हाल में गुजरात के गांधीनगर में 49वीं डेयरी इंडस्ट्री कॉन्फ्रेंस का आयोजन हुआ। यह डेयरी इंडस्ट्री के एक बड़े समागम के साथ इसकी उपलब्धियों का उत्सव मनाने का भी अवसर था। गुजरात में इस सालाना कॉन्फ्रेंस का आयोजन 27 वर्षों के बाद, 16 से 18 मार्च 2023 के दौरान किया गया।
केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने इस कॉन्फ्रेंस का शुभारंभ किया तथा केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में भारतीय दुग्ध सम्मेलन (इंडियन डेयरी समिट) का आयोजन हुआ। सर्वोच्च स्तर के नीति निर्माताओं और डेयरी इंडस्ट्री के शीर्ष एग्जीक्यूटिव्स ने इंडस्ट्री की उपलब्धियों की सराहना करते हुए इस सेक्टर के भविष्य के लक्ष्य भी निर्धारित किए। यह कॉन्फ्रेंस की केंद्रीय थीम ‘भारतः दुनिया की डेरीः अवसर एवं चुनौतियां’ के बिल्कुल उपयुक्त था।
भारत ने कुछ ही दिनों पहले आजादी का 75 वर्षों का जश्न मनाया है। भारत के विकास की गाथा डेयरी इंडस्ट्री का जिक्र किए बिना अधूरी रहेगी। डॉ. वर्गीज कुरियन तथा अन्य की अगुवाई में जो श्वेत क्रांति हुई, उसने भारत को 1970 के दशक में दूध की कमी वाले देश से दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक में तब्दील कर दिया है। भारत लगातार कई वर्षों से दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक बना हुआ है। यह कहना इस उपलब्धि को कमतर आंकना होगा कि डेयरी फार्मिंग भारत में नाटकीय रूप से बढ़ी है। हकीकत तो यह है कि ग्रामीण भारत में यह पारंपरिक खेती के पूरक तथा सशक्तीकरण के एक औजार के रूप में विकसित हुई है।
भारत अभी दुनिया का 23% दूध उत्पादन करता है। अमित शाह ने अगले 10 वर्षों में इसे बढ़ाकर 33% तक पहुंचाने का लक्ष्य दिया है। यह निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण लक्ष्य नहीं है। बीते 10 वर्षों के दौरान दुनिया का दूध उत्पादन तो सालाना 1 से 2 फ़ीसदी की दर से बढ़ा है जबकि भारत में इसकी वृद्धि दर 5% रही है। उत्पादन की मात्रा कोई चुनौती नहीं है, लेकिन उसकी गुणवत्ता को बरकरार रखना निश्चित रूप से चुनौती है।
देश में अब भी ज्यादातर दूध असंगठित क्षेत्र में बेचा जाता है जहां प्रोसेसिंग और गुणवत्ता मानकीकरण पर कोई नियंत्रण नहीं होता। कोऑपरेटिव सिस्टम और आनंद के पैटर्न पर हम छोटे किसानों की ताकत को एकजुट करने और उसे 14899 अरब डॉलर (IMAARC ग्रुप रिपोर्ट, जनवरी 2023) का उद्योग बनाने में सफल रहे हैं, लेकिन इसका बहुत कम हिस्सा निर्यात किया जाता है। उचित प्रोसेसिंग तो और भी कम होती है। अगर हमने दुनिया की डेयरी बनने का लक्ष्य निर्धारित किया है तो सिर्फ उत्पादन बढ़ाना पर्याप्त नहीं होगा। हमें दूध के स्टोरेज, ट्रांसपोर्ट, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग सबमें समान रूप से सक्षम होना पड़ेगा। दूध से बने उत्पादों की प्रोफाइल का विस्तार करने और उन्हें सुधारने की भी जरूरत है।
देश में रोजाना 22 करोड़ टन दूध का उत्पादन होता है। यह लगभग 58 करोड़ लीटर प्रतिदिन बैठता है। हमारी मौजूदा दूध प्रोसेसिंग क्षमता 11 करोड़ लीटर प्रतिदिन की है। जाहिर है कि क्षमता का 100% इस्तेमाल किया जाए तब भी बड़ी मात्रा में दूध की प्रोसेसिंग नहीं की जा सकती है। बाकी दूध का कच्चा इस्तेमाल नहीं होता, इसकी प्रोसेसिंग असंगठित क्षेत्र में की जाती है। अभी 70% दूध को प्रोसेसिंग के लिए खरीदा जाता है और इसकी प्रोसेसिंग स्थानीय मिठाई की दुकानों, त्योहारों तथा घरों में विभिन्न उत्पाद बनाने के रूप में होती है जो असंगठित है। यह बड़े पैमाने पर डिरेगुलेटेड है। इससे विशाल ग्रामीण और अर्ध-शहरी आबादी की जरूरतें भले पूरी हो रही हों, यह भी सच है कि इसमें स्वास्थ्य और सफाई को लेकर चिंता रहती है।
दूध के मामले में हमारी क्षमता का पूरा इस्तेमाल ना होने का एक और उदाहरण कम डेयरी निर्यात है। दुनिया के डेयरी ट्रेड में भारत का हिस्सा नगण्य है। नीति आयोग के वर्किंग ग्रुप की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार 1990 के दशक में भारत में दूध का उत्पादन घरेलू मांग से अधिक हो गया था और वह ट्रेंड अभी तक बना हुआ है। अभी भारत मुख्य रूप से बटर, घी और दूध पाउडर का निर्यात मध्य पूर्व, बांग्लादेश और मलेशिया को करता है। दूध के प्रमुख आयातक देश जर्मनी, चीन, नीदरलैंड और फ्रांस हैं तथा डेयरी ट्रेड का आधा तरह-तरह के चीज उत्पादों के रूप में होता है। भारत में चीज उत्पादन का प्राकृतिक लाभ नहीं है, लेकिन हमारे पारंपरिक दुग्ध उत्पाद हैं जिन्हें दुनिया भर में फैले भारतीय मूल के लोगों के बीच प्रमोट किया जा सकता है। हमारी पारंपरिक मिठाईयां तथा अन्य उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए बड़े निवेश की जरूरत होगी ताकि उन उत्पादों की शेल्फ लाइफ बढ़ाई जा सके और उनकी उच्च स्तर की गुणवत्ता निर्धारित की जा सके। इस प्रक्रिया में जाहिर है कि बैकवर्ड लिंकेज को मजबूत करना पड़ेगा। गुणवत्ता की प्रक्रिया के साथ ग्लोबल पहचान के लिए एक मजबूत ब्रांड स्थापित करने की भी जरूरत पड़ेगी।
स्पष्ट है कि आने वाले समय में मौजूदा और संगठित डेयरी बाजार में औपचारीकरण और मानकीकरण बढ़ाना पड़ेगा। अक्सर देखा गया है कि किसी भी प्रोडक्ट का जब उद्योगीकरण होता है तो सबसे निचले स्तर के कर्मियों और उत्पादकों का शोषण होने लगता है। सबसे खराब स्थिति तब होती है जब चुनिंदा कंपनियों का एकाधिकार हो जाता है और छोटे इनपुट प्रदान करने वालों की मोलभाव करने की क्षमता खत्म हो जाती है। लेकिन दूध के मामले में हमने देखा है कि मजबूत कॉपरेटिव नेटवर्क के जरिए इस आशंका को दूर किया जा सकता है। हमने देखा है कि दूध उद्योग के विकास के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में दुग्ध किसानों की संपन्नता भी बढ़ी है।
डेयरी इंडस्ट्री कॉन्फ्रेंस के शुभारंभ के मौके पर इंडियन डेयरी एसोसिएशन के प्रेसिडेंट डॉ आर एस सोढ़ी ने बताया कि 27 वर्ष पहले जब गुजरात में पिछली कॉन्फ्रेंस आयोजित हुई थी, उसके बाद राज्य में डेरी इंडस्ट्री किस तरह बदल गई है। गुजरात ना तो देश का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है ना ही यहां सबसे अधिक दूध देने वाले मवेशी रहते हैं। लेकिन संगठित क्षेत्र में सबसे अधिक डेयरी किसान यहीं हैं। ये किसान कोऑपरेटिव और मेंबर प्रोड्यूसर कंपनियों के साथ जुड़े हुए हैं। इसलिए गुजरात किसानों से खरीदे गए दूध की मार्केटिंग में अव्वल है। पूरे देश में कोऑपरेटिव तथा मेंबर प्रोड्यूसर कंपनियां जितना दूध खरीदती हैं उसका 40% गुजरात से आता है। पूरे देश में जो कोल्ड स्टोरेज क्षमता है उसका 30% गुजरात की कोऑपरेटिव के पास है।
यह सफलता निश्चित रूप से डेयरी सेक्टर में इनोवेटिव टेक्नोलॉजी को लागू करने से हासिल हुई है। इसमें किसानों और कोऑपरेटिव के बीच मजबूत साझेदारी का भी बड़ा योगदान है। कोऑपरेटिव का सिद्धांत है कि किसान जो भी दूध लाएगा उसे पूरा खरीदा जाएगा। इससे किसानों को आजीविका के स्थायी स्रोत का भरोसा मिलता है। बेहतर वसा (फैट कंटेंट) के आधार पर दाम अलग होने के कारण किसानों में दूध की क्वालिटी सुधारने के लिए भी प्रतिस्पर्धा रहती है। दूध उत्पादन की मात्रा बढ़ाने और ब्रीड तथा फीड की क्षमता सुधारने का काम एक मजबूत संस्थागत और नॉलेज सपोर्ट के बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। गुजरात के डेरी किसानों को यह सब उनके कोऑपरेटिव से हासिल होता है।
गुजरात के कोऑपरेटिव की सफलता दशकों से सराही जाती रही है। विभिन्न राज्यों और अलग-अलग सेक्टर में इस मॉडल को अपनाया गया लेकिन हर जगह सीमित सफलता ही मिली। यहां कॉमर्शियल सफलता हासिल करने के साथ किसान कल्याण का भी सिद्धांत है। इस सिद्धांत को व्यवहार में बदलने के भी अनेक दृष्टांत हैं। गुजरात में हमने अनियंत्रित विकास को सस्टेनेबल विकास में बदल दिया है। ऐसे समय जब देश डेयरी क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल करने की ओर बढ़ रहा है, इंडस्ट्री यह नहीं भूल सकती कि यह करोड़ों डेयरी किसानों तथा उन मवेशियों के दम पर संभव है जिन्हें किसान अपने परिवार का अंग मानते हैं। डेयरी इंडस्ट्री में दीर्घकालिक प्रभाव वाले तथा सस्टेनेबल विकास के लिए हमें डेयरी किसानों के साथ बेहतर साझेदारी करनी पड़ेगी तथा पूरे देश में डेयरी पशुओं की उत्पादकता बढ़ानी पड़ेगी। दूध किसानों के आधार को मजबूत बनाकर ही हम इंडस्ट्री के लिए पर्याप्त मात्रा तथा गुणवत्ता सुनिश्चित कर सकते हैं। उसके बाद ही इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रोसेसिंग और दूध उत्पादों के निर्यात में बढ़ोतरी संभव है। यह कोई एक बार का काम नहीं, बल्कि एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें हर एक दूसरे को आगे बढ़ने में मदद करता है।
49वीं डेयरी इंडस्ट्री कॉन्फ्रेंस का समापन इस इंडस्ट्री के सामने मौजूद अवसरों और चुनौतियों पर चर्चा के साथ हुआ। कई तरह के टेक्नोलॉजिकल इनोवेशन, नए बाजार, नीतिगत मदद तथा रिसर्च पर उद्यमियों, शिक्षाविदों तथा नीति निर्माताओं ने चर्चा की। लेकिन हमें इस प्रक्रिया में डेयरी किसानों को भी शामिल करना चाहिए और डेयरी क्षेत्र में भारत की उत्कृष्टता की ओर बढ़ने में उन्हें भी साथ रखना चाहिए।
(प्रोफेसर डॉ. जे.बी. प्रजापति वर्गीज कुरियन सेंटर ऑफ एक्सीलेंस, इंस्टीट्यूट ऑफ़ रूरल मैनेजमेंट आनंद के चेयरपर्सन हैं। डेयरी क्षेत्र में उनका 40 वर्षों का अनुभव है। वे इंडियन डेयरी एसोसिएशन, वेस्ट जोन के चेयरमैन भी हैं। हर्षदा सामंत, वर्गीज कुरियन सेंटर ऑफ एक्सीलेंसइसी सेंटर में रिसर्च फेलो हैं और एग्रीबिजनेस इकोनॉमिक्स उनका कार्यक्षेत्र है)