वित्त मंत्री, निर्मला सीतारमण ने 2021-22 के अपने बजट में घोषणा की थी कि उनकी सरकार ने ऑपरेटिंग पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर एसेट्स का मोनेटाइजेशन करने का निर्णय लिया है। इसे एक नए बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण वित्तीय विकल्प के रूप में घोषित किया गया । उन्होने कहा कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए "नेशनल मोनेटाइज पाइपलाइन" (एनएमपी) शुरू की जाएगी। अब सात महीनों बाद, एनएमपी का लांच किया गया, जो इस बात को दर्शाता है कि सरकार कई "कोर एसेट्स" यानी अति महत्वपूर्ण संस्थानों का मोनेटाइजेशन करके अगले चार वर्षों में 6 लाख करोड़ रुपये जुटाने का इरादा रखती है । इस सरकार के शब्दकोष में संपत्ति का मोनेटाइजेशन कोई नई बात नहीं है । जिस तरह से एयर इंडिया और अन्य पब्लिक सेक्टर के उद्यमों में का विनिवेश किया गया है यह उसी तरह का कदम है। यह मायने में यह मोनोटाजेशन के नाम पर सरकारी संपत्तियों का निजीकरण करना ही है ।
निजीकरण की शब्दावली को मोनोटाजेशन का नाम दे दिया गया है और इसकी वजह “निजीकरण” का तीखा राजनतिक विरोध होना रहा है। दो खंडों वाली नीति आयोग की रिपोर्ट, जो "एसेट मोनोटाजेशन गाइडबुक के रूप में कार्य करती है, इसमें बाताया जाता है कि एनएमपी "मूल संपत्तियों के मोनेटाजेशन के लिए एक सामान्य ढांचा विकसित करने" में मदद करेगी और इससे निजीकरण से अलग देखा जा सकेगा। लेकिन क्या एसेट मोनोटाजेशन और निजीकरण के बीच कोई व्यवहारिक अंतर है?
नीति आयोग की रिपोर्ट में एसेट मोनेटाजेशन को परफार्मिंग संपत्तियों का हस्तांतरण के रूप में वर्णित किया गया है। निष्क्रिय पूंजी को अनलॉक करके अन्य संपत्तियों या परियोजनाओं में पुनर्निवेष किया जाए जिससे अतिरिक्त लाभ और बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकें। हमारे विचार में, एसेट मोनेटाजेशन से तीन प्रकार के प्रश्न उठते हैं। सबसे पहले कि क्या मोनेटाजेशन के लिए पहचानी गई संपत्तियां "निष्क्रिय" या " परर्फामिंग" है ? निश्चित रूप से, वह दोनों नहीं हो सकती हैं । दूसरा, क्या देश के आम नागरिक कथित रुप से इससे अतिरिक्त लाभ" प्राप्त करने की उम्मीद कर सकते हैं? और, अंत में, क्या सरकार करदाताओं के पैसे जुटाई गई संपत्ति बेचने के बजाय संसाधन जुटाने के लिए अन्य रास्ते तलाश सकती थी ?
सरकार ने निजी संस्थाओं को स्थानांतरित करने के लिए सामरिक और महत्वपूर्ण दोनो तरह की परफार्मिंग एसेट की पहचान की है। इनमें 26,700 किमी से अधिक राजमार्ग, 400 रेलवे स्टेशन, 90 पैसेजेंर ट्रेन, चार हिल रेलवे जिसमें दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे भी शामिल है। इसके अलावा मौजूदा समय में पब्लिक सेक्टर उपक्रम जैसे दूरसंचार, पावर ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन , पेट्रोलियम, पेट्रोलियम उत्पाद और प्राकृतिक गैस पाइपलाइन साथ ही एनएमपी भी शामिल हैं। अगर ऐसी संपत्ति की पेशकश नहीं की जाती, तो क्या निजी क्षेत्र उन पर अधिकार हासिल करने में दिलचस्पी लेते ?
सरकार का इरादा एनएमपी के तहत इन संपत्तियों पर अपने अधिकारों को लीज पर देने या बेचने का है जिसके लिए लंबी अवधि की लीज के लिए अग्रिम या एक निश्चित अंतराल पर भुगतान हो सकते हैं। इन संस्थाओं में सरकार के हिस्से को लीज पर देने या डिसइनवेस्टमेंट से अपेक्षित फाइनेंशियल फ्लो आएगा। इस प्रकार केंद्र सरकार जो इस समय एक वित्तीय संकट के चपेट में है उसको इससे एक बड़ा लाभ होगा । साल 2020-21 के अंत में केंद्र सरकार का कर्ज-जीडीपी अनुपात एक साल पहले के 48.6 फीसदी से बढकर 60 फीसदी के पार हो गया है। मौजूदा समय मे उम्मीद हैं कि 2021-22 में यह आंकड़ा 62 फीसदी के करीब हो जाएगा । इस स्थिति को देखते हुए एनएमपी को संसाधन जुटाने और राजकोषीय गतिरोध से बाहर निकलने के लिए सरकार की क्षमता के रूप में पेश किया जा रहा है।
एनएमपी को लेकर वित्त मंत्री की घोषणा का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि सरकार ने एसेट मोनोटाजेशन के देश के आम नागरिक पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में कोई भी जिक्र नहीं किया है। इस मुद्दे को समझने के लिए दो स्पष्ट आयामों की आवश्यकता मानी गई है। सबसे पहले, जो एसेट लीज या डिसइनवेस्टमेंट के लिए दिये जा रहे हैं इनकी स्थापना में जनता के कर भुगतान से जुटाए गये संसाधानों की बड़ी भागीदारी है और इन परिसंपत्तियों के आपरेशन और प्रबंधन में उनकी हिस्सेदारी है। दूसरे, इन परिसंपत्तियों का प्रबंधन अब तक सरकार और इसकी एजेंसियों द्वारा किया जाता रहा है, जो सार्वजनिक हित में काम करती हैं और लाभ कमाने के विचारों से प्रेरित नहीं होती हैं। इसलिए, इन संपत्तियों के उपयोग के बदले जनता द्वारा दिये जाने वाला शुल्क वाजिब रहा है और अब रेलवे ,राजमार्गों से लेकर बिजली, दूरसंचार और गैस तक सभी प्रमुख उपयोगिता वाली पब्लिक सेक्टर की परिसंपत्तियों को चलाने की जिम्मेदारी निजी कंपनियों को मिल रही है। इससे देश के नागरिकों पर दोहरा टैक्स लगेगा। सबसे पहले, उन्होंने संपत्ति बनाने के लिए करों का भुगतान किया और अब उपयोग कर्ता के रूप में शुल्क का भुगतान करेंगे, जिससे उनके घरेलू बजट पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
इसके पीछे का कारण स्पष्ट है । सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं के विपरीत, निजी क्षेत्र की कंपनियों का मूल उद्देशय अपने लाभ को अधिकतम करना और शेयरधारकों को मिलने वाले रिटर्न को बढ़ाना है। दूसरे शब्दों में कहे तो यह सामाजिक लाभ नहीं है, बल्कि अधिकतम निजी लाभ है जो कॉरपोरेट्स को चलाता है। इसलिए, जैसा कि सरकार परफार्मिंग एसेट को निजी क्षेत्र को स्थानांतरित करने की तैयारी कर रही है सरकार को इस बात को सुनिश्चित करना होगा कि निजी क्षेत्र की कंपनियां उपयोग कर्ता से बाजार से अधिक कीमत न ले । नीति आयोग की रिपोर्ट में भी यह महत्वपूर्ण आयाम स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है। लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा तभी की जा सकती है जब सरकार नियमों के माध्यम से कंपनियों की लाभ-अधिकतम करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती है। रोजमर्रा के उपयोग की सेवाओं के निजीकरण के पिछले प्रकरणो को देखा जाय तो बेहतर नियमन की बजाय नियामक खामियों के चलते उपभोक्ताओं का शोषण ही हुआ है । उदाहरण के लिए देश की राजधानी दिल्ली में बिजली वितरण प्रणाली के निजीकरण को ही ले लीजिए। यहां कांग्रेस सरकार ने दिल्ली में बिजली वितरण का निजीकरण किया इसके परिणामस्वरूप में तेजी से बिजली दरों में वृद्धि हुई जिससे जहां यह गरीबों की पहुंच से बाहर हो गई वहीं मध्यम वर्ग भी ऊंची दरों से प्रभावित हुआ। इसके बाद आम आदमी पार्टी के मुख्य चुनावी वादों में सबसे महत्वपूर्ण सस्ती दर पर बिजली उपलब्ध कराना था जिसे दिल्ली सरकार ने उपभोक्ता को सब्सिडी वाली बिजली देकर पूरा किया । लेकिन राजधानी के मतदाताओं को इस बात का बहुत कम एहसास है कि सरकार जो सब्सिडी दे रही है वह उसके लिए उनसे अधिक टैक्स के रूप मे वसूल करती है। इसका मतलब है कि शहर के करदाता या तो अधिक टैक्स दे रहे हैं या "सस्ती" बिजली दरों से "लाभ" के लिए दूसरी सार्वजनिक सेवाओं से वंचित हो रहे हैं जबकि निजी कंपनियां तो अब भी मुनाफा कमा रही हैं ।
चूंकि प्रस्तावित एसेट मोनेटाजेशन सरकार द्वारा संसाधनों की कमी से निपटने के उपाय के रूप में लाया गया है। सरकार से एक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि क्या ऐसे अन्य रास्ते हो सकते थे जो संसाधनों के अंतर को पाटने के लिए उपयोग किए जा सकते थे। एक संभावना यह थी कि कर राजस्व में वृद्धि की जाए क्योंकि साल 2019-20 में 17.4 प्रतिशत के साथ भारत का सकल घरेलू उत्पाद के साथ कर अनुपात अधिकांश विकसित राष्ट्रों की तुलना में काफी कम था। टैक्स अनुपालन में सुधार और खामियों को दूर करने पर लंबे समय से जोर दिया गया है क्योंकि कर राजस्व में सुधार के लिए इसे सबसे सुरक्षित तरीके के रूप में देखा गय़ा है ।, लेकिन इस पर वास्तव मे बहुत कम काम किया गया है, जैसा कि यहां दिये जा रहे उदाहरण मे देखने को मिलता है। 2005-06 से इलेक्ट्रॉनिक रूप से अपना रिटर्न दाखिल करने वाली कंपनियो द्वारा घोषित लाभ और टैक्स के भुगतान का डेटा सरकार उपलब्ध करा रही है । इस डेटा से पता चलता है कि 2005-06 में, इनमें से 40 प्रतिशत कंपनियों ने घोषणा की थी कि वे कोई लाभ नही कमा रही है और यह आंकड़ा 2018-19 में बढ़कर 51 प्रतिशत से अधिक हो गया था। इसके अलावा एक करोड़ रुपये या उससे कम का लाभ कमाने का दावा करने वाली कंपनियों का हिस्सा 2005-06 में 55 प्रतिशत था जो 2018-19 में घटकर 43 प्रतिशत हो गया है। यह नंबर खुद मे दर्शाते हैं कि कैसे भारत की बड़ी-बडी कंपनियां टैक्स नेट से बचने के लिए रिपोर्टिंग खामियों का फायदा उठा रही हैं। लेकिन इसके बावजूद एक के बाद एक सरकारें इतनी उदार क्यों रही हैं ?
नीति आयोग के अनुसार, " एसेट्स मोनेटाइजेशन प्रोग्राम का रणनीतिक उद्देश्य है, "निजी क्षेत्र की पूंजी और क्षमता का दोहन करके सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्ति में निवेश की वैल्यू को अनलॉक करना । नीति आयोग के उद्देश्य के अनुसार पब्लिक सेक्टर के उद्योग उद्यम अक्षम हैं। लेकिन यह वास्तविकता के विपरीत तर्क है। साल 2018-19 में 28 प्रतिशत सार्वजनिक उद्यम घाटे में थे जबकि निजी क्षेत्र की 51 प्रतिशत बड़ी कंपनियां घाटे में थी। ऐसे में तो यह सोचने वाली बात है कि एसेट्स मोनेटाइजेशन प्रोग्राम क्या सच मे सक्षम होगा?