आज यानी 11 दिसंबर को गुरू ग्रंथ साहिब के पाठ और हवन के बाद किसान दिल्ली की सीमाओं पर लगे मोर्चों से अपने घरों को वापसी करेंगे। 378 दिन चला किसान आंदोलन देश और दुनिया के इतिहास में एक ऐसा मुकाम बना चुका है जिसके दोहराये जाने की कल्पना अभी संभव नहीं है। केंद्र सरकार द्वारा जून, 2020 में अध्यादेशों के जरिये लाये गये तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ लगभग शांतिपूर्ण चले इस आंदोलन ने कई लोकतांत्रिक मूल्यों और अहिंसक विरोध की सफलता को मजबूती से दर्ज किया है। महात्मा गांधी के आदर्शों पर चलने वाला हाल के दशकों का यह सबसे बड़ा उदाहरण है। जिसके केंद्र में अहिंसा, धैर्य और अपने मकसद की कामयाबी के लिए आंदोलनरत किसानों का भरोसा था। यह आंदोलन आजादी के पहले और उसके बाद से अभी तक के देश के सभी किसान आंदोलनों के मुकाबले समग्रता और अपने उद्देश्यों को हासिल करने वाला सबसे सफल आंदोलन माना जा सकता है। इस आंदोलन ने देश में कृषि और किसान को देखने का नजरिया बदलने के साथ ही 1991 की आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के बाद पहली बार कृषि क्षेत्र को नीति-निर्धारण, संसदीय बहस, राजनीतिक विमर्श और आर्थिक नीतियों के केंद्र में ला खड़ा किया है।
इन कारकों के चलते ही यह आंदोलन आजादी के पूर्व और बाद में चले डेक्कन रॉयट्स, मापला रिबैलियन, चंपारण, खेड़ा और बारदौली के किसान आंदोलनों से अलग छाप इतिहास में दर्ज कर गया है। मई- जून 1875 में पुणे और अहमदनगर के आसपास के मराठा किसानों द्वारा साहूकारों के घरों, संपत्तियों और जमीनों के दस्तावेजों जला दिया था। इसीलिए इस हिंसक किसान आंदोलन को डेक्कन रॉयट्स कहा गया। 1921 से 1922 के बीच केरल के मालाबार इलाके के मुस्लिम किसानों ने भी साहूकारों के खिलाफ हिंसक आंदोलन किया था जिसे मापला विद्रोह कहा गया। लेकिन चंपारण में 1917 में गांधी जी के नेतृत्व वाला किसान आंदोलन, 1918 में खेड़ा भी महात्मा गांधी के नेतृत्व में और बारदौली में 1928 में सरदार पटेल और दूसरे किसान नेताओं द्वारा चलाये गये आंदोलन अहिंसक आंदोलन थे। गुजरात के किसान आंदोलन में पाटीदार किसानों की भागीदारी थी। मौजूदा किसान आंदोलन चंपारण, खेड़ा और बारदौली के आंदोलनों की तरह अहिंसक रहा लेकिन इसकी व्यापकता इन सबसे कहीं अधिक है जो पिछले आंदोलन से इसे बड़ा और अधिक कामयाब साबित करती है।
तीन नये कृषि कानूनों के बनने के बाद से ही जिस तरह से किसान इन कानूनों के खिलाफ जाना शुरू हुए उसकी सुबगुबाहट को देख उस वक्त इस लेखक को नहीं लगता था कि आने वाले दिन देश में किसान आंदोलनों का नया इतिहास लिखने जा रहे हैं। हर दिन इसका आकार और दायरा बढ़ने के साथ मांगों को मानवाने के लिए रणनीति बनाने और उन पर अमल करने में सुधार होता गया। आंदोलन शुरू हुआ तो न इसका नेतृत्व बहुत साफ और प्रभावशाली था और न ही किसान संगठनों को एक साथ लाने के लिए बड़ा मंच बनता दिख रहा था। पंजाब में 30 से ज्यादा किसान जत्थेबंदियों ने आंदोलन तेज किया, लेकिन लगा कि इतने संगठन कैसे लंबा आंदोलन चला पाएंगे और कैसे साथ चल पाएंगे। हरियाणा में भी शुरुआत में कोई बड़ा संगठन आंदोलन चलाता नहीं दिख रहा था और उत्तर प्रदेश में दो किसान संगठनों ने कृषि कानूनों का विरोध शुरू किया। लेकिन सितंबर, 2020 से इस आंदोलन ने अपना स्वरूप राष्ट्रीय बनाना शुरू किया। संगठनों के बीच तालमेल शुरू हुआ, जो 26 नवंबर, 2020 के दिल्ली कूच की घोषणा और 8 दिसंबर के भारत बंद के आह्वान के फैसले के रूप में सामने आया। उसके बाद 27 नवंबर, 2020 को किसानों का दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचना, पंजाब के किसानों और हरियाणा के किसानों का एकजुट होना। उत्तर प्रदेश की सीमा पर 29 नवंबर से मोर्चा लगना, यह सब इसे धीरे-धीरे राष्ट्रीय स्वरूप दे रहा था। इस तालमेल ने 40 किसान सगंठनों का संयुक्त किसान मोर्चा दिया। जो सरकार के साथ वार्ताओं की शर्त तय करने के साथ ही आंदोलन की समाप्ति की मुख्य मांग तक उस पर अडिग रहा। 11 दौर की वार्ता की नाकामी, सुप्रीम कोर्ट में मामले के जाने, समिति गठित करने, 26 जनवरी, 2021 का दिल्ली का ट्रैक्टर मार्च और लालकिला हिंसा। 22 जनवरी के बाद वार्ता का टूटना, यह सब कुछ इस आंदोलन के पड़ाव बनते गये लेकिन आंदोलन चलता रहा। बैक डोर डिप्लोमेसी, किसानों के ऊपर दर्ज हजारों मुकदमें, संयुक्त किसान मोर्चा के मुताबिक आंदोलन के दौरान 700 से अधिक किसानों की मौत होना। इतना सब कुछ होने के बाद भी 26 और 28 जनवरी, 2021 की शाम तक के मौकों को छोड़ दें तो कहीं ऐसा नहीं लगा कि आंदोलन कमजोर हो रहा है, आंदोलन टूट रहा है, किसानों का हौसला कमजोर हो रहा है। हां कई बार नेतृत्व में यह आशंका जरूर दिखी कि शायद सरकार किसी भी कीमत पर तीन कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार होगी। यह अकेला ऐसा आंदोलन है जिसने सर्दी, गरमी और बरसात तीनों मौसम और उनकी दिक्कतों को दिल्ली की सीमाओं पर झेला। लेकिन हर मुश्किल के साथ यह आंदोलन देश के जनमानस को झकझोर रहा था। खासतौर से उन लोगों के मानस को जो खेती, किसानी, गांव और उस पर जीवन बसर करने वाले लोगों को थोड़ा सा भी समझते हैं। कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप, मीडिया मैनेजमेंट, अप्रत्यक्ष दबाव आये लेकिन आंदोलन में शिरकत कर रहे किसान और आंदोलन का नेतृत्व अपनी मांग पर अडिग रहा। “तीन कानूनों की वापसी के बाद ही घर वापसी” और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कानूनी गारंटी की मांग को इस आंदोलन ने समाज के हर वर्ग तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की।
आंदोलन का एक अहम पक्ष इसको सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक क्षेत्र की मदद रही। मीडिया के खास नजरिये के चलते अक्सर आरोपों में रहने वाली खाप पंचायतों ने इस आंदोलन के दौरान साबित किया वह किसान आंदोलन को ऊर्जा देने वाली एक अहम व्यवस्था रही। वहीं गुरुद्वारों के लंगर और सिख समुदाय की कम्यूनिटी सर्विस इस आंदोलन के ऐसे पक्ष हैं जिसने आंदोलन को खड़ा रखने वाली रीढ़ का काम किया। वहीं पंजाब और हरियाणा के मुख्यधारा के गायकों और लोक गायकों व संस्कृति कर्मियों ने आंदोरनरत युवाओं, बुजुर्गों, बच्चों और महिलाओं के बीच लगातार अपनी मांगों के लिए डटे रहने की भावनात्मक ताकत देने का काम किया। जो अभी तक के किसी आंदोलन में इतने व्यापक स्तर पर देखने को नहीं मिला था।
पिछले कई दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है कि जब देश में मीडिया के तमाम माध्यमों प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रानिक में कृषि क्षेत्र, कृषि नीति और किसान व ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इतनी कवरेज और चर्चा हुई हो। साथ ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत की कवरेज का भी इस आंदोलन ने नया कीर्तिमान बनाया है। वैश्विक मीडिया के लिए भी यह आंदोलन चौंकाने वाला तो था कि साथ ही एक उदाहरण पेश कर रहा था क्योंकि दुनिया में इस तरह का इतने बड़े जनमानस की भागीदारी वाला आंदोलन इतना लंबा हाल के दशकों में कहीं नहीं चला है।
जहां से इस लेख की शुरुआत होती है उसकी तुलना में कुछ बातें प्रासंगिक हैं। चंपारण का आंदोलन महात्मा गांधी के उस आंदोलन का हिस्सा होने के चलते मजबूत हुआ और कामयाब हुआ। खेड़ा और बारदौली में गुजरात के किसानों के साथ महात्मा गांधी और पटेल जैसा नेतृत्व था। लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन के साथ ऐसा कोई चमत्कारिक नेतृत्व नहीं है। इसके बावजूद आंदोलन चला और कामयाब हुआ। इस आंदोलन की खूबसूरती यह है कि इसने एक सामूहिक नेतृत्व पैदा किया। सहकार की भावना से एक उद्देश्य के लिए काम करने वाले तमाम संगठनों के इस सामूहिक नेतृत्व ने यह उदाहरण पेश कर दिया कि किसी बड़ी कामयाबी के लिए चमत्कारिक नेतृत्व जरूरी नहीं है। साथ ही किसी एक व्यक्तित्व की छत्रछाया की बजाय लोकतांत्रिक तरीके से भी फैसले लेकर उन पर अमल संभव है। इसलिए आज जब 11 दिसंबर को दिल्ली की सीमाओं से किसानों कि वापसी शुरू हो रही है तो उस दिन किसानों के पास उनके मुद्दों को उठाने और उन पर लड़ने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के रूप में नेतृत्व का एक सामूहिक संगठनात्मक ढांचा है। साथ ही साल भर से अधिक चले किसान आंदोलन ने किसान नेताओं के वह चेहरे देश के सामने ला दिये हैं जिन्हें लोग पहचानते हैं। वह भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत हो, बलबीर सिंह राजेवाल हों, अशोक धवले हों, जोगिंदर सिंह उग्राहा हों, गुरनाम सिंह चढ़ूनी हों, दर्शनपाल हों, योगेंद्र यादव हों, युद्धवीर सिंह हों या दूसरे किसान नेता, इनकी पहचान देश के हर हिस्से में किसानों के बीच बन चुकी है।
दूसरे जहां चंपारण का आंदोलन नील की खेती करने वाले किसानों के मुद्दे और मौजूदा बिहार के एक खास भौगोलिक हिस्से में था वहीं डेक्कन रॉयट्स, मापला विद्रोत, खेड़ा और बारदौली का आंदोलन किसानों के ऊपर लगने वाले लगान के मुद्दे तक तक सीमित था। मौजूदा आंदोलन को भले ही मोर्चों की मौजूदगी के आधार पर हम पूरे देश में उपस्थिति के रूप में नहीं देखें लेकिन राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में इसकी भौगोलिक स्तर पर सक्रियता और आंदोलन के दौरान देश के अधिकांश राज्यों में आयोजित हुई किसान पंचायतें इसे अभी तक के सबसे बड़े आंदोलन के रूप में स्थापित करती हैं।
आंदोलन की मागों के दायरे की बात करें तो इस आंदोलन ने देश की समग्र कृषि नीति और उससे जुड़े फैसलों को बदल दिया है। साथ ही सरकार द्वारा जिन कानूनों को अध्यादेश के जरिये बहुत जल्दी लागू करने के मकसद से लाया गया था। उनको संसद में पारित कर कानून में तब्दील कराया गया, उसी तरह से इन कानूनों को संसद के जरिये निरस्त करने का विधेयक भी उसी तेजी के साथ पारित कराया गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस तरह का शायद ही कोई दूसरा उदाहरण है जिसमें किसी एक सरकार द्वारा लागू किये गये कानूनों को इतने कम समय में निरस्त किया गया हो। इस आंदोलन की दूसरी प्रमुख मांग एमएसपी पर कानूनी गारंटी का कानून बनेगा या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन किसानों के बीच एमएसपी की अहमियत और उसके जरिये किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम को लेकर ऐसी जागरूरता पैदा हो गई है कि यह सरकार की कृषि नीति के केंद्र में रहने वाले सबसे अहम मुद्दा बन गया है।
कल शुक्रवार 10 दिसंबर की शाम को जब यह लेखक गाजीपुर बार्डर के आंदोलन के मोर्चे पर गया तो देखा कि वहां किसानों ने अपनी ट्रालियों को दीवाली की तरह सजाया हुआ था। मंच के पास से दूर तक रोशनी करने वाली फ्लैश लाइटें चल रही थी। कहीं कोई तनाव नहीं था। कुछ जगहों पर मिठाई बांटी जा रही थी। अब यहां पुलिस और प्रशासन सहज और सब कुछ पहले जैसा हो जाने की बात कर रहा था। वहीं फ्लाइओवर के नीचे इस लेखक और आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरे राकेश टिकैत ने एक लंगर में भोजन करते हए बातचीत की तो उनका कहना था कि इस जगह की किस्मत है कि इसने साल भर तक किसानों को यहां आंदोलन चलाने का ठिकाना दिया। जिस तरह से आंदोलन देश दुनिया में अपनी पहचान बना गया उसी तरह गाजीपुर बार्डर को भी दुनिया जान गई। कल सुबह गुरू ग्रंथ साहिब के पाठ और हवन के बाद किसान अपने घरों को लौटना शुरू हो जाएंगे।
इस आंदोलन ने बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे। सरकार और संयुक्त किसान मोर्चा के बीच मांगों पर सहमति बनने के बाद इस आंदोलन की समाप्ति भी एक नया उदाहरण पेश कर रही है। अंतिम दौर में भले ही दोनों पक्षों के बीच टेबल पर कोई वार्ता तो नहीं हुई लेकिन 19 नवंबर को गुरू पर्व के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्र को संबोधन में तीन कानूनों की वापसी की घोषणा, उसके बाद कानूनों को निरस्त करने की संसदीय प्रक्रिया का पूरा होना, संयुक्त किसान मोर्चा और सरकार के बीच मांगों पर सहमति बाद केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव का पत्र संयुक्त किसान मोर्चा को पत्र आंदोलन को इसकी परिणति तक ले गया। यह घटनाक्रम भी अपने आप में ऐतिहासिक बन गया है।