भारत में विकास को कई चरणों में बांटा जा सकता है। हर चरण की अलग खासियत रही है। राज्यों के विकास पर नजर डालने पर हमें उनमें कई पैटर्न देखने को मिलते हैं। यहां हम उन पैटर्न की चर्चा करने के साथ यह भी देखेंगे कि उनमें कौन सा पैटर्न सबसे मुफीद है, और जो राज्य अभी तक विकास की परिधि से बाहर हैं, उन्हें कौन सा तरीका अपनाना चाहिए।
हरित क्रांति के साथ विकास की पहली लहर को शुरू में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश के डेल्टा क्षेत्र और तमिलनाडु ने अपनाया। दूसरे राज्यों के उन इलाकों में भी इसे अपनाया गया जहां सिंचाई के बेहतर साधन थे। इसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर हुआ। गैर कृषि क्षेत्र को भी फॉरवर्ड और बैकवर्ड लिंकेज से फायदा मिला। 1991 के आर्थिक सुधारों का सबसे अधिक असर महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु और हरियाणा में देखने को मिला। इससे महाराष्ट्र 1990 के दशक के मध्य तक सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाला राज्य बन गया। प्रमुख राज्यों में जब आईटी और अन्य सर्विसेज सेक्टर में विकास का चरण आया तो उसका भी सबसे अधिक फायदा महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश ने अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा उठाया। इसकी वजह से कर्नाटक 2015-16 में हरियाणा के बाद दूसरा सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय वाला राज्य बन गया।
यहां विकास के अलग अलग पैटर्न देखने को मिलते हैं। पहला पैटर्न है हरित क्रांति टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, कृषि को केंद्र में रखते हुए विकास का मॉडल अपनाना। यह मॉडल समावेशी था और इसने काफी हद तक गरीबी को भी कम किया। अगर कृषि के बाद औद्योगिक विकास ना होता तो वह ग्रोथ भी टिकाऊ नहीं होता। इसका अच्छा उदाहरण पंजाब है जो हरित क्रांति के दौरान 1994-95 तक प्रति व्यक्ति आय में सबसे ऊपर था और हाल में इसमें गिरावट आई। दूसरा पैटर्न कृषि की अगुवाई में बदलाव और उसके बाद औद्योगीकरण है। यह मॉडल समावेशी होने के साथ टिकाऊ भी है। हरियाणा इसका अच्छा उदाहरण है। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने भी इस मॉडल को अपनाया लेकिन उन्होंने कृषि टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कम किया। विकास का यह मॉडल सबसे अच्छा कहा जा सकता है। हरियाणा 2003-04 से प्रति व्यक्ति आय में शीर्ष पर है। वहां गरीबी भी राष्ट्रीय औसत का आधा है।
तीसरा पैटर्न विकास के लिए उद्योगों पर फोकस करने का है। यह मॉडल तेज विकास तो देता है लेकिन वह समावेशी नहीं होता। महाराष्ट्र इसका बड़ा उदाहरण है, और कुछ हद तक गुजरात भी। महाराष्ट्र में ज्यादातर विकास औद्योगिक क्षेत्रों और पुणे और मुंबई के आसपास हुआ है। राज्य के बाकी हिस्से में प्रति व्यक्ति आय महाराष्ट्र के औसत से कम है। प्रति व्यक्ति आय में शीर्ष तक जाने के बावजूद यहां तमिलनाडु की तुलना में गरीबी घटने की दर कम है।
चौथा पैटर्न सर्विस सेक्टर और आईटी सेक्टर की अगुवाई में ग्रोथ का है। कर्नाटक इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। उसके बाद आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र हैं। कर्नाटक में सर्विसेज और आईटी सेक्टर की ग्रोथ बेंगलुरु और मैसूर के इर्द-गिर्द है। बाकी कर्नाटक में ऐसा बदलाव नहीं दिखता। तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश की तुलना में गरीबी हटाने में कर्नाटक भी पीछे है।
राज्यों के विकास के पैटर्न से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कृषि की अगुवाई में ग्रोथ समावेशी तो है लेकिन अगर उसके बाद औद्योगीकरण न किया जाए तो वह टिकाऊ नहीं होता। कृषि की अगुवाई में ग्रोथ और उसके बाद औद्योगीकरण से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि और गरीबी में गिरावट स्थाई होती है। उद्योग की अगुवाई में विकास, जिसमें पहले कृषि का विकास ना हुआ हो, उससे अर्थव्यवस्था की गति और प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ेगी लेकिन वह समावेशी नहीं होगा। सर्विस सेक्टर की अगुवाई में होने वाला ग्रोथ चुनिंदा इलाकों तक सीमित रहेगा।
ये नतीजे बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा जैसे राज्यों के लिए मायने रखते हैं। इन राज्यों को कृषि विकास को शीर्ष वरीयता देनी चाहिए। इससे समावेशी विकास की मजबूत जमीन तैयार होगी। उसके बाद उन्हें उद्योगों पर और तीसरे नंबर पर सर्विस सेक्टर पर ध्यान देना चाहिए। अगर इस क्रम का पालन नहीं किया गया तो समावेशी और टिकाऊ विकास के लक्ष्य को हासिल करना मुश्किल होगा। औद्योगिक या सर्विस सेक्टर में ऊंची विकास दर से समावेशी विकास ना होने का प्रमुख कारण इन दोनों सेक्टर में इस्तेमाल की जाने वाली टेक्नोलॉजी है। इन दोनों सेक्टर में पूंजी सघन टेक्नोलॉजी का अधिक इस्तेमाल किया जाता है और इससे श्रमिकों को हटाना पड़ जाता है।
मेरे विचार से आर्थिक विकास का संदर्भ अब बदल गया है। अब रोजगार, टिकाऊ विकास, पर्यावरण, गरीबी, पोषण, स्वास्थ्य हमारे लिए बड़ी चिंता के विषय बन गए हैं। इस बदले हुए संदर्भ में कृषि बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। खेती में प्राकृतिक संसाधनों का प्रचुर इस्तेमाल होता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 80 से 90 फीसदी पानी का इस्तेमाल खेती में ही होता है, जबकि वैश्विक औसत 70 फीसदी है। फिर भी खेती का आधा इलाका असिंचित है। बाढ़ सिंचाई के कारण देश में 30-35 फीसदी पानी का ही इस्तेमाल हो पाता है। सभी राज्यों में भूजल स्तर गिर रहा है। शहरों में वर्षा जल संचय और पानी की रिसाइक्लिंग से बहुत लाभ नहीं होने वाला। वास्तविक फर्क तो खेती में पानी के उचित इस्तेमाल से पड़ेगा।
खेती के कार्यों में निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों के बारे में भी कोई चर्चा नहीं होती है। मिट्टी में ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक इनपुट के प्रयोग, बायोमास के सड़ने, फसल उत्पादन, मवेशियों आदि से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। भारत में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का हिस्सा 17 फीसदी है, इतना ही योगदान यह क्षेत्र जीडीपी में भी करता है। इसमें से तीन-चौथाई उत्सर्जन धान की खेती और मवेशियों से होता है, बाकी 26 फीसदी उर्वरक से निकलने वाली नाइट्रस ऑक्साइड से। अगर पराली जलाने को भी शामिल किया जाए तो कुल ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का हिस्सा और अधिक होगा।
विकास के एजेंडे में कृषि की अग्रणी भूमिका को लेकर पूरी दुनिया में एक नया विचार उभर रहा है। अब इसे अपनाना हमारे ऊपर है कि हम औद्योगीकरण में कृषि की भूमिका देखते हैं या विकास के लिए कृषि को अपनाते हैं। राज्यों को कृषि की क्षमता की अनदेखी करके विकास के लिए औद्योगीकरण के पीछे नहीं भागना चाहिए। जिन राज्यों में कृषि उत्पादकता कम है उन्हें कृषि को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। उसके बाद उद्योग और सर्विस सेक्टर को चुनना चाहिए। इससे विकास समावेशी तो होगा ही, विकास दर और लोगों की आमदनी में वृद्धि भी स्थायी होगी।
(प्रोफेसर रमेश चंद नीति आयोग के सदस्य हैं। यह लेख भोपाल स्थित अटल बिहारी वाजपेयी इंस्टीट्यूट ऑफ गुड गवर्नेंस एंड पॉलिसी एनालिसिस में इंडियन इकोनॉमिक एसोसिएशन के 104वें सालाना कांफ्रेंस में दिए गए अध्यक्षीय भाषण ‘आर्थिक वृद्धि और समावेशी विकास: क्या एक नए ग्रोथ मॉडल की जरूरत है’ का अंश है)