हम सभी यह सुन-सुन कर बड़े हुए हैं कि भारत गांवों में बसता है। मैं 500 से ज्यादा गांवों की यात्रा कर चुका हूं और खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि भारत न केवल गांवों में बसता है, बल्कि इसका भविष्य भी वहीं निहित है। इसका नमूना देखिए। हमारे देश में लगभग 6 लाख गांव हैं जो किसी भी देश की तुलना में अधिक हैं। यहां के 65 फीसदी नागरिक गांवों में रहते हैं जो दुनिया की किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था की ग्रामीण आबादी से ज्यादा है। चीन में 38 फीसदी, जर्मनी में 22 फीसदी, ब्रिटेन में 16 फीसदी, जापान में 8 फीसदी और अमेरिका में 13 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं।
हमारे 6 लाख गांव क्षमताओं और संभावनाओं के मामले में सोने की खान हैं। यदि अच्छी तरह से इनका इस्तेमाल किया जाए तो खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण पलायन सहित हमारी ज्यादातर समस्याओं का समाधान हो सकता है। कोविड की चपेट में आने से बहुत पहले ही बजाज फाउंडेशन गांवों की क्षमता के प्रति सजग हो गया था। कोविड ने हमारे आर्थिक मॉडल की कमजोरियों को उजागर कर दिया था। उस दौरान हर कोई बेहतर जिंदगी और आजीविका के लिए शहरों से गांवों की ओर भाग रहा था। आज हमारे पास महाराष्ट्र और राजस्थान में सैकड़ों ऐसे गांव हैं जो अपनी आबादी के लिए पर्याप्त, सुरक्षित और पौष्टिक भोजन का उत्पादन करते हैं और ऐसा जीवन भी मुहैया कराते हैं जो हमारे शहरों में नहीं है।
वर्धा इसका एक अच्छा उदाहरण है। कभी पानी की कमी वाला यह क्षेत्र जो किसानों की आत्महत्याओं के लिए बदनाम था, अब लखपति किसानों वाला इलाका है। यहां के लगभग 21,000 किसानों ने प्राकृतिक खेती को अपना लिया है। वे अपने खेतों में कीटनाशकों और रसायनों के बगैर सभी तरह के अनाज, सब्जियां और फल उगा रहे हैं और स्थानीय बाजार में बेच रहे हैं। इनमें से कई किसान तो शहरों से वापस गांव लौटे हैं। वे दोबारा शहरों में रहने के लिए नहीं जाना चाहते। इतने खुशहाल वे पहले कभी नहीं रहे।
वर्षों से रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल और सिंचाई की असुविधा आदि के कारण मिट्टी की उर्वरता में कमी से पीड़ित कृषक समुदायों पर हमने ध्यान केंद्रित किया। हमने उन्हें प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए प्रेरित किया और जहां आवश्यक था वहां जल संसाधन प्रबंधन में उनकी मदद की। 2010 में मैं जब पद्मश्री सुभाष पालेकर जी से मिला तो प्राकृतिक खेती की ओर मेरा रुझान बढ़ा। तब से मैं उनका प्रशंसक हूं। प्राकृतिक खेती प्राचीन कृषि तकनीकों से प्रेरित है जिसके केंद्र में गाय का गोबर और गोमूत्र है। यह आत्मनिर्भर, घरेलू उत्पादित, कम लागत और पर्यावरण के अनुकूल है। लाभार्थी किसान एक देसी गाय के साथ 30 एकड़ तक जमीन में खेती कर रहे हैं। वे इनपुट लागत को काफी हद तक कम करने और मिट्टी की उर्वरता, स्वाद और फसल की शेल्फ लाइफ (जीवन चक्र) में सुधार करने में भी कामयाब हुए हैं।
किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) की बदौलत उन्हें अपनी उपज का सही मूल्य भी मिल रहा है। जैसा कि आप जानते हैं, एफपीओ किसानों को बिना बिचौलियों के सीधे बाजार तक पहुंचने में सक्षम बनाता है। किसान एफपीओ के अन्य लाभ भी उठा रहे हैं। एफपीओ हमारे मॉडल का अभिन्न अंग हैं। यह देखकर बहुत खुशी होती है कि अधिक से अधिक एफपीओ आ रहे हैं। एफपीओ की खरीद के अलावा कस्बों और शहरों में भी खरीदार बनाने की योजना है ताकि “गांव का पैसा गांव में और शहर का पैसा भी गांव में” आए।
धीरे-धीरे ही सही लेकिन निश्चित रूप से अधिक से अधिक किसान प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं। किसान एक दूसरे को प्राकृतिक खेती और मार्केटिंग के गुर सिखा रहे हैं और इस कारवां को बढ़ाने में मदद कर रहे हैं। जो इस कारवां में शामिल नहीं हो पा रहे हैं उनकी फसल खरीदकर वे उनका समर्थन कर रहे हैं। यह बहुत खुशी की बात है। मुझे बीते जमाने का मशहूर गाना "जोत से जोत जलाते चलो" याद आ गया। यह गति पकड़ रहा है। छोटे पैमाने पर कृषि आधारित उद्योगों की स्थापना इसे आगे बढ़ाने में और प्रेरक होगी।
“आत्मनिर्भर गांव” बजाज फाउंडेशन के लिए सिर्फ एक नारा नहीं, यह एक मिशन है। व्यक्तिगत, घरेलू और सामुदायिक स्तरों पर सावधानी से चुने गए हस्तक्षेपों के माध्यम से गांवों को आत्मनिर्भर, मजबूत आर्थिक इकाइयों में बदलने का मिशन। हम अब अपने मॉडल को उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में ले गए हैं और जल्द ही इसे देश के अन्य हिस्सों में भी ले जाने का इरादा रखते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर गांव के सपने को हकीकत में बदलते हुए देखना बहुत खुशी की बात है। मैं उत्साहित हूं।
(अपूर्व नयन बजाज, बजाज फाउंडेशन के ट्रस्टी हैं। वह आत्मनिर्भर गांव की अवधारणा पर केंद्रित ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव की पहल के कार्यों को लेकर गंभीरता के साथ काम कर रहे हैं। साथ ही राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के जिन गावों में बजाज ट्रस्ट इस लक्ष्य को लेकर अपने कार्यक्रम चला रहा है उन स्थानों पर वह खुद जाकर समय-समय पर कार्यों की प्रगति का जायजा लेते हैं )