वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अभी तक जो पांच बजट पेश किए हैं उनमें एक बात काफी मिलती-जुलती है, और वह है बजट में लगातार पूंजीगत खर्च का ऊंचा स्तर। 2019-20 के बजट में केंद्र सरकार का पूंजीगत व्यय और पूंजीगत संपत्ति निर्माण के लिए ग्रांट-इन-एड 5.5 लाख करोड़ रुपए से भी कम था। वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में वित्त मंत्री ने इस मद में 13.7 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए हैं। वास्तविक अर्थों में देखा जाए तो 5 वर्षों में पूंजीगत खर्च के लिए आवंटन उन्होंने दोगुना कर दिया है।
2019-20 से लेकर मौजूदा वित्त वर्ष तक हर साल केंद्रीय बजट में पूंजीगत व्यय कम से कम 26% बढ़ा है। इसमें 2020-21 का महामारी वाला साल भी शामिल है। वित्त मंत्री ने 2023-24 में और अधिक वृद्धि की है। इस वर्ष पूंजीगत व्यय के लिए आवंटन 2022-23 के संशोधित अनुमानों से 30% अधिक है। जीडीपी की तुलना में देखें तो यह 3.8% के मुकाबले 2023-24 में 4.5% हो गया है। इस सरकार के कार्यकाल में एक रोचक बात यह है कि राजस्व व्यय सालाना औसतन सिर्फ 4.4% की दर से बढ़ा है। अगले वित्त वर्ष के लिए राजस्व व्यय में सिर्फ 1.2% की वृद्धि की गई है।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में पूंजीगत व्यय का हिस्सा बढ़ाने की वजह बताई है। हाल की बजट घोषणा में उन्होंने कहा, “इंफ्रास्ट्रक्चर और उत्पादन क्षमता में निवेश का विकास और रोजगार पर कई गुना असर होता है। निवेश और रोजगार सृजन बढ़ाने के लिए बजट में एक बार फिर प्रयास किए गए हैं।” वित्त मंत्री सीतारमण के अनुसार सार्वजनिक निवेश में यह वृद्धि विकास और रोजगार सृजन की संभावनाओं को बढ़ाने, निजी निवेश आकर्षित करने तथा वैश्विक उतार-चढ़ाव से घरेलू अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है, और यह सरकार के प्रयासों के केंद्र में है। 2019-20 से पूंजीगत व्यय लगातार ऊंचे स्तर पर बना हुआ है और यहां तक कि महामारी के दौरान भी इसका स्तर ऊंचा था। इसे उचित ठहराते हुए वित्त मंत्री ने 2021 के अपने बजट भाषण में कहा था, हमारा प्रयास यह रहा कि संसाधनों की कमी के बावजूद हम पूंजीगत खर्च अधिक करेंगे।
वित्त मंत्री के तर्क का अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक निवेश अधिक होगा तो वह निजी निवेश को भी आकर्षित करेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अगर सरकार निवेश बढ़ाएगी तो कंपनियां भी अपना निवेश बढ़ाएंगी। हालांकि इस तर्क को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। बाजार हितैषी लोगों का तर्क होगा कि अगर सरकार राजकोषीय घाटे का स्तर अवांछनीय रूप से ऊंचा रखते हुए पूंजीगत खर्च बढ़ाती है तो निजी निवेश वास्तव में कम हो सकता है। जब सरकार बाजार से पैसे उठाएगी तो दरअसल वह उन सब के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही होगी जो बाजार से पैसे जुटाना चाहते हैं। यह तर्क वित्त मंत्री के तर्क के बिल्कुल विपरीत है। सार्वजनिक निवेश का ऊंचा स्तर निजी निवेश को बढ़ावा देगा- यह बात तथ्यों से साबित भी नहीं होती है। निजी क्षेत्र ने पिछले दिनों निवेश बढ़ाने में रुचि नहीं दिखाई। बीते कुछ हफ्तों से ही निजी क्षेत्र में निवेश बढ़ने के संकेत मिले हैं।
वित्त मंत्री के पूंजीगत व्यय के फोकस में मुख्य रूप से तीन मंत्रालय रहे हैं- सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय, रेलवे और रक्षा सेवाएं। वर्ष 2021-22 में कुल पूंजीगत व्यय का 62% हिस्सा इन 3 मंत्रालयों का था। मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों को देखें तो यह बढ़कर 71% हो गया है। अगले वित्त वर्ष के लिए वित्त मंत्री ने इन 3 मंत्रालयों के लिए पूंजीगत व्यय का हिस्सा सकल का 66% किया है। मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमानों को देखें तो सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय तथा रेलवे का पूंजीगत व्यय बजट प्रावधानों से अधिक है। अर्थात केंद्र सरकार ने इन दो मंत्रालयों पर योजना से अधिक खर्च किया है। आश्चर्य नहीं कि संशोधित अनुमानों में कई अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों के पूंजीगत व्यय में कटौती की गई है।
सड़क और रेलवे में लगातार अधिक पूंजीगत व्यय और कुछ प्रमुख सेक्टर में निवेश की अनदेखी के ट्रेंड से वित्त मंत्री बच सकती थीं। एक ऐसा सेक्टर जिसमें सार्वजनिक निवेश कि वास्तव में बेहद जरूरत है वह है कृषि। ऐसा इसलिए क्योंकि निजी क्षेत्र ने इस सेक्टर में और कृषक समुदाय के फायदे वाले कार्यों में निवेश करने में बहुत कम रुचि दिखाई है।
कृषि से जुड़े लोगों की परिस्थिति में सुधार के लिए इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बहुत जरूरी है। दशकों से देश के कुल निवेश में कृषि क्षेत्र को लगातार बहुत कम हिस्सा मिलता रहा है। 2000-01 में भारत के कुल निवेश का 10% हिस्सा कृषि क्षेत्र में गया था। उसके बाद इसमें लगातार गिरावट आती रही और 2018-19 में कुल निवेश का सिर्फ 6% कृषि क्षेत्र को मिला। यह बात समझ से परे है कि एक के बाद एक सभी सरकारों ने लगातार कृषि क्षेत्र को फंड से महरूम रखा, जबकि कृषि क्षमता में सुधार और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। इसके विपरीत कृषि क्षेत्र पूरी तरह बैठ ना जाए, इसके लिए इसे निरंतर सब्सिडी और खैरात पर आश्रित बना दिया गया। लेकिन सब्सिडी बढ़ने के साथ विश्व व्यापार संगठन के कई सदस्यों की आपत्तियां भी तेज हुई हैं। उनका कहना है कि भारत नियम के मुताबिक कृषि क्षेत्र को जितनी सब्सिडी दे सकता है, उससे काफी ज्यादा सब्सिडी दे रहा है।
सीधी-सहज बात तो यह है कि कृषि में पर्याप्त निवेश से अर्थव्यवस्था को दो तरह से फायदे होंगे। पहला, कृषि में रोजगार और आमदनी बढ़ाने की प्रचुर क्षमता है, खासकर यह देखते हुए कि लगभग 60% कार्यबल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ है। दूसरा, ज्यादा निवेश से कृषि क्षेत्र में जब आय बढ़ेगी तो उससे अर्थव्यवस्था में मांग में भी वृद्धि होगी। यह वृद्धि अन्य किसी भी सेक्टर के मुकाबले अधिक होगी। इस तरह कृषि क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था को तेज विकास के रास्ते पर ला सकता है। अतीत में हम देख चुके हैं कि जब कृषि क्षेत्र में आमदनी में वृद्धि हुई तो दूसरे क्षेत्रों के उत्पाद और सेवाओं की मांग भी बढ़ी। अर्थात संपन्न कृषि क्षेत्र का फायदा गैर-कृषि क्षेत्रों को प्रत्यक्ष रूप से मिल सकता है। कृषि क्षेत्र में अतिरिक्त निवेश के अर्थव्यवस्था में अनेक फायदे हो सकते हैं। इस लिहाज से वित्त वर्ष 2023-24 के बजट प्रस्तावों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को टिकाऊ और समावेशी विकास की राह पर ले जाने का अवसर खो दिया है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग में प्रोफेसर हैं)