कृषि से जुड़े जलवायु संकट का समाधान आज की महती जरूरत है। भारत में 18% ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कृषि कार्यों की वजह से होता है। किसानों के लिए जलवायु और पर्यावरण भी बड़ी चुनौतियां हैं, खासकर उन 27% कृषक आबादी के लिए जिन्हें छोटी जोत वाला किसान माना जाता है। इसलिए यह आवश्यकता दोहरी हो जाती है- एक तो जलवायु संकट का समाधान खेती के तौर-तरीकों में सुधार के बिना नहीं हो सकता और दूसरी तरफ, छोटी जोत वाले किसानों की आमदनी जलवायु के नकारात्मक प्रभावों का समाधान किए बिना नहीं बढ़ाई जा सकती है।
छोटी जोत के किसानों के सामने पहले ही कई तरह की बाधाएं होती हैं जिनके कारण उनकी आमदनी बढ़ नहीं पाती है। इनमें अवैज्ञानिक तरीके से खेती, इनपुट और श्रम की ऊंची लागत तथा बाजार तक उचित पहुंच का अभाव शामिल हैं। इन बाधाओं के बीच द रॉकफेलर फाउंडेशन की मदद से हाल में आयोजित एक रिसर्च में वर्षा पर निर्भर 75% छोटे किसानों ने बारिश को अपनी प्रमुख चिंता बताया। सिंचाई के साधन वाले 55% छोटे किसानों ने कीटों और बीमारियों को अपनी प्रमुख चिंता बताया। इस बात के महत्व का हमें तब पता चलता है जब हम छोटे किसानों पर जलवायु संकट के नकारात्मक प्रभावों पर गौर करते हैं। वर्षा पर आधारित हर चार में से तीन और सिंचाई सुविधा वाले हर दो में से एक किसान को आधे या उससे अधिक फसल का नुकसान होता है। यह नुकसान औसतन तीन साल में दो बार होता है। इसका मुख्य कारण बारिश है। वर्षा पर निर्भर किसानों, जिनकी उत्पादकता बीते पांच वर्षों में कम हुई है, उनमें से 83% ने कहा कि बारिश के कारण उनकी उत्पादकता कम हुई है। सिंचाई की सुविधा वाले 54% किसानों ने कीटों और बीमारियों को तथा 29% ने बारिश को कारण बताया।
लगभग 75% किसानों को कीटों, बीमारियों और खरपतवार का ज्यादा सामना करना पड़ा है। इनमें से कुछ किसान असामान्य बारिश बढ़ने को इसकी मुख्य वजह मानते हैं। इन परिस्थितियों के बावजूद छोटे किसान अपनी आय बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। तथ्य तो यह है कि बीते पांच वर्षों के दौरान हर दो में से एक छोटे किसान के खेत की उत्पादकता कम हुई। बाकी आधे किसानों की उत्पादकता समान रही या बढ़ गई।
बीते पांच वर्षों के दौरान 76% छोटे किसानों ने कीटनाशकों का इस्तेमाल दोगुना से ज्यादा कर दिया है और 54% रासायनिक उर्वरकों का दोगुना इस्तेमाल कर रहे हैं। 59% किसानों का मानना है कि 5 वर्षों में उनके खेत की मिट्टी की उर्वरता कम हुई है जबकि 37% का मानना है कि इसमें कोई बदलाव नहीं आया है। इसी तरह 44% किसानों को लगता है कि मिट्टी का टेक्सचर और खराब हुआ है जबकि 46% के अनुसार इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है।
रसायनों के ज्यादा प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता घटती है लेकिन किसानों के नजरिए से देखें तो इससे उन्हें उत्पादकता बढ़ाने या बरकरार रखने में मदद मिलती है। जिन किसानों के खेत की उत्पादकता बढ़ी, उनमें से आधे का कहना है कि ऐसा रसायनों के इस्तेमाल के कारण हुआ है। कीटों, बीमारियों और खरपतवारों का हमला झेलने वाले आधे या इससे अधिक किसानों के अनुसार उचित केमिकल के प्रयोग से उन्हें इसे नियंत्रित रखने में मदद मिली। यहां एक और बात गौर करने लायक है कि खेतों में काम करने वाली महिलाएं पांच साल पहले की तुलना में अब खेत में कम समय देती हैं। लगभग सभी महिलाओं का कहना है कि खरपतवार नाशकों के प्रयोग से उन्हें इन्हें हटाने के लिए अब कम समय लगाना पड़ता है। इस तरह जिन महिलाओं की खेती का समय बचा है उनमें से हर पांच में से तीन महिलाएं इस समय का प्रयोग किसी और के खेत में काम करने तथा अन्य कार्यों में करती हैं ताकि आमदनी बढ़ाई जा सके।
छोटे किसान मिट्टी की सेहत से वाकिफ हैं और उसे सुधारने के लिए तरीके भी अपना रहे हैं। उदाहरण के लिए 61% छोटी जोत के किसान फसलों में रोटेशन का तरीका अपनाते हैं। इसमें हर सीजन अथवा हर साल उगाई जाने वाली फसल बदल दी जाती है। हर चार में से तीन छोटे किसान खेत में तैयार खाद का प्रयोग करते हैं। ऐसे एक चौथाई किसानों को खाद खरीदने की जरूरत पड़ती है क्योंकि अपने मवेशियों से उनकी जरूरत पूरी नहीं हो पाती है। आगे और अधिक किसानों को वैकल्पिक स्रोतों की जरूरत पड़ सकती है क्योंकि बीते पांच वर्षों में न सिर्फ मवेशी पालने वाले किसानों की संख्या 79% से घटकर 66% रह गई है, बल्कि उनके पास औसत मवेशी की संख्या भी कम हुई है। इन किसानों के पास पहले औसतन चार मवेशी होते थे, जबकि अब सिर्फ तीन हैं।
ज्यादातर छोटे किसानों को बारिश के पूर्वानुमान की जरूरत होती है और वह उसे पर ध्यान भी देते हैं। 74% किसान बारिश के पूर्वानुमान के अनुसार ही अपनी गतिविधियां तय करते हैं। उदाहरण के लिए 64% इस सूचना से यह निर्णय लेते हैं कि फसल की बुवाई अथवा कटाई कब करनी है, 45% इसके आधार पर यह तय करते हैं कि फसल पर रसायनों का छिड़काव कब करना है। जब बारिश होने वाली होती है तब वह छिड़काव नहीं करते हैं। व्हाट्सएप और मौसम के ऐप जैसे डिजिटल स्रोतों ने किसानों के बीच जगह बनाई है, फिर भी बड़ी संख्या में किसान (62%) इस सूचना के लिए टेलीविजन, अखबार अथवा रेडियो पर निर्भर करते हैं।
अगर छोटे किसानों की जरूरतों को ध्यान में रखा जाए तो क्लाइमेट स्मार्ट खेती काफी लोकप्रिय हो सकती है। उदाहरण के लिए, फंड उपलब्ध कराने वालों को यह सोचना चाहिए कि रसायनों के कम इस्तेमाल से खरपतवार निकालने के श्रम सघन काम पर क्या असर होगा। ऐसे ज्यादातर काम महिलाएं करती हैं। खेत में खाद बनाने को प्रमोट करने वाली नीति बनाते समय किसानों के पास मवेशियों की घटती संख्या को ध्यान में रखना चाहिए। साथ ही यह भी देखना चाहिए कि इससे किसानों के लिए खेत में प्राकृतिक इनपुट देने की क्षमता पर कितना प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु संकट से जुड़े समाधान अलग-थलग रहकर तैयार नहीं किए जा सकते हैं। यह सरकार, निजी क्षेत्र, फंड उपलब्ध कराने वालों और सिविल सोसाइटी सभी पक्षों पर निर्भर करता है कि वे ऐसा सिस्टम तैयार करें जिसमें क्लाइमेट स्मार्ट और रीजेनरेटिव तौर-तरीके से खेती किसानों के लिए बेहतर बिजनेस के अवसर साबित हों। ऐसा न हो कि उन तरीकों से किसानों की चुनौतियों और जोखिमों की लंबी फेहरिस्त में एक और चुनौती जुड़ जाए।
(पुनीत गोयनका और आशीष करमचंदानी, द नज इंस्टीट्यूट में ट्रांसफॉर्मिंग एग्रीकल्चर फॉर स्मॉल फार्मर्स- टीएएसएफ का हिस्सा हैं। यह इंस्टीट्यूट सरकारों, बाजार और सिविल सोसायटी के साथ मिलकर गरीबी-मुक्त भारत के लिए काम करता है)