उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हो रहे हैं। ये चुनाव कई चरणों में होंगे। पहले चरण का मतदान 15 अप्रैल को संपन्न हुआ है। हालांकि ये चुनाव किसी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर नहीं हो रहे हैं फिर भी राजनीतिक दलों की इसमें काफी सक्रिय भूमिका है। पहले पंचायत चुनावों में राजनीतिक दलों की इतनी रुचि नहीं होती थी, लेकिन पैसे को देखते हुए वे काफी ज्यादा रुचि लेने लगे हैं।
राज्य वित्त आयोग तथा केंद्र और राज्य सरकारों की प्रायोजित योजनाओं को छोड़ भी दें, तो उत्तर प्रदेश की पंचायतों को 2021-22 से 2025-26 तक 5 वर्षों में केंद्र सरकार से 15वें वित्त आयोग के तहत 38,012 करोड़ रुपए मिलेंगे। यह रकम 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों से अधिक है। लोग उम्मीदवारों के नाम घोषित होने के साथ ही यह जानना चाहते हैं कि उम्मीदवार उनकी जाति या विचारधारा के हैं या नहीं। सच कहा जाए तो विचारधारा पीछे चली गई है क्योंकि अनेक उम्मीदवार चुनाव जीतने की उम्मीद में सीमा लांघ कर दूसरी पार्टियों में चले गए हैं। अलग अलग राजनीतिक शक्तियां हाथ भी मिला रही हैं ताकि विपक्षी शक्तियों को कड़ी टक्कर दी जा सके। इन परिस्थितियों में पंचायती राज व्यवस्था के तीनों स्तर के प्रतिनिधियों का चुना जाना बड़ी रोचक घटना हो सकती है। प्रदेश की 75 जिला पंचायतों, 822 क्षेत्र पंचायतों और 58791 ग्राम पंचायतों में 8,26,458 प्रतिनिधियों को चुना जाना है।
विडंबना है कि चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को नहीं मालूम कि अगर वे जीत गए तो उनका एजेंडा क्या होगा। ना ही मतदाताओं को इस बात की जानकारी है कि उन्हें प्रत्याशियों से क्या सवाल पूछना चाहिए, सिवाय अपने इलाके में खड़ंजा और पड़ंजा बिछाने के। देश में होने वाले अन्य चुनावों की तरह प्रत्याशी यहां भी दावा कर रहे हैं कि चुने जाने के बाद वे गांव का विकास करेंगे और ग्रामीणों की सभी समस्याएं दूर करेंगे। इसलिए जाते-जाते वे लोगों से कहते हैं, “जब वोट डालने जाएं तो मुझे जरूर याद रखिएगा।” प्रचार में जाति की भी अहम भूमिका होती है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि अलग-अलग स्तर के प्रतिनिधियों से मतदाताओं को किस तरह के सवाल पूछने चाहिए।
क्या उन्होंने उत्तर प्रदेश पंचायती राज कानून को देखा और पढ़ा है? अगर पढ़ा है तो उसकी मुख्य बातें क्या है? पंचायत से जुड़ा एक ही कानून है या ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के लिए अलग-अलग कानून हैं? ग्राम पंचायत विकास योजना (जीपीडीपी) में वार्ड के सदस्य की क्या भूमिका होती है? जीपीडीपी तैयार करने में फ्रंटलाइन वर्करों की भूमिका क्या रहती है? ग्राम पंचायत की कितनी बैठकें एक महीने में होनी चाहिए? इसी तरह क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायतों में कितनी बैठक होनी चाहिए? पंचायतों के ठीक तरह से काम करने के लिए क्या समितियां बनाई जाएंगी? अगर वे हां कहते हैं तो उनसे यह भी पूछिए कि पंचायत के अलग-अलग स्तर पर कौन-कौन सी समितियां बनाई जाएंगी? ऑडिट किस तरह किया जाता है? 15वें वित्त आयोग ने पंचायत को फंड जारी करने के लिए ऑडिट से संबंधित क्या शर्ते रखी हैं? क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के सदस्यों के कार्य क्या हैं? ऐसा देखा गया है कि क्षेत्र पंचायत स्तर पर उनकी भूमिका प्रमुख चुनने और जिला स्तर पर अध्यक्ष चुनने तक सीमित होती है, और वह भी पैसे के बिना नहीं होती। एसडीजी क्या है? अलग-अलग स्तर के पंचायतों की गतिविधियों के साथ ये किस तरह जुड़े हैं? यह सवाल तब अधिक प्रासंगिक होगा जब चुनाव लड़ने वाला प्रत्याशी यह कहे कि वह गांव में विकास के कार्य करेगा। उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि स्थानीय संदर्भ में विकास का मतलब क्या है?
73वें संविधान संशोधन के मुताबिक पंचायतों पर आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजना बनाने की जिम्मेदारी है। इनमें संविधान की 11वीं अनुसूची में शामिल 29 विषय भी शामिल हैं। यहां योजना बनाने का मतलब सिर्फ गांव की औसत आमदनी और समृद्धि बढ़ाना नहीं, बल्कि समानता भी है। दूसरे शब्दों में कहें तो कमजोर परिवारों को भी योजना का लाभ मिलना चाहिए। इस संदर्भ में मतदाताओं को यह सवाल भी करना चाहिए कि आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाने का अर्थ क्या है। यह विषय इसलिए प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि आजकल स्थानीय स्तर पर गवर्नेंस लोगों की साझेदारी के आधार पर नहीं होता, बल्कि विभिन्न पक्षों के बीच सेटिंग के आधार पर होता है। आमतौर पर पंचायत प्रतिनिधि पहले तो लोगों को बैठकों और गतिविधियों के बारे में जानकारी देते हैं। लेकिन एक बार अधिकारियों और दूसरे पक्षों के साथ उनकी सेटिंग हो जाती है तब उन्हें लोगों की चिंता नहीं रहती और वे पंचायत को नियमों के मुताबिक नहीं चलाते हैं।
यह बात बड़ी खेदजनक है कि पंचायत चुनाव 3 पक्षों के बीच बिजनेस डील बन गए हैं। ये पक्ष हैं अपना दबदबा रखने वाले जातिगत नेता, प्रॉक्सी उम्मीदवार और मतदाता। आरक्षित सीटों पर प्रभुत्व रखने वाली जाति अपने प्रॉक्सी उम्मीदवार का सीधा समर्थन करती है। सिद्धार्थ मुखर्जी ने 2018 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले की 3 आरक्षित ग्राम पंचायतों का अध्ययन किया था। उन्होंने खुलासा किया कि एक ग्राम पंचायत में चुनाव प्रचार और मतदाताओं को लुभाने में औसतन 5 से 6 लाख रुपए खर्च होते हैं। ग्राम पंचायत प्रमुख राजनीति में तभी बना रह सकता है अगर वह कड़ी में हर स्तर पर कमीशन का भुगतान करें। इस कड़ी में ग्राम विकास सचिव, जूनियर इंजीनियर, ब्लॉक स्तर का कर्मचारी और जिला पंचायत सभी शामिल होते हैं। यह सेटिंग का एक उदाहरण है। इसलिए मतदाताओं को अलग-अलग स्तर पर काम कर रहे इस सेटिंग को तोड़ना चाहिए।
मैं मतदाताओं को जवाबदेही के बारे में भी बताना चाहूंगा जो प्रभावी ग्रामीण गवर्नेंस में एक महत्वपूर्ण तत्व होता है। योगदान और जवाबदेही के बीच प्रत्यक्ष संबंध होता है। मतदाताओं को पंचायतों में योगदान करने के लिए आगे आना चाहिए। यह योगदान टैक्स, फीस आदि के रूप में होता है। इस तरह का योगदान मतदाताओं को एक तरह से पंचायत का मालिकाना हक देता है। यहां बेसले और पर्सन का उद्धरण देना उचित होगा, जिनका कहना है कि नागरिकों और राज्य के बीच एक सामाजिक अनुबंध होता है। राज्य की भूमिका सबके लिए बेहतर परिस्थितियां बनाने की होती है। राज्य सबके लिए बुनियादी सेवाएं मुहैया कराता है और पुनर्वितरण के जरिए कमजोर वर्गों की रक्षा करता है। अगर राज्य इस अनुबंध का पालन नहीं करता है तो नागरिक उसे जिम्मेदार ठहरा सकता है। यहां राज्य की जगह हम पंचायत को रख सकते हैं। राज्य जो सेवाएं मुहैया कराने का वादा करता है उसके लिए अगर नागरिक प्रत्यक्ष रूप से भुगतान नहीं करता है तो राज्य को जिम्मेदार ठहराने का भी उसे कोई हक नहीं होता है। अगर नागरिक भुगतान नहीं करता है तो वह मुफ्त में सेवाओं सेवाएं लेता है। जब वह सेवाओं के बदले भुगतान करेगा तभी वह राज्य को जवाबदेह ठहरा सकता है। यही बात पंचायती राज पर भी लागू होती है। इसलिए पंचायत के कोष में अंशदान करने की जिम्मेदारी मतदाताओं की होती है। तभी वे चुने हुए प्रतिनिधियों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं और सेटिंग की व्यवस्था को दूर कर सकते हैं।
(डॉ. महिपाल इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के रिटायर्ड अधिकारी और कृपा फाउंडेशन के प्रेसिडेंट हैं। उनसे mpal1661@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है, लेख में विचार उनके निजी हैं )