अमेरिका के करीब एक दर्जन सांसदों ने 1 जुलाई 2022 को राष्ट्रपति जो बाइडेन को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने एक दशक से विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों के उल्लंघन के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने का आग्रह किया था। सांसदों का कहना है कि भारत डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन करते हुए अपने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दे रहा है। अपने हितों को बढ़ावा देकर भारत अमेरिकी किसानों के हितों के खिलाफ काम कर रहा है। राष्ट्रपति को पत्र लिखने की पहल दो सांसदों ने की थी- रिक क्रॉफर्ड और ट्रेसी क्रॉफर्ड। महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों सांसदों को अमेरिकी कृषि व्यापारियों से कैंपेन फंडिंग मिलती है। इस तरह भारतीय कृषि पर निशाना साधना अमेरिकी एग्री बिजनेस की तरफ से भारत के किसानों के खिलाफ एक और मोर्चा खोलना है।
अमेरिकी सांसदों का तर्क है कि भारत गेहूं और चावल किसानों को जो न्यूनतम समर्थन मूल्य दे रहा है वह डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन है। कृषि पर जो समझौता (एओए) हुआ था उसके मुताबिक किसी भी फसल के लिए उसके उत्पादन के कुल मूल्य के 10 फ़ीसदी से अधिक सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। अमेरिकी सांसदों का दावा है कि वर्षों से गेहूं और चावल के मामले में भारत कुल उत्पादन मूल्य के 50 फ़ीसदी से अधिक की सब्सिडी दे रहा है। इन सांसदों ने डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन करने और फेयर ट्रेड प्रैक्टिस की अवहेलना करने के आरोप में बाइडेन प्रशासन से भारत के खिलाफ डब्ल्यूटीओ में विवाद प्रक्रिया शुरू करने का आग्रह किया है।
ऐसा नहीं कि भारत की एग्रीकल्चर सब्सिडी पर पहली बार सवाल उठाए गए हैं। 2018 में अमेरिका ने चावल, गेहूं और कपास के लिए भारत के न्यूनतम समर्थन मूल्य, जिसे कृषि समझौते में मार्केट प्राइस सपोर्ट (एमपीएस) कहा गया है, पर सवाल उठाए थे। गन्ना किसानों के लिए घोषित होने वाले उचित एवं पारिश्रमिक मूल्य (एफआरपी) तथा राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) पर ऑस्ट्रेलिया ने आपत्ति जताई थी। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के प्रशासन तथा वहां के सांसदों के दावे को समझने के लिए कृषि सब्सिडी के नियमों को समझना जरूरी है जो कृषि समझौते में बताए गए हैं।
कृषि समझौते के मुताबिक मार्केट प्राइस सपोर्ट (एमपीएस) के आधार पर सब्सिडी की गणना सरकार की गारंटी वाले मूल्य (या एमएसपी) तथा 1986-88 के दौरान उस फसल के औसत अंतरराष्ट्रीय मूल्य के आधार पर की जाएगी। समझौते के वक्त माना गया था कि 1986-88 के दौरान कीमतें स्थिर थीं और उन पर किसी भी देश का दबाव नहीं था। इसलिए उन्हें प्रतिस्पर्धी मूल्य के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है।
किसी एक फसल पर साल भर में कितनी सब्सिडी दी गई वह तय करने के लिए 1986-88 के औसत अंतरराष्ट्रीय मूल्य और उस साल के एमपीएस के अंतर को सरकार की तरफ से खरीदी गई मात्रा से गुणा किया जाता है। इस तरह जो राशि निकलती है वह उस फसल के कुल उत्पादन की कीमत के 10 फ़ीसदी से कम होनी चाहिए। अगर यह राशि इस सीमा से अधिक होती है तो वह डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन है, जैसा कि अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य दावा कर रहे हैं।
2018 में अपनी शिकायत में अमेरिका ने कहा था कि 2010-11 से 2013-14 तक चावल के लिए भारत का एमपीएस कुल उत्पादन के मूल्य के 70 फ़ीसदी से अधिक था। गेहूं के मामले में यह 60 फ़ीसदी से अधिक था। (टेबल 1)
टेबल 1: चावल और गेहूं के लिए भारत का मार्केट सपोर्ट प्राइस रुपये में
फसल |
मद |
MY 2010/11 |
MY 2011/12 |
MY 2012/13 |
MY 2013/14 |
चावल |
अमेरिका की एमपीएस गणना मिलियन रुपये में |
1,121,561 |
1,365,406 |
1,652,817 |
1,780,185 |
उत्पादन के कुल मूल्य का प्रतिशत |
74.0% |
80.1% |
84.2% |
76.9% |
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गेहूं |
अमेरिका की एमपीएस गणना मिलियन रुपये में |
618,688 |
731,486 |
904,191 |
964,973 |
उत्पादन के कुल मूल्य का प्रतिशत |
60.1% |
60.9% |
68.5% |
65.3% |
अमेरिका के इस दावे के जवाब में भारत सरकार ने डब्ल्यूटीओ में बताया कि चावल और गेहूं दोनों पर उसका एमपी 10 फीसदी की सीमा से कम है। भारत के अनुसार 2013-14 तक चावल पर एमएसपी 7 फ़ीसदी से अधिक था और यह 2013-14 में 5.5% के आसपास रह गया था। गेहूं के मामले में एमएसपी ज्यादातर वर्षों में नेगेटिव रही है। नेगेटिव इसलिए क्योंकि भारत गेहूं पर जो एमएसपी दे रहा था वह 1986-88 के औसत अंतरराष्ट्रीय मूल्य से कम था।
टेबल 2: चावल और गेहूं के लिए भारत का मार्केट प्राइस सपोर्ट अमेरिकी डॉलर में
फसल |
मद |
MY 2010/11 |
MY 2011/12 |
MY 2012/13 |
MY 2013/14 |
चावल |
भारत की एमपीएस गणना मिलियन डॉलर में |
2,282.17 |
2,647.39 |
2,796.70 |
1,983.73 |
उत्पादन के कुल मूल्य का प्रतिशत |
7.22% |
7.44% |
7.68% |
5.45% |
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गेहूं |
भारत की एमपीएस गणना मिलियन डॉलर में |
-161.98 |
117.76 |
-604.23 |
-817.81 |
उत्पादन के कुल मूल्य का प्रतिशत |
-0.73% |
0.48% |
-2.50% |
-3.53% |
टेबल से स्पष्ट है कि भारत और अमेरिका के दावे में अंतर इसलिए है क्योंकि सब्सिडी की गणना करते करने में अलग-अलग करेंसी का इस्तेमाल किया गया है। भारत सरकार ने अमेरिकी डॉलर में गणना करते हुए रुपए में हुए अवमूल्यन को शामिल कर लिया है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि चावल और गेहूं दोनों दोनों के लिए भारत की कुल सब्सिडी 10 फ़ीसदी की सीमा से बहुत कम है। लेकिन अमेरिका डॉलर में की गई गणना को नहीं मानता है। यह आश्चर्य की बात है क्योंकि कृषि समझौते में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि डब्ल्यूटीओ के सदस्य देश अपनी घरेलू करंसी से में ही सब्सिडी की गणना करेंगे।
अमेरिकी डॉलर में सब्सिडी की गणना करने से भारत फायदे की स्थिति में है इसका अंदाजा टेबल 1 और 2 से हो जाता है। अमेरिका की डिमांड को स्वीकार करते हुए अगर भारत ने रुपए में सब्सिडी की गणना की होती तो 10 फीसदी की सीमा बहुत पहले पार हो चुकी होती। इसका यह नतीजा होता कि सरकार अभी की तरह हर साल फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ा सकती थी।
लेकिन यह बात स्पष्ट है कि डब्ल्यूटीओ में तय की गई एक गलत पद्धति के आधार पर भारत को टारगेट किया जा रहा है। वैसे तो खामियां कई हैं लेकिन यहां सिर्फ प्रमुख खामियों की चर्चा की जा रही है। सबसे महत्वपूर्ण खामी यह है कि 1986-88 की अंतरराष्ट्रीय कीमतों और हर साल घोषित होने वाली फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर सब्सिडी की गणना की जाती है। 1986-88 के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों को प्रतिस्पर्धी मान लेना उचित नहीं है क्योंकि उस दौरान प्रमुख कमोडिटी के दाम में काफी उतार-चढ़ाव आ रहा था। इसकी दो वजहें थीं। पहली, अमेरिका और यूरोपीय समुदाय के सदस्य देशों की 1980 के उत्तरार्ध में गेहूं, मक्का कपास जैसी प्रमुख फसलों के निर्यात में बड़ी हिस्सेदारी थी। दूसरे शब्दों में कहें तो उस समय की अंतरराष्ट्रीय कीमतें इन प्रमुख देशों के द्वारा ही तय की जा रही थीं इसलिए उन्हें प्रतिस्पर्धी नहीं माना जा सकता है। दूसरा कारण यह है कि अमेरिका और यूरोपीय देश ग्लोबल मार्केट में अपने किसानों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए काफी सब्सिडी दे रहे थे। इसका मतलब यह है कि उस समय की जो अंतरराष्ट्रीय कीमतें थी वह मैनिपुलेटेड थीं।
दूसरी गंभीर खामी यह है कि मौजूदा समर्थन मूल्य की तुलना चार दशक पुराने अंतरराष्ट्रीय कीमतों से की जा रही है। भारत जैसे देशों के लिए यह काफी नुकसानदायक है क्योंकि 1986-88 के बाद इन देशों को ऊंची महंगाई दर का सामना करना पड़ा है। इनकी सालाना औसत महंगाई 4% से अधिक रही है। इसलिए चार दशक पुराने अंतरराष्ट्रीय कीमतों से तुलना करना बेमतलब है। भारत की बात करें तो 1986-88 से 2021 के दौरान खुदरा मूल्य सूचकांक महंगाई 970 फ़ीसदी रही है।
अमेरिकी डॉलर में एमएसपी की गणना करके भारत महंगाई के असर को कम करने में सफल रहा है। उदाहरण के लिए 1986-88 से 2010-11 और 2013-14 के बीच डॉलर की तुलना में रुपया 300% गिरा और इस दौरान खुदरा महंगाई 600% बढ़ी। अमेरिका ने 2018 में इसी अवधि के समर्थन मूल्य पर सवाल उठाए थे। सरकार ने इस वर्ष की शुरुआत में डब्ल्यूटीओ को बताया कि 2020-21 में चावल पर एमपीएस उसके कुल उत्पादन के मूल्य के 15% से अधिक हो गया था। इस तरह भारत में कृषि समझौते में तय की गई 10% की सीमा को पार कर गया था।
कृषि समझौते के प्रावधानों से पता चलता है कि ड्राफ्ट तैयार करने वाले इस बात से अवगत थे कि आने वाले दिनों में समझौते को लागू करने में महंगाई के कारण समस्या आ सकती है। लेकिन वे ऐसा कोई विकल्प नहीं रखना चाहते थे जिससे सब्सिडी के नियमों पर दोबारा बातचीत का कोई दरवाजा खुले।
इसके कारण का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। कृषि समझौता दरअसल कृषि व्यापार उदारीकरण का चार्टर था। उसमें विकासशील देशों की दीर्घकालिक चिंताओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया। खासकर खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आजीविका पर। कृषि समझौते में इस चार्टर को अपनाया गया क्योंकि वह अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बीच द्विपक्षीय डील (ब्लेयर हाउस एकॉर्ड 1992 ) थी। बहुपक्षीय व्यापार पर उरुग्वे दौर की वार्ता में 125 देशों ने कृषि समझौते पर चर्चा की थी, इसके बावजूद उस चार्टर को अपनाया गया था।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि विकासशील देशों ने समझौते के लागू होने से पहले से ही निराशा जतानी शुरू कर दी थी। 1994 में डब्ल्यूटीओ के गठन को औपचारिक मंजूरी देने के लिए मारकेश मंत्रिस्तरीय सम्मेलन बुलाई गई थी। भारत के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि कृषि समझौते को भविष्य में संशोधित करने की जरूरत पड़ेगी ताकि ज्यादा उदारीकरण हासिल किया जा सके और व्यापार को बाधित करने वाले प्रैक्टिस को अनुशासित किया जा सके। सम्मेलन में उन्होंने यह भी कहा था कि भारत सरकार देश की जीवन रेखा माने जाने वाले किसानों के हितों की रक्षा और अपने नागरिकों की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। अमेरिकी कांग्रेस के दबाव के बाद मौजूदा सरकार के सामने भारत के पूर्व राष्ट्रपति के उस वादे को पूरा करने की चुनौती है जो उन्होंने तीन दशक पहले किया था। सरकार को किसानों के पक्ष में खड़ा होना ही चाहिए।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज ऐंड प्लानिंग के प्रोफेसर हैं)