उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय अहम मुद्दा, वोट मांगने आए प्रत्याशियों से इस पर सवाल करें

2021-22 के उत्तर प्रदेश के बजट में ट्रांसपोर्ट, पुलिस, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, ऊर्जा, समाज कल्याण, पोषण, शहरी विकास, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण, जल आपूर्ति तथा सैनिटेशन के लिए जो बजट प्रावधान किए गए वह 2020-21 के प्रावधान की तुलना में अधिक है। लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण सेक्टर के लिए किए गए आवंटन पिछले साल की तुलना में कम हैं

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए दो चरणों के मतदान हो चुके हैं और 20 फरवरी को तीसरे चरण का मतदान होना है। शुरू से ही राजनीतिक पार्टियां सघन प्रचार अभियान चला रही हैं। सोशल मीडिया पर तमाम तरह के कमेंट और वीडियो चल रहे हैं। केंद्र सरकार के ज्यादातर वरिष्ठ मंत्री भी प्रचार अभियान में जुटे हैं और मतदाताओं को रिझाने का प्रयास कर रहे हैं। प्रदेश की राजनीति में ऐसा संभवत: पहली बार हो रहा है। मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए छोटी-छोटी बातों को भी मुद्दा बनाकर पेश किया जा रहा है। लेकिन जो लोग थोड़े जागरूक हैं वह अपनी बातें ना सिर्फ उठा रहे हैं बल्कि राजनीतिक दलों को भी झुकने के लिए मजबूर कर रहे हैं। ऐसे मतदाताओं में सबसे ऊपर किसान हैं जो आमदनी दोगुनी किए जाने, बजट में किसानों के लिए प्रावधान, रोजगार जैसे मुद्दे लगातार उठा रहे हैं।

सोशल मीडिया पर कुछ वीडियो ऐसे भी चल रहे हैं जिनमें राजा मिहिर भोज गुर्जर की गौतम बुद्ध नगर के दादरी में प्रतिमा से जुड़े विवाद को दिखाया गया है। लेकिन इस चुनाव में साधारण लोगों से जुड़े वास्तविक मुद्दे दरकिनार कर दिए गए हैं। खासतौर से रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं और बुनियादी सामाजिक सुविधाओं से जुड़े मुद्दे। यहां विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों से सवाल पूछने के लिए मतदाताओं में जागरूकता पैदा करने के मकसद से उत्तर प्रदेश के 2021-22 के बजट का विश्लेषण किया जा रहा है। इस लेख के तर्कों के लिए पीआरएस लेजिसलेटिव रिसर्च के बजट विश्लेषण को आधार बनाया गया है।

2021-22 के उत्तर प्रदेश के बजट में ट्रांसपोर्ट, पुलिस, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, ऊर्जा, समाज कल्याण, पोषण, शहरी विकास, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण, जल आपूर्ति तथा सैनिटेशन के लिए जो बजट प्रावधान किए गए वह 2020-21 के प्रावधान की तुलना में अधिक है। लेकिन राज्य की अर्थव्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण सेक्टर के लिए किए गए आवंटन पिछले साल की तुलना में कम हैं। ग्रामीण विकास के लिए 2020-21 का बजट आवंटन 31,402 करोड़ रुपए था जिसे 2021-22 के बजट अनुमानों में घटाकर 27,455 करोड़ रुपए कर दिया गया। यानी ग्रामीण विकास के लिए बजट आवंटन 13 फ़ीसदी कम हुआ है। इसके विपरीत हम देखें तो शहरी विकास के लिए बजट आवंटन 17 फ़ीसदी बढ़ा है। यह 2020-21 में 20,461 करोड़ रुपए था जिसे 2021-22 के बजट अनुमान में 23,980 करोड़ रुपए किया गया। अगर इस विभाग के लिए 2020-21 के संशोधित अनुमानों से तुलना करें तो 2021-22 में आवंटन 58 फ़ीसदी अधिक है। इससे पता चलता है कि ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी विकास को अधिक तवज्जो दी गई है, जबकि शहरी इलाकों की अनेक समस्याएं दरअसल ग्रामीण इलाकों की समस्याओं से ही उपजती हैं। अगर ग्रामीण विकास के लिए उचित रणनीति अपनाई जाए तो बहुत सी समस्याओं का वहीं समाधान हो सकता है। बजट आवंटन से शहरी क्षेत्र की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र के प्रति पक्षपात भी दिखता है। विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि उत्तर प्रदेश के कुल व्यय में से ग्रामीण विकास पर होने वाला व्यय सिर्फ 5.4 फ़ीसदी है जबकि देश के सभी राज्यों का औसत 6.1 फ़ीसदी है।

कला और संस्कृति समेत शिक्षा की बात करें तो 2021-22 के लिए बजट आवंटन (67,683 करोड़) 2020-21 के बजट आवंटन (64,805 करोड़) की तुलना में अधिक है। लेकिन हकीकत यह है कि पिछले वित्त वर्ष में इसे संशोधित करके 53,043 करोड़ कर दिया गया था। अर्थात पिछले साल इस मद के लिए जो आवंटन बजट में किया गया था वह पूरा खर्च ही नहीं हो सका। उत्तर प्रदेश के कुल बजट का 13.3 फ़ीसदी शिक्षा के लिए आवंटित किया गया। यह देश के सभी राज्यों के 2020-21 के औसत बजट आवंटन (15.8 फ़ीसदी) से कम है। इसी तरह अगर हम कृषि क्षेत्र के लिए किए गए आवंटन पर गौर करें तो पाते हैं कि कृषि और संबद्ध क्षेत्र के लिए उत्तर प्रदेश के बजट में 2.7 फ़ीसदी आवंटन किया गया है। यह सभी राज्यों के औसत आवंटन, 6.3 फ़ीसदी का आधा भी नहीं है। 

स्वास्थ्य जनहित से जुड़ा एक अहम मुद्दा है। विश्व बैंक, नीति आयोग और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने हाल ही राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की रैंकिंग पर हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेस इन इंडिया नाम से साझा रिपोर्ट जारी की है। इसमें राज्यों के वासियों के स्वास्थ्य की स्थिति का पता चलता है। देश के 19 बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश सबसे निचले स्थान पर है। इस सूची में केरल का स्थान सर्वोपरि है और तमिलनाडु दूसरे नंबर पर है। ऐसा क्यों है। एक कारण इस क्षेत्र के लिए बजट में कम आवंटन हो सकता है। 2020-21 के बजट अनुमानों की तुलना में 2021-22 का बजट अनुमान 22 फ़ीसदी अधिक है। लेकिन हकीकत यह है कि 2020-21 के संशोधित अनुमानों में स्वास्थ्य के लिए आवंटन 21.53 फ़ीसदी घटा दिया गया।

युवाओं की सबसे बड़ी समस्याओं में एक बेरोजगारी है। इसके अलावा कम रोजगारी (अंडर एंप्लॉयमेंट) की भी समस्या है। कम रोजगारी का मतलब यह है कि युवाओं को उनकी योग्यता हिसाब से नौकरी नहीं मिल रही। उन्हें निचले स्तर की नौकरी करनी पड़ रही है। यह समस्या वैसे तो पूरे प्रदेश में देखी जा सकती है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अधिक है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 2019-20 के दौरान कृषि क्षेत्र का योगदान 23 फ़ीसदी, मैन्युफैक्चरिंग का 27 फ़ीसदी और सर्विस सेक्टर का 50 फ़ीसदी था। आंकड़ों से पता चलता है कि 2018-19 की तुलना में 2019-20 के दौरान तीनों सेक्टर का विकास कम हुआ है। विकास का पारंपरिक सिद्धांत कहता है कि सेकेंडरी और टर्शियरी सेक्टर में विकास होने पर इन क्षेत्रों में कृषि क्षेत्र से श्रमिक आते हैं। लेकिन भारत में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। यहां सेकेंडरी और टर्शियरी सेक्टर या तो पूंजी सघन हो गया है या उनमें मानव श्रम को कम करने वाली टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल होने लगा है। भारत में जो परिस्थितियां हैं उसमें एग्रीबिजनेस और कृषि को केंद्र में रखकर स्थानीय मॉडल विकसित किया जाना चाहिए था। इस समस्या के समाधान के लिए सरकार ने कौन से कदम उठाए हैं, राजनीतिक नेताओं को यह बात मतदाताओं को बतानी चाहिए थी। उसी तरह विपक्ष के नेताओं को भी मतदाताओं को यह बताना चाहिए था कि उन्होंने इस समस्या के समाधान के लिए क्या सुझाव दिए जिन पर सरकार ने अमल नहीं किया। धर्म, जाति और क्षेत्रवाद पर आधारित चुनावी नारों के बजाए प्रचार अभियान में अगर विकास और सामाजिक न्याय के मुद्दे उठाए जाते तो अभियान में परिपक्वता आती।

यह लेख लिखने का एकमात्र मकसद यह है कि मतदाता वास्तविक मुद्दों के प्रति सजग हों और जो भी चुनावी उम्मीदवार उनसे वोट मांगने के लिए आए उनसे इन मुद्दों पर सवाल जवाब करें। वे उम्मीदवार चाहे जिस पार्टी के हों।

(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी हैं)