ग्रामीण अर्थव्यवस्था काफी जटिल है। इसमें कृषि के साथ उद्योग और सेवाएं भी हैं। लेकिन वहां ज्यादातर गतिविधियां असंगठित क्षेत्र में होती हैं। इनमें शहरी इलाकों की तुलना में आमदनी कम होती है। यही कारण है कि देश की 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण होने के बावजूद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उनका योगदान शहरी क्षेत्रों की तुलना में बहुत कम है।
रोजगार के पर्याप्त अवसर न होने के चलते ग्रामीण क्षेत्र में समस्या ज्यादा है, हालांकि कृषि और असंगठित क्षेत्र को श्रम सघन माना जाता है। इन समस्याओं के चलते गांव से शहर की ओर लोगों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है। यह पलायन सिर्फ मौसमी नहीं, बल्कि स्थायी भी है। पहले जो चुपचाप होता था, वह लॉकडाउन के दौरान काफी खुलकर हुआ। लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए पैदल अपने गांव की ओर जा रहे थे। दुनिया की अन्य किसी बड़ी अर्थव्यवस्था में ऐसा पलायन कभी नहीं दिखा।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था का इस तरह हाशिए पर जाना नीति निर्माताओं के उस फोकस का नतीजा है जिसमें संगठित अर्थात अर्थव्यवस्था के आधुनिक हिस्से को वरीयता दी जाती है। अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण पश्चिम की आधुनिकता की नकल के तौर पर हुआ है। भारत में आधुनिकता के अपने तरीके का प्रयास नहीं किया गया। ऐसा प्रयास जो ग्रामीण इलाकों में बड़ी तादाद में रहने वाले लोगों की जरूरतें पूरी कर सके। इसलिए आश्चर्य नहीं कि खपत में सबसे महत्वपूर्ण सामग्री, यानी खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने वाला कृषि क्षेत्र हाशिए पर चला गया।
आजादी के बाद से नीतियां ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित रही हैं। इस सिद्धांत के अनुसार आधुनिक सेक्टर आगे बढ़ेंगे और उनके फायदे छनकर हाशिए पर पड़े सेक्टर तक पहुंचेंगे। यह उम्मीद भी लगाई गई कि आधुनिक सेक्टर विकास करेगा और पिछड़े क्षेत्रों को अपने में शामिल कर लेगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि आधुनिक सेक्टर काफी पूंजी सघन है और इसमें रोजगार के अवसर ज्यादा नहीं निकलते। इसलिए जो लोग पिछड़े क्षेत्रों में कार्यरत थे वे वहीं रह गए। सिर्फ यही नहीं, आमदनी का बड़ा हिस्सा भी उन लोगों के हक में गया जो आधुनिक सेक्टर में हैं। बाकी सेक्टर में काम करने वालों को आमदनी का मामूली हिस्सा ही मिला।
यह भी दुर्भाग्य है कि असंगठित क्षेत्र में अधिकांश के आंकड़े स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए इनके प्रदर्शन को भी संगठित क्षेत्र के समान मान लिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि आर्थिक आंकड़े हकीकत से ज्यादा अच्छे नजर आते हैं। संगठित क्षेत्र भले ही आगे बढ़ रहा हो, असंगठित क्षेत्र स्पष्ट रूप से नीचे जा रहा है। इसलिए इस तरीके से भारत के आर्थिक प्रदर्शन का आकलन गलत है। वास्तविक आर्थिक विकास को दर्शाने के लिए इस तरीके में बदलाव की जरूरत है।
ग्रामीण क्षेत्र का नजरअंदाज और उपनिवेशीकरण
पहले नोटबंदी, उसके बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी), एनबीएफसी संकट और फिर लॉकडाउन, इन सबने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया ह, जबकि सरकारी आंकड़ों में इन्हें कहीं नहीं दिखाया जाता है। अगर असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों को भी शामिल किया जाए तो आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 7% से अधिक नहीं, बल्कि नकारात्मक होगी। इस तरह यह सेक्टर न सिर्फ आंकड़ों में हाशिए पर रहता है बल्कि नीतियों में भी इसे जगह नहीं मिल पाती है। इस खामी भरे आंकड़ों के बूते अगर अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ती दिख रही हो तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट को दूर करने के लिए विशिष्ट नीतियों को अपनाया ही नहीं जाएगा। होता यह है कि सिर्फ फौरी राहत दी जाती है, समस्या का समाधान नहीं किया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामीण क्षेत्र को आंकड़ों और नीति दोनों में अदृश्य कर दिया जाता है।
काले धन की अर्थव्यवस्था इस तस्वीर को और अधिक पेचीदा बना देती है। काला धन संगठित क्षेत्र में ही पैदा होता है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र में ज्यादातर लोगों की आमदनी आयकर सीमा से कम ही होती है। दूसरी ओर काले धन पर लगाम लगाने के नाम पर असंगठित क्षेत्र में डिजिटाइजेशन, फॉर्मलाइजेशन जैसी नीतियां लागू की जाती हैं। इनसे असंगठित क्षेत्र को और नुकसान होता है। यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि काले धन की मौजूदगी के कारण आंकड़े और अधिक गलत हो जाते हैं। इसलिए जो नीतियां बनती हैं, वह गलत आंकड़ों के आधार पर ही बनती हैं। यह सच्चाई है कि काला धन चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है। इसलिए उनके और गरीबों के बीच असमानता काफी बढ़ी है। सरकारी आंकड़ों में इस हकीकत को भी शामिल नहीं किया जाता है।
कुल मिलाकर देखें तो असंगठित क्षेत्र न सिर्फ हाशिए पर रहता है बल्कि वह संगठित क्षेत्र के उपनिवेशीकरण का भी शिकार होता है। संगठित क्षेत्र का विकास असंगठित क्षेत्र की कीमत पर होता है क्योंकि असंगठित क्षेत्र ही संगठित क्षेत्र को बाजार उपलब्ध कराता है। यह ठीक उसी तरह है जैसा अंग्रेजी शासन के दौरान ब्रिटिश इंडस्ट्री के लिए भारत बाजार मुहैया कराता था।
असंगठित क्षेत्र को इस तरह हाशिए पर किया जाना और उसका उपनिवेशीकरण 1991 में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अधिक तेजी से बढ़ा। ये नीतियां आधुनिक सेक्टर और बड़ी इंडस्ट्री के लिए ज्यादा मुफीद हैं। 1947 से जो नीतियां लागू थीं, उनके विपरीत नई आर्थिक नीतियां असंगठित क्षेत्र के लिए जुबानी खर्च भी नहीं करती हैं। यहां तक कि कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के लिए भी वे आधुनिकीकरण और मशीनीकरण की बात करते हैं, जबकि भारत के विशाल ग्रामीण आबादी की जरूरतें इन तरीकों से पूरी नहीं हो सकती हैं।
कृषि क्षेत्र में लोगों को रोजगार देने की लोचता शून्य रह गई है। गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या सीमित है इसलिए लोग वहीं फंस कर रह गए हैं। इसका नतीजा बड़े पैमाने पर ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ है। इससे गरीबी और बढ़ती है क्योंकि निर्भरता अनुपात बढ़ जाता है। आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र के सरप्लस का इस्तेमाल शहरीकरण और उद्योगीकरण के लिए किया जाता रहा। किसान के लिए व्यापार के नियम कभी अनुकूल नहीं रहे। शहरीकरण और उद्योगीकरण दोनों काफी खर्चीले हैं, इसलिए ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत कम संसाधन रह जाते हैं जिसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ता है।
मार्जिनलाइजेशन का मैक्रोइकोनॉमी पर प्रभावः बढ़ती अस्थिरता
असंगठित क्षेत्र भारत के 94% कार्यबल को रोजगार उपलब्ध कराता है और जीडीपी में 45% का योगदान करता है। जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 14% है। इसकी अनदेखी से मैक्रोइकोनॉमी को नुकसान होता है। इससे डिमांड में कमी आती है और अर्थव्यवस्था की गति धीमी होती है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था के बढ़ने की दर हर तिमाही घटती हुई 8% से 3.1% (2019 की चौथी तिमाही में) तक पहुंच गई। उसके ठीक बाद कोविड-19 महामारी ने भारत को अपनी गिरफ्त में लिया।
इन आंकड़ों पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब अर्थव्यवस्था के इतने बड़े हिस्से की अनदेखी होगी तो क्रय शक्ति कम होगी तथा गैर ग्रामीण क्षेत्र की विकास दर भी घटेगी। अगर अमीरों की बजाय गरीबों की आमदनी बढ़ी तो खपत भी बढ़ेगी। गरीबों की अनेक बुनियादी जरूरतें होती हैं। वे उन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी अतिरिक्त आमदनी खर्च करेंगे। जैसे कपड़े, भोजन आदि। संपन्न लोगों की आय बढ़ने पर आमतौर पर वे उसकी बचत करते हैं। जब तक उस अतिरिक्त आय का नए बिजनेस अथवा उद्योग में निवेश न किया जाए तब तक उससे अतिरिक्त मांग नहीं बढ़ती है।
संपन्न वर्ग की आय अधिक बढ़ी और उन्होंने निवेश ज्यादा किया तो असमानता भी बढ़ती रहेगी। अगर निवेश कम होता है तो मांग में भी कमी आएगी जिसका नतीजा अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट के रूप में सामने आएगा। यह किसी भी अर्थव्यवस्था में असमानता और अस्थिरता बढ़ाने की अच्छी रेसिपी है।
कृषि क्षेत्र की चुनौतियां
कृषि क्षेत्र जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनसे भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर होता है, क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा कृषि पर ही आश्रित है। गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त नौकरियां उपलब्ध न होना एक बड़ा मुद्दा है। बड़ी संख्या में लोग सिर्फ इसलिए खेती में जुटे हुए हैं क्योंकि उनके पास कहीं और जाने का उपाय नहीं है। इससे ग्रामीण परिवारों में गरीबी की समस्या और बढ़ जाती है। किसानों के खेत का आकार बहुत छोटा रह गया है। 85% किसानों के खेत 5 एकड़ से भी कम के हैं। ज्यादातर छोटे खेत ऐसे हैं कि उनसे पूरे परिवार के लिए पर्याप्त आमदनी नहीं हो सकती। आय का दूसरा विकल्प उनके लिए महत्वपूर्ण होता है।
सरप्लस के लीकेज का यह मतलब भी है कि निवेश और तकनीकी बदलाव लागू करने के लिए संसाधन कम रह जाते हैं, जिनसे आमदनी बढ़ाने में मदद मिल सके। इसका यह मतलब भी है कि बच्चों की अच्छी शिक्षा या जरूरत के समय परिवार को अच्छी स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए लोगों के पास पर्याप्त पैसा नहीं होता। इस तरह परिवार का भविष्य सुधारने का अवसर खत्म हो जाता है और गरीबी बनी रहती है। सरकार का दावा है कि वह 80 करोड़ लोगों को मुफ्त भोजन उपलब्ध करा रही है। इसके बावजूद ग्रामीण इलाकों में गरीबी है। अर्थात अगर मुफ्त भोजन उपलब्ध न कराया जाता तो लोगों की गरीबी और अधिक होती। इसका यह अर्थ भी है कि इन लोगों को जो भी काम मिलता है उसके बदले उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते कि वे अपना जीवन चला सकें। नतीजा, वे गरीब रह जाते हैं।
कृषि क्षेत्र की कमजोरी का एक कारण यह भी है कि खेती करने वाले परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। इस वजह से बाजार में अपनी उपज की अधिक कीमत मांगने की उनकी क्षमता नहीं होती। गरीबी के कारण छोटे किसान व्यापारियों और साहूकारों की गिरफ्त में होते हैं। इसलिए किसानों को व्यापारियों और साहूकारों का मार्जिन चुकाने के बाद ही थोड़ी बहुत कमाई होती है। कई बार उनका मार्जिन बहुत ज्यादा होता है।
इसलिए किसान सरकार की तरफ से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित करने पर निर्भर रहते हैं। एमएसपी किसानों और व्यापारियों के लिए एक बेंचमार्क का काम करता है। दुर्भाग्यवश इसे लागू करने की व्यवस्था भी बहुत कमजोर है। इसी तरह कृषि मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन लागू करने की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए बड़ी संख्या में किसान और कृषि मजदूर को मामूली आमदनी ही होती है।
खेती की लागत बढ़ती जा रही है जबकि कीमतें उस अनुपात में नहीं बढ़ाई गई हैं। इससे किसानों की आमदनी कम हुई है। अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए उनके पास एकमात्र जरिया यह है कि वे खेतिहर मजदूरों को कम पैसे दें। इसका असर यह होता है कि खाद्य पदार्थों की मांग कम हो जाती है और कृषि उपज की बाजार कीमत भी घटती है।
ज्यादातर फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ना होने का पर्यावरण पर भी असर होता है। धान, गेहूं और गन्ना जैसी फसलें बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं क्योंकि किसानों को इनमें ही लाभ होता है। मिलेट, तिलहन, दलहन जैसी अन्य आवश्यक फसलों के बजाय किसान फायदे वाली फसलों को उपजाते हैं। इनमें से कई फसलों की देश में कमी होती है जिसकी पूर्ति आयात से की जाती है। यही नहीं, किसान ऐसी फसलें भी उगाते हैं जो उनके कृषि जलवायु क्षेत्र के माफिक नहीं होता है। उदाहरण के लिए धान और गन्ना जैसी पानी का अधिक इस्तेमाल करने वाली फसलों की खेती अर्ध शुष्क इलाकों में की जाती है। इस तरह की नीति हर तरीके से पर्यावरण के लिए समस्या खड़ी करती है।
अधिक पैदावार के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल बड़े स्तर पर किया जाता है। इससे मिट्टी का क्षरण और पीने का पानी प्रदूषित हो रहा है। इसका परिणाम अनेक तरह की बीमारियां हैं। कृषि में मशीनीकरण और गैर कृषि क्षेत्र में ऑटोमेशन बढ़ने से गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियों की संख्या भी कम हो रही है।
राजनीतिक चुनौतियां और सुधार की जरूरत
किसी भी लोकतंत्र में संख्या के लिहाज से अधिक किसान और ग्रामीण समुदाय अपने आप को हाशिए पर क्यों पाता है? इसका कारण यह है कि कृषि में अनेक आर्थिक हित होते हैं। किसानों की ही अनेक श्रेणियां हैं- अमीर, मध्यवर्गीय और छोटे, सिंचाई वाले और तथा बिना सिंचाई वाले क्षेत्रों में खेती करने वाले, फिर भूमिहीन मजदूर और छोटे किसान भी हैं जिनके पास खेती की जमीन बहुत कम होती है। इन सबके बीच हितों में टकराव होता है और उन्हें दूर करने की कोशिश भी नहीं की जाती है। राजनीतिक दल इसका फायदा उठाते हैं। जो किसान राजनीति में आते हैं वे अक्सर संपन्न होते हैं। उनके अपने बिजनेस हित होते हैं। वे देर-सबेर शहरी और बिजनेस एलीट वर्ग के लिए काम करना शुरू कर देते हैं।
जरूरत इस बात की है कि ग्रामीण क्षेत्र और किसानों के नेता अपने आप ही मतभेद दूर करें। उनके मतभेद आपस में उतने नहीं होते जितने गैर-कृषि और शहरी हितों से होते हैं। अगर वे सभी फसलों के लिए ऐसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग करें, जिसकी गणना कृषि मजदूरों की आजीविका पर आधारित हो, तो वह नाकाम नहीं होंगे। उन्हें फायदा होगा, क्योंकि उनकी उपज की मांग निकलेगी और बाजार में उनकी उपज की संभवतः एमएसपी से अधिक कीमत भी मिलेगी। इस तरह एमएसपी लागू करने की समस्या भी खत्म हो जाएगी।
जाहिर है कि इसका असर महंगाई बढ़ाने वाला होगा। मध्यवर्ग के साथ-साथ बिजनेस वर्ग भी इसका विरोध करेगा क्योंकि उन्हें अपने कर्मचारियों को अधिक वेतन देना पड़ेगा। लेकिन क्या मध्य वर्ग और विजनेस वर्ग का जीवन स्तर कृषि मजदूरों और ग्रामीण क्षेत्र की कीमत पर होना चाहिए? यह न्याय नहीं है। अर्थव्यवस्था में महंगाई का असर कम करने के लिए किसानों को अप्रत्यक्ष कर घटाने, प्रत्यक्ष कर बढ़ाने और काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण करने की मांग करनी चाहिए। उन्हें ‘पूर्ण रोजगार’ के साथ कृषि मजदूरों के लिए उचित वेतन की भी मांग करनी चाहिए ताकि गरीबी दूर हो। कुल मिलाकर कहा जाए तो अर्थव्यवस्था के लिए एक संपूर्ण पैकेज की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं का समाधान मैक्रोइकोनॉमी में निहित है।