आईटी कंपनी इंफोसिस के संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति के सप्ताह में 70 घंटे काम करने के बयान ने मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा लोगों में हलचल पैदा कर दी है। उनके इस सुझाव पर नौकरीपेशा वर्ग के ज्यादातर लोगों ने नाराजगी जताई है, जबिक अन्य उद्योगों के उद्योगपतियों में आगे 'श्रम सुधारों' की उम्मीद जगी है।
मूर्ति ने क्या कहा? भारत की कार्य उत्पादकता दुनिया में सबसे कम में से एक है। हमारे युवाओं को कहना होगा- 'यह मेरा देश है, मैं हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहता हूं।' उनके इस सुझाव पर विस्फोटक प्रतिक्रिया देखने को मिली। यह बहस काफी हद तक शहरी थी, वह भी बड़े शहरों में। 140 करोड़ लोगों का यह देश केवल 4-5 महानगरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस तरह की बहसों को बड़े संदर्भ में लिया जाना चाहिए। हमारे गांवों को भी इसमें क्यों नहीं शामिल किया जाए?
पश्चिमी उत्तर प्रदेश या पड़ोसी हरियाणा के किसी भी गांव के पांच-छह सदस्यों वाले एक सामान्य परिवार का उदाहरण लें और देखें कि वे सप्ताह के सातों दिन कितने घंटे काम करते हैं। वैसे, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में 'रविवार' नाम की कोई चीज नहीं होती है। गांव में काम का सिलसिला रविवार से रविवार तक जारी रहता है।
परिवार का मुखिया पत्नी के साथ सुबह 5 बजे बिस्तर छोड़ देता है। पारंपरिक पारिवारिक कार्य विभाजन के अनुसार, परिवार का पुरुष मुखिया पशुओं (गाय-भैंस) की देखभाल करता है- उन्हें चारा देता है और महिला सदस्य सुबह के घरेलू कामों में लग जाती है। इसमें मुख्य रूप से घर की साफ-सफाई करने, भोजन बनाने और रात में जमाई गई दही को मथने और मक्खन एवं छाछ बनाने की प्रक्रिया शामिल है। इसके बाद वह भी गाय-भैंस चराने में अपने पति की मदद करती है।
इसमें करीब दो घंटे लगते हैं जिसके बाद नाश्ते के लिए एक छोटा सा ब्रेक लिया जाता है। नाश्ते में मक्खन के साथ रोटी और एक गिलास लस्सी या छाछ या चाय शामिल होता। जैसे ही गांव का दूधिया घर में आता है, वे फिर से काम पर लग जाते हैं और गाय-भैंस का दूध निकालना शुरू कर देते हैं। इसके बाद पुरुष सदस्य खेत की ओर चला जाता है और महिला बच्चों की देखभाल करती है। वह बच्चों को खाना देती है और स्कूल भेजती है। इसके बाद वह फिर से पालतू पशुओं की देखभाल में जुट जाती है। इस समय उसे यह काम अकेले करना पड़ता है।
यह सिलसिला दिन के लगभग 12.30-1 बजे तक चलता है। उसके बाद दोनों लगभग एक घंटे का विराम लेते हैं। मगर इस समय तक दंपति 7-8 घंटे काम कर चुके होते हैं। दोपहर बाद शाम से लेकर रात तक की दिनचर्या में कम से कम छह घंटे और लगते हैं। इसका मतलब है कि वे रोजाना 14 घंटे या सप्ताह में 98 घंटे काम करते हैं, जबकि नारायण मूर्ति ने 70 घंटे काम करने का सुझाव दिया है।
ज्यादातर भारतीय (शहरों और गांवों दोनों में) कड़ी मेहनत करते हैं और कम उत्पादकता के लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए। एक कैब ड्राइवर दिन में कम से कम 12 घंटे काम करता है, जबकि कंपनी के अधिकारियों का ड्राइवर पूर्णकालिक काम करता है। हाउसिंग सोसायटियों में गेट पर तैनात सुरक्षा गार्ड 12 घंटे काम करते हैं। दुकानदार भी 10-12 घंटे तो दुकान में बिताते ही हैं। लेकिन मूर्ति के सुझाव को आदर्श नहीं माना गया है। उनके सुझाव का स्पष्ट संदर्भ कॉरपोरेट्स में उन लोगों के लिए था जो दिन में कम से कम 8 घंटे या सप्ताह में 40-45 घंटे काम करते हैं। नौकरियों में किसी किसान या ग्रामीण मजदूर की कड़ी मेहनत शामिल नहीं होती है, लेकिन इनमें बहुत अधिक मानसिक परिश्रम की आवश्यकता होती है और ये मानसिक तनाव में रहते हैं।
कम उत्पादकता की समस्या हम भारतीयों में प्रतिबद्धता की कमी की वजह से नहीं है, बल्कि शहरों या गांवों में बोझिल प्रणालियों और आधुनिकीकरण की कमी की वजह से है। हमारे गांवों में आज भी पशुपालन का कठिन परिश्रम वैसा ही है जैसा पांच दशक पहले था। हमें अपने गांव के घरों, खेतों, मंडियों में अपनी प्रथाओं को आधुनिक बनाने की जरूरत है ताकि उन्हें उपभोग और उत्पादन दोनों की स्मार्ट और उत्पादक आपूर्ति श्रृंखलाओं में एकीकृत किया जा सके।
मूर्ति नेक इरादे वाले एक प्रतिष्ठित उद्योगपति हैं। उनके सुझाव को भारतीय संदर्भ और जमीनी हकीकत के मुताबिक ढालना होगा।