महंगाई के रिकॉर्ड बनाने की बातें तो भूल जाइए, यह एक दशक में सबसे अधिक है या उससे भी ज्यादा। कठोर सत्य यही है कि देश के अनेक लोगों के लिए महंगाई असहनीय हो गई है। इन दिनों किसी भी चीज के दाम बढ़ने के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन जैसे देशों में लॉकडाउन के चलते ग्लोबल सप्लाई चेन बाधित होने को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।
अप्रैल 2022 में थोक महंगाई दर 15.08 फ़ीसदी पर पहुंच गई। इस पर सरकार का जो बयान है उससे स्पष्ट होता है कि महंगाई किस तरह चौतरफा है। 22 कमोडिटी ग्रुप में से 18 में कीमतों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ईंधन और बिजली ग्रुप में वृद्धि 38.6 फ़ीसदी और मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट सेगमेंट में 10.85 फ़ीसदी है।
थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर निकाली जाने वाली महंगाई दर मुख्य रूप से मैन्युफैक्चरर की कीमतों को बताती है। दूसरी तरफ खुदरा महंगाई, जो अभी 8 फ़ीसदी के आसपास है, वह उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित है, जिसमें मुख्य रूप से आम लोगों की खपत वाले खाद्य पदार्थ तथा अन्य वस्तुओं की कीमतों को देखा जाता है। महंगाई के ये दोनों आंकड़े चुभने वाले हैं।
समस्या यह है कि उद्योग अधिक उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि मांग घट रही है। मार्च में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर बमुश्किल 0.9 फ़ीसदी बढ़ा है जबकि इस सेक्टर में दाम में वृद्धि 10 फ़ीसदी हुई है। अर्थशास्त्र का पारंपरिक ज्ञान यही कहता है कि जब मांग घटती है तो कीमतों में भी गिरावट आती है। दोनों का घटना या बढ़ना एक ही दिशा में होता है। लेकिन अभी हो यह रहा है कि दोनों विपरीत दिशा में चल रहे हैं। यह नीति निर्माताओं के लिए बड़ी चुनौती है। रिजर्व बैंक के लिए भी जिसने सिस्टम में इतना पैसा डाला कि अब बिना किसी समस्या के तरलता कम करना मुश्किल हो गया है।
असर छोटे उद्यमियों पर भी हो रहा है। बड़ी कंपनियों ने तो 2020 की दूसरी छमाही से लगभग डेढ़ साल तक शेयर बाजार में तेजी का भरपूर फायदा उठाया। लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र जिसमें छोटे दुकानदार, घरेलू उत्पाद बनाने वाले उद्यमी या सब्जियां बेचने वाले शामिल हैं, उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। कभी लॉकडाउन लगने कभी हटने के बाद जब अर्थव्यवस्था खुली तो इन छोटे उद्यमियों के लिए उम्मीद की किरण जगी थी। लेकिन महंगाई ने उन्हें बुरी तरह प्रभावित किया है। इस संदर्भ में जाने-माने अर्थशास्त्री कौशिक बसु का ट्वीट उल्लेखनीय है-
“भारत की थोक महंगाई दर 15 प्रतिशत को पार कर गई। यह 25 वर्षों में सबसे ज्यादा है। खुदरा महंगाई इससे काफी कम है। इस परिस्थिति ने भारत को फिलिप्स कर्व के टर्निंग पॉइंट पर पहुंचा दिया है। इसके दो जोखिम हैं- या तो छोटे उद्यमी का धंधा बंद हो जाएगा और बेरोजगारी बढ़ जाएगी या खुदरा महंगाई और बढ़ेगी। नीतियों का फोकस इस स्थिति को दूर करने पर होना चाहिए।”
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और वर्ल्ड बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री बसु ने जो कहा है उस पर नीति आयोग और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद को गौर करना चाहिए। उपभोक्ता मामले, कृषि, वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों के अफसर भी अगर कौशिक बसु की बातों पर गौर करें तो उन्हें फायदा ही होगा।
कौशिक बसु ने छोटे बिजनेस पर फोकस किया है। हालांकि इस बात पर उन्होंने भी गौर नहीं किया कि महंगाई ग्रामीण अर्थव्यवस्था को किस तरह प्रभावित कर रही है। अगले महीने से पंजाब, हरियाणा तथा अन्य राज्यों में धान की बुवाई होनी है लेकिन इधर तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के आसपास चल रहा है। ऐसे में किसान काफी हद तक अनिश्चित हैं। पंजाब की भगवंत मान सरकार में उनसे अलग-अलग शेड्यूल के हिसाब से धान की रोपाई करने का आग्रह किया है।
हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि जून के दूसरे हफ्ते में उत्तरी राज्यों में मानसून की बारिश शुरू हो जाएगी। मौसम विभाग ने अभी तक सामान्य मानसून की बात कही है। एक और समस्या उर्वरकों की कमी की है। उनके दाम भी बढ़े हैं। डीजल इतना महंगा हो गया है कि पंपसेट चला कर खेतों में पानी देना काफी महंगा हो गया है। मार्च के दूसरे पखवाड़े में अचानक तापमान तेजी से बढ़ने के कारण गेहूं का उत्पादन गिरा है। हालांकि ग्लोबल मार्केट में गेहूं के दाम बढ़ने से खुले बाजार में किसानों को गेहूं की अच्छी कीमत मिली। इसलिए इस बार किसानों ने एमएसपी पर गेहूं खरीदने के लिए अधिक शोर भी नहीं मचाया।
महंगाई के लिए भू राजनैतिक परिस्थितियों को दोष देना सरकार के लिए बहुत ही आसान है। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि खुदरा मूल्य बढ़ने पर सरकार को फायदा होता है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) किसी भी चीज की कीमत पर लगता है। ज्यादातर वस्तुएं 18 फ़ीसदी कैटेगरी में हैं। कीमत बढ़ने का मतलब है सरकार को जीएसटी के रूप में अधिक राजस्व मिलता है। इसलिए अप्रैल में जो 1.68 लाख करोड़ रुपए का रिकॉर्ड जीएसटी कलेक्शन हुआ है उसका कुछ श्रेय महंगाई को भी दिया जाना चाहिए। जीएसटी तथा कीमतों पर लगने वाले अन्य अप्रत्यक्ष करों से सरकार को जो अतिरिक्त कमाई हो रही है, उसे उसको टैक्स में कटौती करके उपभोक्ताओं को वापस देना चाहिए। इससे न सिर्फ परेशान हाल उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी बल्कि यह अर्थव्यवस्था के लिए भी सकारात्मक होगा।
(प्रकाश चावला सीनियर इकोनॉमिक जर्नलिस्ट है और आर्थिक नीतियों पर लिखते हैं)