोडिटी के दाम में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिला। हालांकि दाम पहले बढ़ने के बाद फिर उनमें गिरावट आई, लेकिन युद्ध जारी रहने से आने वाले हफ्तों और महीनों में स्थितियां और खराब होंगी। रूस और यूक्रेन वैश्विक कमोडिटी बाजार में बड़े खिलाड़ी हैं और युद्ध के हालात में इन देशों से निश्चित रूप से सप्लाई में कमी आएगी। 2020 में रूस और यूक्रेन ने गेहूं के कुल वैश्विक निर्यात में 30 फ़ीसदी योगदान किया था। मोटे अनाज के कुल वैश्विक निर्यात में इनकी हिस्सेदारी 19.4 फ़ीसदी और खाद्य तेलों में 14 फ़ीसदी से अधिक थी। यही नहीं, 2019-20 में रासायनिक उर्वरकों की सप्लाई में भी 14 से 16 फ़ीसदी हिस्सा रूस का था। वहां से सप्लाई बाधित होने पर भारत समेत अनेक देशों में उर्वरकों की कमी हो सकती है, खासकर वे देश जो अभी तक इनके लिए रूस पर निर्भर थे। दुनिया के कोयला बाजार पर भी असर होगा जिसकी सप्लाई में रूस की हिस्सेदारी 16 फ़ीसदी है। आयरन और स्टील के कुछ प्रोडक्ट में भी रूस के निर्यात का हिस्सा बहुत अधिक है तो जाहिर है कि इस बाजार पर भी असर होगा।
सिवाय कुछ प्रतिबंधों के यूक्रेन में रूस को रोकने के लिए पश्चिमी देशों की कोई ठोस योजना अभी नजर नहीं आती है। इन प्रतिबंधों से पुतिन प्रशासन पर बहुत असर होता अभी तक तो नहीं लग रहा। इसलिए यह उम्मीद करना बेमानी होगी कि प्रतिबंधों से पुतिन रुक जाएंगे। रूस जिन चीजों का बड़े पैमाने पर निर्यात करता है अभी तक पश्चिमी देशों ने उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। यह रूस के लिए लाभ की स्थिति है। पश्चिमी देश जानते हैं कि अगर इन पर प्रतिबंध लगाया गया तो विश्व अर्थव्यवस्था जो पहले ही संकट के दौर से गुजर रही है, वह और गहरे गर्त में चली जाएगी। विश्व समुदाय के लिए यह निश्चित रूप से बेहद खराब स्थिति है। ऐसे समय जब दुनिया रूस को यूक्रेन से बाहर निकालने में असहाय दिख रही है, आगे अनिश्चितता का दौर और लंबा खिंच सकता है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के प्रोफेसर हैं)