आजादी के 75वें अमृत महोत्सव में देश के पांच अहम राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। पश्चिम में राजस्थान तो पूर्व में मिजोरम, मध्य भारत में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और दक्षिण में तेलंगाना शामिल है। ये चुनाव देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को नई दिशा देंगे।
बड़े-बड़े वादों की गारंटी, फ्री की रेवड़ियों, ईडी की छापेमारी और दलों के भीतर व दलों के बीच मचे घमासान के शोर में असली मुद्दों की ओर किसी का ध्यान नहीं है, न तो नेताओं का, न पार्टियों का और न ही सरकारों का। हर दल को सत्ता पर काबिज होने की आपाधापी है। इन सबके बीच असल मतदाता यानी जनता से सीधे जुड़े मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं। गांव-गांव, मोहल्ले-मोहल्ले जाकर सभाएं करने वाले राजनेताओं को असली मुद्दों का अंदाजा ही नहीं हैं कि उनके मतदाताओं की असल समस्याएं क्या हैं?
युवाओं, किसानों और महिलाओं को सरकार से किस प्रकार की सहायता चाहिए, विकास पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के बदलते स्वरूप, समाज में उत्पन्न होती नई रूढ़िवादी परंपराएं, घटती आय, आय में बढ़ती असमानता, बेरोजगारी के इस आलम में नशे का बढ़ता चलन, कोरोना महामारी से उत्पन्न बीमारियों से उजड़ते-बिगड़ते आशियाने और शिक्षा की नई व्यवस्था के चलते कर्ज में डूबे परिवार जैसे अहम मुद्दे चुनावी वादों से नदारद हैं।
चुनाव के इस माहौल में जब राजनीतिक दल हर बार की तरह अपने एजेंडा और चुनाव प्रचार में खूब सारे लुभावने वादे कर रहे हैं, तीन विशेष मुद्दे जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में आम जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। पहला, ग्रीमीण क्षेत्रों में नशे का बढ़ता चलन जो हर गांव में तकरीबन 60-70 फीसदी परिवारों को बर्बाद कर रहा है। अफीम और डोडा पोस्त के नशे में चूर ग्रामीण नौजवान और बुजुर्ग इस बुरी आदत के कारण कर्ज में डूब रहा है। अफीम के नशे से पीढ़ियां बर्बाद हो रही हैं। ये नशा शहरी क्षेत्रों की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर का स्वरूप ले चुका है। मादक फसल उत्पादन, भंडारण और वितरण के कड़े कानून होने के बावजूद अफीम व डोडा पोस्त ग्रामीण क्षेत्रों में कैसे पहुंच रहा है, इसकी रोकथाम क्यों नहीं की जा रही है। हर ग्रामीण समारोह, चाहे शादी हो या मृत्यु भोज या आम सभा, अफीम और डोडा पोस्त के बगैर अधूरी मानी जाती हैं। गिने चुने संपन्न परिवार, गांवों में अपना प्रभाव बनाने और राजनीतिक हित साधने के लिए अफीम जैसे महंगे नशे परोस कर आम जन को नशे की लत में झोंक रहा है। डोडा पोस्त का नशा एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं है। क्या जनप्रतिनिधियों को नशे के इस कैंसर की रोकथाम करने और नशा मुक्ति करवाने को अपना चुनावी मुद्दा नहीं बनाना चाहिए।
दूसरा, शिक्षा का व्यावसायीकरण और स्कूल की उच्च शिक्षा में “डमी क्लासेज” का बढ़ता प्रचलन। “डमी क्लासेज”, जिसे “कोचिंग ट्यूशन सेंटर”के रूप में भी जाना जाता है, का नियमित सरकारी स्कूल और सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालयों के साथ ऐसा अवैध गठजोड़ है जहां छात्र-छात्राओं को अपने विद्यालय में नियमित कक्षाओं में भाग लेने की आवश्यकता नहीं होती है और छात्र अपनी अंतिम बोर्ड परीक्षा के लिए वर्ष में एक बार ही नियमित स्कूल में उपस्थित होते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे जेईई मेन, जेईई एडवांस्ड और नीट में सफलता का झुनझुना दिखा कर बच्चों को 11वीं और 12वीं में नियमित स्कूल से वंचित कर दिया जाता है। वास्तविकता यह है कि यहां सफलता सिर्फ 100 में से 2-3 बच्चों को ही मिलती हैं।
“डमी क्लासेज” के चलते परिवारों पर दोहरी आर्थिक मार तो पड़ती ही है, नियमित स्कूल नहीं जाने से छात्र समन्वित शिक्षा, सहकर्मी समूह, मित्र मंडली, पारस्परिक कौशल, पाठ्येतर गतिविधियों और खेल-कूद गतिविधियों से वंचित हो जाते हैं। इससे उनके व्यक्तित्व का समग्र विकास नहीं हो पाता। इससे बच्चों में चिड़चिड़ापन, मानसिक रोग और आत्मघाती प्रवृत्ति बढ़ जाती है। राजस्थान पुलिस के आंकड़ों के अनुसार, कोटा में 2022 में 15, 2019 में 18, 2018 में 20, 2017 में 7, 2016 में 17 और 2015 में 18 छात्रों ने आत्महत्या की है। 2020 और 2021 में कोविड-19 महामारी के कारण कोचिंग संस्थानों के बंद होने के चलते कोटा में एक भी आत्महत्या दर्ज नहीं हुई। यह इस बात का साक्षात प्रमाण है कि “डमी क्लासेज” ही छात्रों में आत्महत्या की प्रवृत्ति का मुख्य कारण है।
“डमी क्लासेज” का अवैध धंधा क्यों और किसकी शह पर फैल रहा है, सीबीएसई इस पर सख्त कदम क्यों नहीं उठा रही? सरकारी विद्यालियों के प्राचार्य और शिक्षक छात्रों को नियमित स्कूल में वंचित रहने की अनुमति क्यों देते हैं और गैर कानूनी तरीके से स्कूल छात्रों की नियमित कक्षा में पूर्ण उपस्थिति सीबीएसई को जमा करते हैं जो कि छात्रों के लिए बोर्ड परीक्षा में बैठने के लिए अनिवार्य है। क्यों नहीं सीबीएसई 11वीं और 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम और प्रतियोगी परीक्षा के पाठ्यक्रम की विसंगतियों को दूर करे ताकि "डमी क्लासेज" की आवश्यकता ही खत्म हो जाए। कुछ ट्यूशन सेंटर के व्यापार के चलते छात्रों के भविष्य के साथ ऐसा खिलवाड़ खुले आम हो रहा है। सितंबर 2023 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि दिल्ली में स्कूल “डमी क्लासेज” कक्षा 11वीं और 12वीं के छात्रों को उपस्थिति की आवश्यकता के बिना परीक्षा में बैठने की अनुमति दे रहे हैं जो 'सीबीएसई उपनियम' 75 फीसदी अनिवार्य उपस्थिति का उल्लंघन है। इस प्रकार, खुले आम पनपती अवैध शिक्षा प्रणाली आज हमारे राजनेताओं का चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है।
तीसरा और आखिरी मुद्दा कोरोना महामारी से उत्पन्न बीमारियों से उजड़ते-बिगड़ते आशियाने को लेकर है। आज हर परिवार, चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी, स्वास्थ्य से जुड़ी नई बीमारियों और उनसे होने वाले नुकसान से त्रस्त है। युवा पीढ़ी में ब्रेन हेमरेज और हार्ट अटैक जैसी जानलेवा बीमारियां आम हो गई हैं। हर रोज इन बीमारियों से मरने वाले युवाओं के हृदय विदारक समाचार अच्छे खासे परिवारों को नष्ट कर रहे हैं। ये बीमारियां अचानक क्यों फैल रही हैं, इन जानलेवा बीमारियों से कौन अतिसंवेदनशील है और कौन प्रतिरक्षित, इसकी कोई जानकारी नहीं है। आलम यह है कि इन जानलेवा बीमारियों के लक्षण, एहतियाती उपाय और रोगनिरोधी कदम क्या हैं, के बारे में हमारे चिकित्सा अनुसंधान भी आश्चर्यचकित हैं। हाल ही में गुजरात में 'गरबा' आयोजनों के दौरान हृदय संबंधी समस्याओं के कारण कई मौतें हुई हैं। पिछले माह केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि आईसीएमआर ने एक विस्तृत अध्ययन किया है जो बताता है कि जो लोग कोरोना संक्रमण से पीड़ित हुए हैं, उन्हें अधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। उन्हें एक या दो साल के लिए कड़ी कसरत, दौड़ने और भारी व्यायाम से दूर रहना चाहिए, ताकि दिल के दौरे से बच सकें। जीने और मरने का ये मुद्दा भी पांचों राज्यों के चुनाव प्रचार और पार्टियों के घोषणा-पत्र में कहीं भी देखने को नहीं मिल रहा है।
(लेखक दक्षिण एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र, जोधपुर के संस्थापक निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)