जमीनी हकीकत को स्वीकारने से बचने और अधिकारियों द्वारा इसे ठीक से बयां नहीं करने से कोई आसान मसला कैसे जटिल मुद्दा बन जाता है, गेहूं को लेकर ताजा घटनाक्रम उसका बेहतर उदाहरण है। उत्पादन में कमी, सरकारी खऱीद का गिरना, निर्यात के बड़े दावे, निर्यात प्रोत्साहन की घोषणाएं, फिर निर्यात पर प्रतिबंध व उसके बाद का घटनाक्रम सही समय पर फैसले नहीं लेने और विभागीय तालमेल की खामियों को उजागर करते हैं। इसके चलते जहां गेहूं किसानों की बेहतर दाम की संभावनाओं को झटका लगा है वहीं कारोबारियों के बीच और वैश्विक बाजार में भारत की एक टिकाऊ निर्यातक की साख भी धूमिल हुई है। बात सिर्फ इतनी है कि सरकार को उत्पादन को लेकर पैदा हुई स्थिति का बेहतर आकलन करने की जरूरत थी जिससे अव्यावहारिक फैसलों से बचा जा सकता था।
असल में सरकार के अनुमान और लक्ष्यों के मुताबिक इस साल हम 11.10 करोड़ टन उत्पादन और 444 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद के साथ रिकार्ड बनाने वाले थे। इसी के आधार पर घोषणाएं की गईं कि यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के चलते वैश्विक बाजार में करीब 25 फीसदी आपूर्ति की कमी के संकट को कम करने में भारत रिकार्ड गेहूं का निर्यात कर मदद करने वाला है। निर्यात के लक्ष्य तय किये जा रहे थे और निर्यातकों के लिए मंडी टैक्स में छूट से लेकर विदेशों में बाजार तलाशने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजने की घोषणाएं की जा रही थी। लेकिन 13 मई, 2022 की शाम अचानक सब कुछ बदल गया। सरकार ने गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी। क्या वाकई यह सब अचानक हुआ? नहीं, यह सब अचानक नहीं हुआ बल्कि जमीनी हकीकत से बेपरवाह होते हुए जरूरी कदम नहीं उठाये गये, जिसके चलते निर्यात पर प्रतिबंध का फैसला लिया गया। खाद्य सचिव सुधांशु पांडे ने पिछले दिनों बताया था कि मौजूदा तिमाही के लिए 40 लाख टन गेहूं निर्यात के सौदे हुए जिनमें से 10 लाख टन का निर्यात किया जा चुका था। पिछले साल 70 लाख टन से अधिक गेहूं का निर्यात किया गया था।
एक तरफ सरकार कृषि से संबंधित डाटा बैंक बनाने के लिए काम करने की बात कर रही है। दुनिया की बड़ी आईटी कंपनियां इसमें भागीदारी कर रही हैं। यानी कृषि और कृषि उत्पादन से जुड़े तमाम आंकड़ों और जानकारियों को जुटाने के लिए अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। खेत की मिट्टी से लेकर फसल के हर चरण की जानकारी इकट्ठा की जाएगी और उसके आधार पर किसानों को फैसले लेने के लिए प्रेरित किया जाएगा। लेकिन जब एक सामान्य किसान को भी पता था कि मार्च में तापमान के असामान्य रूप से बढ़ने से उत्पादन में भारी कमी की स्थिति पैदा हो गई है, उस समय सरकार निर्यात की संभावनाओं पर काम कर रही थी। फरवरी के अंत और मार्च माह का तापमान गेहूं की फसल के बहुत संवेदनशील होता है। इसी समय गेहूं की फसल में दाना तैयार होता है और इसके ड्राई होने की प्रक्रिया पूरी होती है। ऐसे में तापमान असामान्य रूप से बढ़ने का अर्थ है गेहूं के उत्पादन पर सीधे प्रतिकूल असर पड़ना। ऐसे में कृषि मंत्रालय के अधिकारियों और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों ने गेहूं के उत्पादन में होने वाली गिरावट का आकलन क्यों नहीं किया? जब पंजाब , हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फसल की कटाई शुरू हुई तो उस समय किसानों ने साफ किया कि उत्पादन में पिछले साल के मुकाबले 15 से 25 फीसदी की गिरावट आई है। ऐसे में सरकार का 444 लाख टन की सरकारी खरीद के लक्ष्य पर टिके रहने का कोई मतलब नहीं रह गया था। मंडियों में गेहूं की आवक कम रही और कई राज्यों में तो कुछ समय तक सरकारी खऱीद में खाता भी नहीं खुला। सरकारी खऱीद में बड़ी हिस्सेदारी वाले मध्य प्रदेश में खरीद एक तिहाई से भी नीचे अटक गई और हरियाणा में आधे के करीब ही पहुंची। पंजाब में भी यह अभी तक दो तिहाई के करीब ही पहुंची है। लेकिन सरकार ने मई तक इंतजार किया और तब खाद्य सचिव ने बताया कि इस साल उत्पादन 5.7 फीसदी कम रहेगा। पिछले साल 10.96 करोड़ टन गेहूं का उत्पादन हुआ था और इस साल शुरुआती अनुमान 11.1 करोड़ टन का था, जिसे बाद में संशोधित कर 10.5 करोड़ टन किया गया। हालांकि स्वतंत्र विशेषज्ञों का अनुमान है कि उत्पादन 9.6 करोड़ टन के आसपास ही रहेगा। सरकारी खरीद को भी 444 लाख टन के लक्ष्य से घटाकर 195 लाख टन कर दिया गया जो 13 साल में सबसे कम है।
वहीं सरकार द्वारा लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) और प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत पांच किलो प्रति व्यक्ति मुफ्त खाद्यान्न आवंटन के चलते केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक एक अप्रैल, 2022 को तीन साल के न्यूनतम स्तर 189 लाख टन पर आ गया था। इसके बावजूद खाद्य मंत्रालय ने सरकारी खऱीद के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं किया। लेकिन लगता है कि कृषि मंत्रालय और खाद्य मंत्रालय के बीच उत्पादन को लेकर बेहतर तालमेल नहीं था। जब अप्रैल के शुरू में ही बाजार में रबी मार्केटिंग सीजन (2022-23) के 2015 रुपये प्रति क्विटंल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक कीमत पर कारोबारियों ने गेहूं की खरीद शुरू कर दी थी तो मार्केट इंटेलीजेंस के आधार पर गेहूं की सरकारी खरीद का आकलन क्यों नहीं किया गया। वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने गेहूं के निर्यात पर मंडी शुल्क में छूट की घोषणा कर दी और मुख्यमंत्री ने निर्यात का लक्ष्य भी तय कर दिया। मध्य प्रदेश केंद्रीय पूल में पंजाब के बाद दूसरा सबसे बड़ा गेहूं देने वाला राज्य है। मध्य प्रदेश में निजी कंपनियां और कारोबारी 2100 रुपये से 2400 रुपये प्रति क्विटंल पर गेहूं की खरीद कर रहे थे। वहां निजी क्षेत्र ने करीब 40 लाख टन गेहूं खरीदा है। उत्तर प्रदेश में भी यही दाम थे और पंजाब में करीब एक दशक बाद निजी क्षेत्र द्वारा छह लाख टन से अधिक गेहूं की खरीद की गई। हालांकि उसके बाद भी पंजाब में ही गेहूं की सबसे अधिक 96.10 लाख टन की खरीद की गई। मध्य प्रदेश में खरीद पिछले साल की करीब एक तिहाई 41.89 लाख टन और हरियाणा में पिछले साल के आधे करीब 40.64 लाख टन पर अटक गई। उत्तर प्रदेश में किसी तरह 2.47 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई तो राजस्थान, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू एवं कश्मीर में खाता खुलने की औपचारिकता ही हुई। क्या ऐसे समय में किसानों को 250 रुपये प्रति क्विटंल का बोनस देकर खऱीद को नहीं बढ़ाया जा सकता था? यह संभव था क्योंकि अधिकांश किसानों को एमएसपी से मामूली अधिक कीमत ही मिली। अगर आने वाले दिनों में कुछ गेहूं सरकारी खऱीद में नहीं आता है तो ऐसा पहली बार होगा जब एक अप्रैल को केंद्रीय पूल में बकाया गेहूं नई खरीद से अधिक होगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 19 मई तक गेहूं की कुल खरीद 181.16 लाख टन पर ही पहुंची है। इसलिए इसके 195 लाख टन तक पहुंचना भी एक चुनौती है। हो सकता है कि निर्यात पर प्रतिबंध के बाद कीमतें घटने के चलते कुछ और किसान सरकारी खऱीद में एमएसपी पर गेहूं बेचने आ जाएं। दूसरे, गेहूं की गुणवत्ता को लेकर किसान परेशान थे तो सरकार को भी असलियत पता थी। लेकिन इसके लिए गेहूं के निर्यात पर रोक के बाद 15 मई को फैसला लिया गया कि 18 फीसदी तक के सिकुड़े और टूटे दाने की खरीद पर भी किसानों को एमएसपी का पूरा भुगतान किया जाएगा। क्या यह उत्पादन में गिरावट की हकीकत को स्वीकारने वाला तथ्य नहीं है? गेहूं के दाने का 18 फीसदी सिकुड़ना उत्पादन में गिरावट का कितना बड़ा कारक हो सकता है इसे किसी को बताने की जरूरत नहीं है।
वहीं सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत पांच किलो मुफ्त खाद्यान्न को छह माह के लिए बढ़ा दिया। इसके लिए करीब 110 लाख टन गेहूं की जरूरत है। अगर हिसाब लगाया जाए तो एक अप्रैल को केंद्रीय पूल में 189.90 लाख टन गेहूं बकाया था अगर इतना ही गेहूं और सरकारी खऱीद में आता है तो सरकार के पास अधिकतम 380 लाख टन गेहूं होगा। जबकि टीपीडीएस के तहत 260 लाख टन गेहूं की जरूरत है और गरीब कल्याण अन्न योजना के लिए साल भर के लिए करीब 220 लाख टन गेहूं की जरूरत है। ऐसे में 1 अप्रैल, 2023 को केंद्रीय पूल में बफर मानक के तहत 75 लाख टन गेहूं कहां से आएगा। हालांकि स्थिति को भांपते हुए खाद्य मंत्रालय ने टीपीडीएस और पीएमजीकेएवाई के तहत गेहूं की मात्रा घटाकर चावल की मात्रा बढ़ा दी है।
इस बीच बाजार में आटा की कीमतों में भारी इजाफा हुआ जो गेहूं की कीमतों में बढ़ोतरी के अनुपात में कहीं अधिक है। सरकार ने गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के फैसले में इस कीमत बढ़ोतरी को वजह बताया और वास्तविक उत्पादन गिरावट पर अभी भी चुप्पी साध रखी है। दूसरे हमें इस हकीकत को भी स्वीकारना चाहिए कि इस साल किसान की उत्पादन लागत बढ़ी है क्योंकि डीजल कीमतों में बढ़ोतरी और डीएपी उर्वरक की उपलब्धता का उत्पादन लागत पर सीधे असर पड़ा है। गेहूं का उत्पादन गिरना किसानों पर दोहरी मार लेकर आया है। ऐसे में निर्यात पर रोक का फैसला किसानों के लिए नुकसानदेह साबित होने वाला है। निर्यात पर प्रतिबंध लगाये जाने के बाद अधिकांश राज्यों में गेहूं के दाम 200 रुपये प्रति क्विटंल तक घट गये हैं और अब कीमतें एमएसपी के करीब आ गई हैं। कई जगह कम गुणवत्ता वाले गेहूं के दाम एमएसपी से नीचे आ गये हैं। यह बात सच है कि निजी कारोबारियों, निर्यातकों के अलावा किसानों ने भी बड़ी मात्रा में बेहतर दाम की उम्मीद में गेहूं की बिक्री नहीं की है। हो सकता है कि इस फैसले के बाद उनमें से कुछ लोग बिक्री कर दें। इसका अंदाजा 13 मई के बाद होने वाली सरकारी खऱीद की मात्रा से लगाया जा सकता है।
सवाल है कि दो साल पहले जून, 2020 में कृषि उत्पादों की मार्केटिंग में सुधारों को लागू करने के लिए कानून लाने वाली सरकार अब अपनी नीतियों से पूरी तरह पलट गई है। वैश्विक बाजार में गेहूं की मांग बढ़ने से अधिक दाम मिलने की संभावना को किसानों से छीन लिया गया है। इसके साथ ही इस फैसले से सरकार द्वारा कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात के बारे में फैसले लेने की अनिश्चितता भी सामने आई है। वह भी तब जब देश में जरूरत का पर्याप्त गेहूं मौजूद है लेकिन इसके प्रबंधन के लिए जिस कौशल की जरूरत थी वह सामने नहीं आया है। शायद महंगाई की बढ़ती दर के मद्देजनर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में बढ़ोतरी जैसा कदम उठाये जाने के बाद सरकार अतिरिक्त सावधानी बरत रही है। कुछ दिन पहले तक वह फैसले लेने में सुस्त थी, लेकिन अब अधिक फुर्ती दिखाने की कोशिश कर रही है।