हाल ही में लागू किए गए तीन विवादास्पद कृषि कानूनों का विरोध करने वाले किसान संगठनों ने इन सभी कानूनों को 18 महीने के लिए निलंबित रखने के लिए केंद्र सरकार के नवीनतम प्रस्ताव को खारिज कर दिया है । केंद्र सरकार ने इस प्रस्ताव के तहत, किसानों को सभी विवादास्पद मुद्दों पर जांच के लिए एक संयुक्त समिति का गठन का भी प्रस्ताव दिया था। उसे भी किसान संगठनों ने खारिज कर दिया। किसान संगठनों का यह रुख अप्रत्याशित नहीं था। ऐसा इसलिए है कि आंदोलन के पहले दिन से ही इन कानूनों को निरस्त करने की मांग पर किसान संगठन स्पष्ट थे। सरकार के कदम और प्रस्ताव को आंदोलनकारी किसान "भटकाने और देर" की रणनीति के रूप में देख रहे थे। और इन परिस्थितियों ने अविश्वास, हताशा और भ्रम के काले बादल को और गहरा कर दिया है।
इन कानूनों का घोषित उद्देश्य कृषि व्यापार में प्रतिबंधों को कम करना है, व्यापारियों को भविष्य के व्यापार के लिए बड़ी मात्रा में खाद्य स्टॉक की अनुमति देना है और अनुबंध वाली खेती के लिए एक राष्ट्रीय रूपरेखा तैयार करना है। सरकार किसानों को इन कानूनों के दूरगामी लाभों के बारे में समझाने के लिए हर संभव तरीके को अपना रही है। और यह समझाने की कोशिश कर रही है कि ये कानून कैसे उनके भाग्य और भविष्य को कैसे बदलेंगे। दूसरी ओर, आंदोलनकारी किसान यह कहते हुए इस तरह के आडंबरपूर्ण स्वप्नों का खंडन करते रहे हैं कि ये कानून उनकी सौदेबाजी की शक्ति को नष्ट कर देंगे और उन्हें बड़े कारपोरेटों की दया पर छोड़ देंगे। इसलिए, वे इन कानूनों को निरस्त करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के लिए एक कानूनी गारंटी की मांग कर रहे हैं।
सरकार ने आंदोलनकारी किसानों को समझाने के लिए एक आक्रामक जवाबी अभियान भी चलाया जो पहले से ही इन कानूनों के पक्ष में हैं। इस तरह के कदमों और काउंटर अभियानों ने आंदोलनकारी किसानों और सरकार के बीच असंतोष और अविश्वास के स्तर को और बढ़ा दिया। मुद्दों को हल करने के लिए किए गए सभी प्रयासों में "जोश, भावना और जुड़ाव" का तत्व स्पष्ट रूप से अनुपस्थित था। 10 वें दौर की वार्ता में केंद्र सरकार ने जो पेशकश की और 12 जनवरी, 2021 को माननीय उच्चतम न्यायालय ने जो निर्णय दिया, वह आंदोलन के शुरुआत में किया जाना चाहिए था। इस पहल ने भरोसे और सौहार्द्र को बनाने की दिशा में कदम उठाया है। हालांकि अगर यह पहल, पहले हो गई होती तो 60 से अधिक किसानों की दुखद मौत, लाखों आंदोलनकारी किसानों की पीड़ा और 50,000 करोड़ रुपये से अधिक के व्यापार और व्यवसाय को नुकसान नहीं होता था ।
क्या कोई विकल्प नहीं है?
आंदोलनकारी किसानों की एकता, सहनशक्ति, साहस, प्रतिबद्धता और विश्वास सलामी के लायक है, लेकिन किसान और राष्ट्र जो इसकी कीमत चुका रहे हैं, उसका कोई मूल्य चुकाया जा सकता है ?
मेरे विचार में इस प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा "नहीं" है। दोनों पक्षों यानी सरकार और आंदोलनकारी किसानों द्वारा अपनाए गए रुख में कठोरता वास्तविक जमीनी स्थितियों की तुलना में आशंकाओं और उथल-पुथल से अधिक उभर रही है। इन कानूनों के विवादित प्रावधानों यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग (अनुबंध खेती), कॉरपोरेट द्वारा सीधी खरीद और समानांतर मंडियों को धरातल पर खड़ा करना बहुत कठिन होगा। देश में भूमि के छोटे-छोटे आकार को देखते हुए और गांवों के साथ 100 करोड़ से अधिक आबादी के कारण, किसी भी कॉरपोरेट को अनुबंधित खेती के लिए प्रोत्साहित होना अव्यवहारिक होगा। कंपनियों के लिए ऐसा करने की ऑपरेशन लागत खेती से मिलने वाले लाभ से अधिक होगी और साथ ही उसमें जोखिम होगा ।
यह मानते हुए कि कोई एक अति उत्साही कॉरपोरेटस, सरकारी मशीनरी के जरिए भूमि को एकत्र करने में सक्षम हो और किसानों से फसल खरीदने लगेगा और उन्हें बड़े पैमाने पर विस्थापित कर देगा। अगर वह ऐसा करने में सफल हो जाएगा तो अनुबंध खेती की वजह से बड़ी संख्या में विस्थापित किसान चुप नहीं बैठेंगे और देश में एक अराजकता पैदा हो जाएगी।
विवाद का एक अन्य प्रमुख बिंदु कॉरपोरेट द्वारा सीधी खरीद है। यह भारतीय संदर्भ में भी अव्यवहारिक और गैर लाभकारी है। देश में बहुसंख्यक किसान परिवारों के लिए ज्यादतर अतिरिक्त उत्पादन बहुत कम होता है (ज्यादातर मामलों में एक क्विंटल से अधिक नहीं)। क्योंकि भूमि के छोटे आकार और सीमांत किसानों की ज्यादा संख्या होने की वजह से अब भी ज्यादातर किसान अपनी उपज सीधे मंडियों में नहीं बेचते हैं। हमारे देश के बड़े हिस्सों में 3 से 4 स्तर वाली फसल खरीद वाली प्रणाली है। और एक कॉरपोरेट के लिए इन प्रणालियों के जरिए फसलों की खरीद करना अधिक आसान और लाभदायक लगेगा। क्यों कोई खाना पकाने में व्यस्त होगा जब उसके पास बिना किसी झंझट के कम लागत में बेहतर भोजन पाने का विकल्प होगा?
फिर क्या किया जाना चाहिए?
मेरे विचार में इस स्तर पर कार्रवाई का सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि सरकार राष्ट्र के संरक्षक होने के नाते इन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करके एक बड़े दिल और दयालु नजरिए का प्रदर्शन करे। और एक संयुक्त समिति का गठन करे जिसमें संबंधित क्षेत्रों के सदस्य शामिल हों। जिसके जरिए कृषि सुधारों के एक व्यापक रूपरेखा तैयार की जा सकती है, जो सभी हितधारकों को स्वीकार्य हो और भविष्य की आवश्यकता को पूरी करती हो। इस कदम के साथ, सरकार आशंकाओं को स्वीकार कर सकती है और अपने नागरिकों और किसानों के दिल पर जीत हासिल कर सकती है, जिनकी सामूहिक प्रतिष्ठा सरकार की प्रतिष्ठा है। भारत को साहसिक कृषि सुधारों की आवश्यकता है, लेकिन इसे अपने किसानों की जरूरतों और आकांक्षाओं के साथ संवाद, विश्वास और पूर्ण संपर्क की प्रक्रिया के माध्यम से आना होगा। 18 महीने की समय सीमा के भीतर, कृषि सुधार उपायों के नए और साहसिक कदम की शुरुआत कर, सरकार निश्चित रूप से आम सहमति पर पहुंच सकती है जो कृषि को विकास और उसके उच्च स्तर तक ले जा सकती है।
विधायिका की अक्षमता
विकासात्मक मुद्दों के समाधान के लिए विधायिका का रास्ता चुनना कुशल और पसंदीदा रास्ता नहीं है। और इसका तब तक सहारा नहीं लेना चाहिए जब तक कि यह पूरी तरह से आवश्यक न हो और कोई दूसरा विकल्प नहीं हो। विकास और खुशी, दिल का मामला है, जिसके लिए सभी संबंधित पक्षों के बीच लचीला दृष्टिकोण और पूर्ण (शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक) भरोसे और जुड़ाव की आवश्यकता होती है। विकासात्मक नीतियों और उपायों को आदर्श रूप से उन्मुख होना चाहिए। विधायिका का दृष्टिकोण मूल रूप से प्रक्रिया आधारित है और इसका क्रियान्वन ज्यादातर कठोर और कम लचीला होता है।
विधानों के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी उन लोगों के हाथ में है जो इसके परिणाम के प्रत्यक्ष लाभार्थी नहीं हैं। लाभार्थी केवल मूकदर्शक होते हैं जो स्वामी की दया पर होते हैं। यह न केवल लाभार्थियों की स्वैच्छिक और सक्रिय भागीदारी में बाधा डालता है, बल्कि उन्हें अलग-थलग और विस्थापित भी करता है। भारत में सहकारी संस्थाओं की विफलता इस दृष्टिकोण की सराहना करने के लिए एक उदाहरण है।
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि सहकारी संस्थाएं विफल नहीं हो सकती हैं। बशर्ते वह वास्तविक सहकारी सिद्धांतों पर चलती हो। भारत में लाखों सहकारी समितियां या तो असफल रही हैं या बाहरी कारणों और बाहरी नियंत्रण और प्रभाव के कारण निष्क्रिय अवस्था में हैं। सरकार ने इन सहकारी समितियों को बेहतर करने के लिए बेहतर कानूनी संशोधन किए हैं। ऐसे में सरकार को उन उद्देश्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है जो वह विवादास्पद कृषि कानूनों के माध्यम से प्राप्त करना चाहती है।
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि हमारे देश में अधिकतर किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हो गया है। समाधान भूमि जोत के एकीकरण में निहित है, लेकिन इसके लिए किसानों का स्वैच्छिक रूप से भूमि एकीकरण करने की जरूरत है। हमारे देश में प्रति गाँव कम से कम एक कृषि समूह की आवश्यकता है। यह तत्काल किया जाना चाहिए और दो साल की समय सीमा में इसे हासिल करना संभव है। सरकार ने कृषि एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए जिस वित्तीय प्रोत्साहन आधारित मॉडल का पेश किया है और यह बहुत सफल नहीं होने जा रहा है क्योंकि इससे बाहरी संस्थाएं योजना को नियंत्रित करने के लिए प्रोत्साहित होंगी।
सरकार को इच्छुक और संबंधित पक्ष जैसे किसान, कॉरपोरेट, कृषि विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थानों, केवीके, बैंकों और विकास वित्त संस्थानों, ग्रामीण विकास संस्थानों, ट्रस्ट आदि को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए सरकार को बैक सीट पर बैठे व्यक्ति वाली भूमिका निभानी चाहिए। दो साल के समय में पूरे देश में कृषि समूह के एक ऐसे विशाल नेटवर्क का निर्माण हो जाएगा। इस पहल को जन आंदोलन का रूप दिया जाना चाहिए और यह किसानों के लिए स्वतंत्रता आंदोलन जैसा हो सकता है। सरकार कर रियायतों के रूप में राजकोषीय प्रोत्साहन देकर इस आंदोलन को प्रोत्साहित कर सकती है और कॉरपोरेट द्वारा किए गए खर्च को सीएसआर की तरह देखा जा सकता है। इससे किसानों को समान और लाभकारी शर्तों पर बाजार की शक्तियों के साथ जुड़ने का अधिकार मिलेगा।
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं है कि हमारा कृषि क्षेत्र संकट में है और संकटों को कम करने के लिए समाधान खोजने की नितांत आवश्यकता है। एक अस्थिर और संकटपूर्ण स्थिति में जहां अमीर भी अपनी कमाई और अपनी संपत्ति की सुरक्षा पर भरोसा नहीं कर सकते हैं। ऐसे में मौजूदा किसान आंदोलन से सीख लेकर और कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के संपूर्ण मुद्दों को संबोधित करने वाली नीति और कार्यक्रमों की जरूरत है। जिसमें सर्वसम्मति सबसे अहम गुण होना चाहिए। जिससे लक्ष्य को हासिल किया जा सके।
(लेखक राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम के पूर्व डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर हैं)