विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेना संसदीय प्रक्रिया का मामला है। जो लोग इन तीन कानूनों को वापस लेने पर कृषि सुधारों के लिए गंभीर झटका मान रहे है। वह लोग इस निर्णय लेकर काफी निराश भी होंगे । उन लोगों का कहना है कि कृषि में जब तक निजी क्षेत्र की भागीदारी नहीं आएगी तब तक भारतीय कृषि की प्रगति के बारे में सोचा नहीं जा सकता है। निजी निवेश के बिना जहां आज कृषि है उसी स्थिति में रहेगी। हाल ही में बैंकरों के एक शिखर सम्मेलन में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चिंता व्यक्त की गई थी कि कृषि में निजी क्षेत्र का निवेश लगभग नगण्य है।
इसलिए कृषि सुधारों के पैरोकार यह मानते हैं कि जब तक भारतीय कृषि को पूरी तरह से बाजार के हवाले नहीं किया जाता है तब तक चीजें नहीं बदलेगी। लोग अक्सर खाद्य सब्सिडी का उदाहरण देते हुए किसानों को सब्सिडी नहीं देने की बात करते हैं ।
खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय द्वारा चालू वित्त वर्ष के बजट साल 2021-22 में 2.43 लाख करोड़ रूपए की खाद्य सब्सिडी प्रदान की गई है। यह पैसा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में राशन की दुकानों पर लगभग मुफ्त राशन उपलब्ध कराने पर खर्च किया जाता है। आइए जानते सब्सिड़ी किसको जाती है। यह किसानों के पास जाती है या नही ? हम शोर मचाते रहते हैं, 'खाद्य सब्सिडी' किसानों की जेब में जाती है।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के एक विश्लेषण के अनुसार, खाद्य सब्सिडी का उद्देश्य इस तरह पूरा होता है। एफसीआई और राज्य एजेंसियां सरकार द्वारा अधिसूचित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर किसानों से खाद्यान्न खरीदती हैं। यह खाद्यान्न सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के साथ-साथ कुछ अन्य कल्याणकारी योजनाओं जैसे मध्याह्न भोजन योजना के तहत लाभार्थियों को रियायती खाद्यान्न उपलब्ध कराती हैं। खाद्य सब्सिडी को खत्म करने की मांग करने वालों को पता होना चाहिए कि इसका मतलब सभी राशन की दुकानों को बंद करना होगा। खाद्य सब्सिडी शहरों और गांवों में गरीबों की मदद करने के लिए दी जाती है, न कि किसानों को आर्थिक मजबूती के लिए ।
अब आइए किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य और फलस्वरूप संपूर्ण ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधार की ओर लौटते हैं। ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका है पानी, उर्वरक, बीज, परिवहन, भंडारण कृषि में डीजल जैसे इनपुट की लागत को कम करना । इस तरह की लागत को सरकार के प्रभावी तरीके से हस्तक्षेप किए बिना कम नहीं किया जा सकता है। जो लोग इस उम्मीद में हैं कि बाजार खुद इस तरह की लागतों को कम रहेगा वह भ्रम में जी रहे हैं।
किसानों की आय को बढ़ाने के लिए मानक सुनिश्चित करने होंगे जिससे किसानों को कृषि उत्पाद का उचित मूल्य मिल सके जो किसानों के लिए लाभकारी हो। इन मानकों के जरिये किसानों की उपज के उपभोक्ता तक पहुंचने के बीच की मूल्य श्रृंखला में बिचौलियों की जेब में जाने वाले हिस्से को रोकना होगा। इसलिए जरूरी है कृषि मंत्रालय औऱ दूसरे शीर्ष विभागों के साथ साथ राज्यों को प्रतिक्रियाशील भूमिका के बजाय एक सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
इस साल अक्टूबर के महीने में के थोक मूल्य सूचकांक पर नजर डालें तो आपको आसानी से पता चल जाएगा कि खेती लिए जरूरी इनपुट की कीमतों के सामने मंड़ी में मिलने वाले दाम कहीं नहीं टिकते हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक अक्टूबर में डीजल महंगाई दर 71.68 फीसदी, पेट्रोल 64.72 फीसदी, रसायन और रासायनिक उत्पाद 14 फीसदी पर थी। अक्टूबर में डब्लूपीआई सालाना आधार 12.54 फीसदी बढ़ा है। इन आंकड़ों को गहराई से देखने पर सही स्थिति का पता चलता है जो अर्थव्यवस्था के दूसरे सेक्टरों के साथ-साथ हमारी कृषि की कमर तोड़ रहे हैं। कृषि इनपुट लागतों की वृद्धि की तुलना किसान के उत्पादों की कीमतों से करेगे तो पाएंगे कि खाद्य वस्तुओं के मूल्यों में गिरावट आई है या मामूली वृद्धि हुई है। थोक स्तर की मंडी की बात करें , यहां हम खुदरा मुद्रास्फीति के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, खाद्य वस्तुओं में 1.69 फीसदी की गिरावट आई है। धान में जहां 0.55 फीसदी की गिरावट आई, वहीं गेहूं में 8.14 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई। मंडी स्तर पर सब्जियों में 18 फीसदी की गिरावट आई है। वहीं दूसरी ओर अनाज की कीमतों में मामूली 3.22 फीसदी की वृद्धि हुई है।
इस तरह बाजार में कीमतों का यह असंतुलन कृषि क्षेत्र के लिए हानिकारक है जो हमारे देश के अधिकांश लोगों की जीवन रेखा है। निजी क्षेत्र और खासतौर से बड़े कारपोरेट समूह के निवेश और छोटी जोत को एक साथ लाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। भारतीय खेती की कम उत्पादकता के पीछे मौसम की अनिश्चितता, सिंचाई सुविधाओं की कमी, खराब परिवहन जैसे कारक हैं। देश में फसल बीमा योजनाएं भी जटिल हैं जो अधिकांश जरूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंचती हैं।
कृषि क्षेत्र में कृषि मशीनरी और ट्रैक्टर जैसे उद्योग में निवेश के लिए अपार मौके मोजूद हैं । इसमें निवेश से निजी क्षेत्र को कोई नहीं रोक रहा है। इसका ताजा उदाहरण जापान की कंपनी कुबोता द्वारा देश की प्रमुख ट्रैक्टर निर्माता कंपनी एस्कॉर्ट्स को खरीदने का फैसला है। कंपनी पहले से तय सौदे के तहत 1600 रुपये प्रति शेयर के दाम के मुकाबले 2000 रुपये प्रति शेयर की कीमत पर आधिक्य हिस्सेदारी खरीद रही है। अगर कृषि में अवसर नहीं होते तो जापानी कंपनी निवेश क्यों करती। तीन कृषि कानूनों को हटना इस तरह के निवेश में कहीं बाधक नहीं है क्योंकि जापानी कंपनी भारत के ट्रैक्टर और कृषि मशीनरी क्षेत्र में एक उज्जवल भविष्य देख रही है।
(प्रकाश चावला सीनियर इकोनामिक जर्नलिस्ट हैं और समसामयिक आर्थिक मुद्दों व नीतियों पर लिखते हैं)