गुरू पर्व के मौके पर 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा करने के साथ ही यह बात अब साफ हो गई है कि देश के राजनीतिक और आर्थिक परिदृष्य पर किसान लॉबी की वापसी हो गई है। आने वाले दिनों में राजनीति की दिशा के साथ ही आर्थिक नीतियों पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। 1991 की आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से कृषि क्षेत्र की अहमियत घटती गई और सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्र रहे। इन तीन दशकों में सरकार के फैसलों में कृषि मंत्रालय का दखल भी कमजोर होता गया। लेकिन 1991 के आर्थिक सुधारों के इतिहास को दोहराने के फेर में तीन कृषि कानूनों को लाने का कदम नरेंद्र मोदी सरकार के लिए महंगा साबित हो गया। पांच जून, 2020 को अध्यादेशों के जरिये लाए गये तीन कृषि कानून कृषि क्षेत्र में सुधारों के उद्देश्य से लाये गये थे। उस समय सरकार को यह अहसास नहीं था कि यह कानून इतिहास तो बनायेंगे लेकिन जो इतिहास बनने जा रहा है वह बहुत कुछ बदलने जा रहा है जिनका असर आने वाले दशकों तक जारी रहेगा।
तीन कानून, आवश्यक वस्तु अधिनियम (संशोधन) कानून, 2020, द फार्मर्स प्रॉडयूस ट्रेड एंव कामर्स (प्रमोशन एंड फेसिलिटेशन) एक्ट, 2020 और फार्मर्स (इंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट आन प्राइस एश्यूरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020 आने के कुछ दिन बाद ही इनका विरोध शुरू हो गया था। इन कानूनों को बड़े सुधारों के रूप में पेश किया गया, साथ ही अध्यादेशों के जरिये लागू किये गये इन कानूनों को लाने में जल्दबाजी भी की गई। किसानों के बढ़ते विरोध और राजनीतिक दलों द्वारा सवाल उठाने के बावजूद इन कानूनों से जुड़े विधेयकों को सितंबर, 2020 में संसद के दोनों सदनों में पारित कर कानून की शक्ल दे दी गई। संसद में और खासतौर से राज्य सभा में कानूनों को पारित कराने के तरीके पर सवाल उठे और राज्य सभा में विपक्ष का विरोध तीखा रहा। सरकार के रूख से साफ हो गया था कि वह इन कानूनों को किसी भी कीमत पर लागू करना चाहती है। लेकिन उसे इस बात का अहसास नहीं थी कि कोरोना महामारी के बीच कानूनों का विरोध किसानों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर किया जाएगा। किसानों में सबसे अधिक आशंका मंडी से जुड़े कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के भविष्य को लेकर खड़ी हुई। इसलिए मुखर विरोध की शुरुआत पंजाब से हुई। वहां करीब तीन माह तक किसानों ने रेल रोको आंदोलन के साथ ही बड़े धरने दिये। उसके बाद सितंबर, 2020 में तीन कानूनों को रद्द करने की मांग लेकर राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। इसका सबसे अधिक असर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाके में रहा। किसानों द्वारा कानून वापसी नहीं होने की स्थिति में 26 नवंबर, 2020 को दिल्ली कूच करने का आह्वान किया गया और 8 दिसंबर को राष्ट्रव्यापी बंद का आह्वान किया गया। किसानों के सबसे बड़े जत्थे पंजाब से चले और हरियाणा पुलिस द्वारा उन्हें रोकने की तमाम कोशिशों को नाकाम करते हुए किसान 27 नवंबर को दिल्ली की सीमा पर पहुंचे जहां दिल्ली पुलिस ने उनको दिल्ली में प्रवेश से रोक दिया। उसी दिन से दिल्ली के सिंघु बार्डर और टीकरी बार्डर पर किसानों ने मोर्चा लगा दिया। वहीं गाजीपुर बार्डर पर किसान 29 नवंबर को पहुंचे। तभी से दिल्ली की इन सीमाओं पर किसानों के धरने जारी हैं। कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन को साल भर होने में अब सप्ताह भर से भी कम का समय बचा है। इस दौरान आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे।
किसानों के दिल्ली की सीमाओं पर आने से 22 जनवरी के बीच सरकार और किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चा के प्रतिनिधियों के बीच 11 वार्ताएं हुईं लेकिन किसान तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग पर अडिग रहे। इस बीच एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग भी मजबूत होती गई। वार्ता टूटने के बाद 26 जनवरी, 2021 के दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च के दौरान बड़ी संख्या में किसनों के लाल पहुंचने के साथ ही हिंसा भी हुई। जिसके बाद लगा कि आंदोलन समाप्त हो जाएगा। लेकिन 28 जनवरी की शाम सरकार की सख्ती के बीच गाजीपुर बार्डर पर भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की भावनात्मक अपील ने आंदोलन को नया जीवन दे दिया। इस घटनाक्रम ने नाटकीय ढंग से रातोंरात गाजीपुर बार्डर को किसान आंदोलन के सबसे मजबूत केंद्र के रूप में स्थापित कर दिया। वहीं राकेश टिकैत को आंदोलन और देश में किसानों के बड़े नेता के रूप में स्थापित कर दिया। इस घटना के बाद ही किसान संगठनों ने आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने के लिए हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में किसान पंचायतें की।
वहीं 22 जनवरी, 2021 के बाद से किसानों और सरकार के बीच कोई वार्ता भी नहीं हुई और दोनों अपने रुख पर कायम रहे। इस बीच कुछ संगठनों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के चलते सुप्रीम कोर्ट ने 11 जनवरी, 2021 को एक आदेश जारी कर अगले आदेश तक तीनों कानूनों के अमल पर रोक लगा दी। जो अभी तक जारी है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक चार सदस्यीय समिति गठित की जो किसानों और संबंधित पक्षों से बात कर एक रिपोर्ट कोर्ट को दे। इसके एक सदस्य भूपिंद्र सिंह मान ने समिति से इस्तीफा दे दिया और बाकी तीन सदस्यों, अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, कृषि विशेषज्ञ डॉ. पी के जोशी और शेतकारी संघटना के अध्यक्ष अनिल घनवत ने तय समयावधि के भीतर 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट को एक सीलबंद लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से तीनों कानून लागू ही नहीं हैं। लेकिन अहम बात यह रही कि सरकार भी इन कानूनों के ऊपर से रोक हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट नहीं गई। हालांकि इस दौरान सरकार द्वारा कानूनों के पक्ष में तर्क के बावजूद दालों और खाद्य तेलों के दाम बढ़ने पर उसी पुराने आवश्यक वस्तु अधिनियम के प्रावधानों का कई बार इस्तेमाल किया गया जिसे उसने बदल दिया था।
भले ही सरकार इन कानूनों के मुद्दे पर किसानों से बात नहीं कर रही थी लेकिन यह लगातार देश की राजनीति का केंद्र बने रहे। किसान संगठनों ने पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ प्रचार किया। एक हाई पिच चुनाव में भाजपा पश्चिम बंगाल के चुनाव बहुत बुरी तरह हार गई। इस बीच विपक्षी दल किसानों के पक्ष में खड़े रहे। यही नहीं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों में राष्ट्रीय लोकदल ने ताबड़तोड़ रैलियां की और सरकार से नाराजगी के चलते उसकी रैलियों में किसानों की भारी भीड़ जुटती रही। धीरे-धीरे आंदोलन के राजनीतिक नुकसान का अहसास भाजपा को होने लगा क्योंकि करीब 100 सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम का गठजोड़ दोबारा बनने लगा जो 2013 के मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के बाद बिखर गया था। पांच सितंबर, 2021 की भारतीय किसान यूनियन और संयुक्त किसान मोर्चा की मुजफ्फरनगर में आयोजित किसान महापंचायत की जबरदस्त कामयाबी ने आंदोलन को मजबूती दी और जाट-मुस्लिम गठजोड़ की मजबूती पर मुहर लगा दी।
आगामी फरवरी-मार्च में पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव होने हैं। इनमें राजनीतिक रूप से सबसे अहम उत्तर प्रदेश शामिल है जहां भाजपा सत्ता में है। साथ ही पंजाब और उत्तराखंड में विधान सभा चुनाव होने हैं जहां आंदोलन का असर है। इस बीच इन कानूनों के चलते भाजपा ने पंजाब में अपने सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल को भी खो दिया। अकाली दल को भी राजनीतिक रूप से इन कानूनों के चलते पंजाब में बड़ा राजनीति खामियाजा भुगतना पड़ रहा है क्योंकि कानूनों के लागू होने के समय अकाली दल केंद्र सरकार में भाजपा की सहयोगी थी। मूल रूप से जाट किसानों की पार्टी मानी जाने वाली अकाली दल के लिए यह काफी महंगा सौदा रहा। पंजाब में भाजपा को कोई खास प्रदर्शन की उम्मीद नहीं है हालांकि वह पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई पार्टी के साथ गठबंधन के जरिये वहां अपनी खोई जमीन तलाशने की कोशिश कर सकती है। अमरिंदर सिंह की शर्त थी कि अगर सरकार कानून वापस ले लेगी तो वह भाजपा के साथ गठबंधन कर सकते हैं। यह बात भी सच है कि आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका पंजाब के सिख किसानों की रही। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को सिखों के उससे दूर जाने की चिंता भी इस आंदोलन के जारी रहने में साफ दिख रही थी। इसमें लखीमपुर खीरी की दुर्घटना में भाजपा के नेता और केंद्र में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के शामिल होने के आरोप ने भाजपा और आरएसएस की असहजता बढ़ा दी।
ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनावों में कोई भी जोखिम लेने से भाजपा बचना चाहती है क्योंकि दिल्ली की केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही जाता है। वहीं राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज होती जा रही है कि भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में दोबारा सत्ता हासिल करना उतना आसान नहीं है जितना दिखाने की कोशिश हो रही है। पश्चिम में राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी की रैलियों में भारी भीड़ जुट रही है और मध्य व पूर्वी उत्तर प्रदेश में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की यात्रा में भारी भीड़ जुटा रही है।
वहीं इन राजनीतिक घटक्रमों के अलावा किसान आंदोलन के घटकों के बीच कोई विवाद न होना और उसकी एकजुटता के बरकरार रहने व सामूहिक फैसले लेने की प्रक्रिया ने उसके लगातार जारी रहने की स्थितियां बनाये रखी। किसान संगठन लगातार भाजपा के खिलाफ अधिक मुखर होते गये। करीब 700 किसानों की आंदोलन के दौरान मौत के बावजूद किसान आंदोलन अहिंसक बना रहा। इस आंदोलन में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ मध्य प्रदेश के किसानों की मौजूदगी बनी रही। साथ ही आंदोलन के नेतृत्व ने खुद को राजनीतिक मंचों से दूर रखा और न ही राजनीतिक दलों को अपना मंच दिया। जो इसके टिकाऊ होने की बड़ी वजह रही।
यह वह परिस्थियां और समीकरण रहे जिनके चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरू पर्व के शुभ दिन को मौके के रूप में इस्तेमाल कर तीन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा कर दी।
सरकार के इस फैसले की आने वाले दिनों में कई तरह से समीक्षा होगी। आर्थिक उदारीकरण के पक्षधर इसे सरकार का आत्मघाती यू टर्न बताने लगे हैं और इसे देश में आर्थिक सुधारों की गति को रोकने वाला कदम बताएंगे। साथ ही कृषि सुधारों को लेकर भविष्य में कोई भी सरकार कोई भी फैसला लेने के पहले कई बार सोचेगी। एक भारी बहुमत और मजबूत नेतृत्व वाली सरकार से कई लोगों को इन कानूनों को वापस लेने की उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी। इसलिए इन कानूनों की वापसी के फैसले के बाद देश में नीतिगत जड़ता (पॉलिसी पैरालाइसिस) की बात भी कही जाएगी। आर्थिक फैसलों और तरक्की की जगह राजनीतिक मौकापरस्ती की बातें भी कही जाने लगी हैं। खास तौर से उदार आर्थिक नीतियों के समर्थक अर्थविद और कारपोरेट जगत इस फैसले से अधिक परेशान है। कुछ लोग भारत में विदेशी निवेश की संभावनाओं के कमजोर होने की बात भी इन फैसलों से जोड़कर करेंगे और कहेंगे कि इसका विदेशी निवेशकों के बीच सही संदेश नहीं जाएगा। इस तरह की तमाम बातें, चर्चा और विचार आने वाले महीनों तक सामने आएंगे। लेकिन यह भी सच है इस फैसले का असर दशकों तक देश की नीतियों और फैसलों में देखने को मिलेगा।
हां, इस बात पर शायद लोग कम चर्चा करेंगे लेकिन जो एक सीख की तरह है। देश में जनता के बड़े वर्ग से जुड़े फैसलों को लेने की परिपाटी अब बदल जाएगी। देश में नीति निर्माण और फैसले लेने में नौकरशाही और कुछ एक्सपर्ट्स का जो दबदबा बन गया था वह अब कमजोर होगा। सरकार का कानूनों को वापस लेने का यह फैसला इस बात को साबित करता है कि फैसलों से प्रभावित होने वाले पक्षों की फैसले लेने और नीति निर्माण में भागीदारी जरूरी है। इन तीन कृषि कानूनों में सबसे बड़े पक्ष किसानों को कानून बनाने की प्रक्रिया में भागीदार नहीं बनाया गया। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने कानूनों को वापस लेने की घोषणा की तो उसके साथ यह भी कहा कि सरकार एमएसपी की व्यवस्था को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए एक कमेटी बनाई जाएगी जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकार, किसानों के प्रतिनिधि, कृषि अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा। यह एक सकारात्मक संकेत है।
साथ ही यह आंदोलन और इसकी जो परिणति कानूनों के रद्द होने के रूप में होने जा रही है उससे साफ हो गया है कि किसान संगठनों के रूप में देश में एक किसान लॉबी का उदय हो गया है। जिस अनुशासन और दृढ़ता से यह आंदोलन चल रहा है वह साफ करता है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से जुड़े मसलों के बारे में नीतियों और फैसलों में इस लॉबी का दखल रहेगा। साथ ही राजनीतिक रूप से इस आंदोलन के साथ खड़े होने की जो होड़ दिख रही है वह भविष्य की राजनीति में किसानों की भूमिका बढ़ने का संकेत है। पंजाब सरकार ने आंदोलन के दौरान दिल्ली में गिरफ्तार हुए किसानों को मुआवजा देने का फैसला लिया और आंदोलन में शहीद किसानों की याद में स्मारक बनाने की घोषणा की है तो सुदुर दक्षिण के राज्य तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने आंदोलन में शहीद 700 किसानों के परिवारों को तीन लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा की है। यह फैसले भविष्य की राजनीति का संकेत देने के लिए काफी हैं।
इस पूरे घटनाक्रम के साथ आने वाले दिन काफी अहम हैं। प्रधानमंत्री की कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद भी किसान संगठनों ने अपने कार्यक्रम जारी रखे हैं। उनका कहना है कि संसद में कानून रद्द होने की प्रक्रिया पूरी होने तक वह धऱने जारी रखेंगे। इसके साथ ही एमएसपी पर कानूनी गारंटी की मांग पर भी वह अडिग हैं। उनका कहना है कि सरकार 29 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के आगामी सत्र में एमएसपी पर कानूनी गारंटी का कानून लेकर आए। प्रधानमंत्री द्वारा एमएसपी के मुद्दे पर समिति बनाने की घोषणा से वह बहुत आश्वस्त नहीं दिख रहे हैं। इससे यह संकेत भी मिलता है कि सरकार और किसान संगठनों के बीच जनवरी में टूटी वार्ता का दौर फिर से शुरु हो सकता है क्योंकि सबसे विवादास्पद मुद्दे पर किसानों की मांग सरकार ने स्वीकार कर ली है। सभी को इस बात का इंतजार है कि देश के इतिहास में सबसे लंबे चले किसान आंदोलन की समाप्ति कैसे होगी और कब होगी, हालांकि अब इसकी समाप्ति की संभावनाएं काफी मजबूत हो गई हैं। लेकिन यह आने वाले दिनों में ही पता लगेगा कि कानून वापसी का फैसला सरकार के लिए राजनीतिक रूप से फायदेमंद साबित होगा या नहीं। हां यह बात तय है कि अब देश में किसानों के मुद्दों पर उनके हित संरक्षण के लिए किसान संगठनों का एक ऐसा ढांचा व नेतृत्व तैयार हो गया है जो किसान हित में सरकार के फैसलों में बदलाव का माद्दा रखता है।