लोक सभा चुनाव 2024 के नतीजे आ चुके हैं। पिछले दो चुनावों में अपने बूते बहुमत हासिल करने वाली भाजपा बहुमत के आंकड़े से 32 सीट पीछे है। लेकिन कुछ माह पहले फिर से चर्चा में आये राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पास 293 सीटों के साथ बहुमत का आंकड़ा है। इस आंकड़े को बहुमत तक पहुंचाने वाले दो बड़े सहयोगी जनता दल (यू) और तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के प्रमुख नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू का रिश्ता भाजपा के साथ बदलता रहा है। दोनों बीच में कांग्रेस के सहयोगी रहे और अब भाजपा के साथ हैं।
इसके साथ ही यह भी सच है कि पिछले दस साल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चली सरकार "मोदी सरकार" थी जिसे कभी एनडीए सरकार के तौर पर प्रचारित नहीं किया गया। बल्कि भाजपा सरकार की बजाय वह मोदी सरकार के रूप में ही अधिक जानी गई। यही वजह है कि पूरे चुनाव में मोदी की गारंटी और मोदी का चेहरा ही आगे रहा। लेकिन चुनाव नतीजों के बाद जो संभावनाएं हैं उसमें एनडीए की सरकार बनना तय है। इस तरह देश में एक दशक बाद गठबंधन सरकार होगी।
सवाल उठता है कि भाजपा के पिछली बार 303 सीटों के आंकड़े से इस बार 63 सीट घटकर 240 सीटों पर आने की क्या वजह रही है। यही वह सवाल है जो इस गठबंधन की दिशा तय करेगा। असल में इन चुनावों से साफ हो गया है कि भारत में प्रेसिडेंशियल रेफरेंडम जैसा चुनाव नहीं हो सकता है। किसी एक नेता के नाम और काम पर देश की जनता केंद्र सरकार के लिए बहुमत देने को तैयार नहीं है। दूसरे, सरकार के विकास के बड़े दावों पर लोगों को पूरा भरोसा नहीं है क्योंकि जमीनी हकीकत सरकार की दावों से अलग है।
भले ही 8.2 फीसदी की जीडीपी वृद्धि दर हासिल की गई हो लेकिन ग्रामीण आबादी और निम्न मध्य वर्ग की आर्थिक स्थिति कमजोर है। रोजगार लेने की बजाय रोजगार देने वाले जैसे उदाहरण अब लोगों के गले नहीं उतर रहे हैं। बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है जिसे विपक्ष ने भाजपा के खिलाफ भुनाने की कोशिश की और कई जगह कामयाब भी हुआ। देश में अमीरी-गरीब की बढ़ती खाई और आर्थिक असमानता का मुद्दा भी इन चुनावों में छाया रहा। सरकारी विभागों में भर्तियां न होना किस तरह से बेरोजगारों को नाराज कर रहा है वह इन नतीजों में दिखा है।
सरकार कोई भी दावा करती रहे लेकिन मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में रोजगार कम हो रहा है और कृषि पर निर्भरता बढ़ रही है। ऊपर से ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओ के लिए सेना में रोजगार के विकल्प को अग्निवीर योजना ने सीमित कर दिया है। जिसे विपक्षी दलों ने उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे सेना में सबसे अधिक जवान भेजने वाले राज्यों में सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में इस्तेमाल किया है।
ग्रामीण सीटों पर भाजपा को 2019 के मुकाबले इन चुनावों में भारी नुकसान हुआ है। कृषि से जुड़े मसलों पर किसानों की सरकार से नाराजगी है। महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों की ग्रामीण सीटों पर भाजपा को हुआ नुकसान है। किसान आंदोलन, फसलों की वाजिब कीमतों का मुद्दा, निर्यात पर प्रतिबंध, आयात की खुली छूट जैसे मसलों ने किसानों के मत को प्रभावित किया। वहींं, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी व उनके सहयोगियों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी और किसान कर्जा माफी जैसे मुद्दों को भुनाने का प्रयास किया। जबकि भाजपा के चुनाव घोषणा-पत्र में किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था, रोजगार के अवसर और छोटे कारोबारियों के लिए बहुत कुछ कहने को नहीं था। क्योंकि वह जो अभी कर रही है उसी को सही मान रही थी।
इसके साथ ही इस चुनाव की एक बड़ी सीख यह है कि जहां अल्पसंख्यकों और खासतौर से मुसलमानों ने अपने मत का भाजपा के खिलाफ बेहतर उपयोग किया। वहीं हिंदुत्व का मुद्दा हिंदुओं को भाजपा के पक्ष में उस तरह एकजुट नहीं कर सका, जिस तरह 2014 और 2019 में किया था। भाजपा को सबसे बड़ा झटका फैजाबाद सीट का लगा जहां अयोध्या में राम मंदिर को भाजपा की जीत की गारंटी माना जा रहा था।
सब बहुत अच्छा चल रहा है। इस धारणा से भाजपा को बचना होगा। क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था के तेज गति से बढ़ते जाने के बावजूद आम आदमी के लिए स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। महंगाई और बेरोजगारी बड़े मुद्दे हैं। सरकार की मुफ्त अनाज से लेकर घर, शौचालय और उज्जवला जैसी योजनाओं से लाभार्थी बना वर्ग भी अब भाजपा के लिए बड़ा जिताऊ फैक्टर नहीं है, यह भी इस चुनाव में साबित होता दिख रहा है।
ऐस में केंद्र में बनने वाली गठबंधन सरकार की राह आसान नहीं होगी। भाजपा के साथ फिर से आये नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू गठबंधन की राजनीति के दिग्गज राजनेता हैं। वहीं सही मायने में नरेंद्र मोदी के लिए यह पहली गठबंधन पर निर्भर सरकार होगी। जिसमें सहयोगी दल प्रभावी हिस्सेदारी चाहेंगे। साथ ही सरकार के फैसलों में अब सहयोगी दलों की राय के मायने होंगे। ऐसे में तथाकथित बड़े फैसलों के लिए गठबंधन धर्म निभाने की शर्त जुड़ जाएगी। इसकी पहली परीक्षा तो भावी सरकार के मंत्रिमंडल गठन में होगी। उसके बाद सहयोगी दलों की मांगों का दबाव रहेगा। बिहार और आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग उठ सकती है। विपक्षी दल इस मांग पर पहले ही जोर देते रहे हैं। सरकार में हिस्सेदारी लेने वाले जदयू और टीडीपी पर इस मांग का दबाव रहेगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के दौरान सरकारी अधिकारियों से नई सरकार के लिए जो 100 दिन का एजेंडा बनवाया था, उसमें शामिल कई फैसलें गठबंधन की विवशता से बाधित हो सकते हैं या ठंडे बस्ते में जा सकते हैं। हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जब प्रधानमंत्री दस साल से सरकार चला रहे हैं अब 100 दिन के एजेंडा की बात करना उचित नहीं है। बहरहाल दस साल बाद देश में गठबंधन सरकार बनेगी। हालांकि गठबंधन सरकारों में देशहित के कई महत्वपूर्ण काम हुए हैं। ऐसी ही उम्मीद नई सरकार से भी रहेगी।