देश के किसान केंद्र सरकार से कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी मांग रहे हैं। इस पर विचार करने के लिए 2021 में ऐतिहासिक किसान आंदोलन के बाद सरकार ने एक समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट आज तक नहीं आई है। इस बीच, पिछले 11 महीनों से पंजाब-हरियाणा की सीमाओं पर किसान एमएसपी की कानूनी गारंटी के लिए आंदोलन कर रहे हैं।
बुजुर्ग किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल का आमरण अनशन 53 दिनों से चल रहा है। लेकिन अभी तक केंद्र सरकार ने एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग पूरी करना तो दूर, आंदोलनकारी किसानों के साथ बातचीत का रास्ता भी नहीं खोला है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में किसान जोतों की संख्या 14 करोड़ से अधिक है और 88 फीसदी किसान एक हैक्टेयर से कम जमीन के मालिक हैं।
दूसरी ओर केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए आठवें वेतन आयोग के गठन की घोषणा कर दी है। आयोग की सिफारिशें जनवरी 2026 से लागू की जा सकती हैं। कर्मचारियों का वेतन कितना बढ़ेगा अभी यह तय नहीं है, फिर भी इससे सरकार पर करीब दो लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ने का अनुमान है। सरकार के ताजा फैसले का फायदा करीब एक करोड़ केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनर्स को मिलेगा।
यह दोनों बातें सरकार की प्राथमिकताओं और विरोधाभास को दर्शाती हैं। एमएसपी की कानूनी गारंटी को लेकर कहा जा रहा है कि इसकी वजह से पड़ने वाले वित्तीय बोझ को वहन करना सरकार के लिए मुश्किल होगा। उदारवादी अर्थशास्त्री यही तर्क देते हैं। लेकिन कृषि उत्पादों के बाजार की मौजूदा व्यवस्था को देखें तो ऐसा कहीं नहीं दिखता है कि सरकार को देश में पैदा होने वाले सारे कृषि उत्पादों की पूरी मात्रा खरीदने की जरूरत है। सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत तभी पड़ेगी, जब भाव एमएसपी से नीचे होगा। ऐसे मामलों में भी भंडारण और निर्यात के जरिए सरकार के पास नुकसान की भरपाई का अवसर रहेगा।
यह सब कितनी आसानी से किया जा सकता है इसे उन राज्यों से समझा जा सकता है जहां चुनाव के दौरान धान और गेहूं पर एमएसपी के ऊपर बोनस देने का चुनावी वादा किया गया था और उसे निभाया भी है। चूंकि मामला राजनीतिक लिहाज से महत्वपूर्ण था इसलिए छत्तीसगढ़ और ओडिशा में धान की खरीद 2300 रुपये प्रति क्विंटल के एमएसपी के बजाय 3100 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर की गई। यानी किसानों को उपज का बेहतर दाम देना संभव है। इसका फायदा किसानों के साथ-साथ पूरी इकोनॉमी को मिलता है इसलिए यह आर्थिक दृष्टि से भी घाटे का सौदा नहीं है।
केंद्र सरकार के आठवें वेतन आयोग के फैसले को भी चुनावी नजरिये से देखा जा सकता है क्योंकि दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने हैं और यहां पर बड़ी संख्या में केंद्रीय कर्मचारी मतदाता हैं। लेकिन ताज्जुब की बात है कि केंद्रीय कर्मचारियों को इसके लिए न तो कोई आंदोलन करना पड़ा और न ही इससे सरकार पर पड़ने वाले वित्तीय बोझ का तर्क दिया गया। जबकि किसानों की एमएसपी गारंटी की मांग को लेकर वित्तीय बोझ पड़ने का तर्क दिया जा रहा है।
दूसरा तर्क यह भी है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी से बाजार में हस्तक्षेप होगा और खुले बाजार और मार्केट में प्रतिस्पर्धा के उसूलों के खिलाफ है। गौरतलब है कि कृषि बाजार को कथित तौर पर मुक्त करने के लिए केंद्र सरकार तीन नये कृषि कानून लेकर आई थी जिन्हें 2020 के किसान आंदोलन के कारण वापस लेना पड़ा था।
देखा जाए तो खुले बाजार और मार्केट में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का तर्क कृषि उत्पादों के मामले में नाकाम हो जाता है। मसलन, भारत खाद्य तेलों के मामले में 60 फीसदी से अधिक आयात पर निर्भर है। देश में खाद्य तेलों की खपत के मुकाबले करीब 40 फीसदी ही उत्पादन होता है। मांग-आपूर्ति के इस अंतर के चलते तो तिलहन किसानों को उनकी उपज का बहुत बेहतर दाम मिलना चाहिए।
लेकिन पिछले साल दो प्रमुख तिलहन फसलों सरसों और सोयाबीन का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे चला गया था क्योंकि सरकार ने खाद्य तेलों के सस्ते आयात को प्रोत्साहन दिया। यह बाजार में सरकारी हस्तक्षेप का सटीक उदाहरण है। सच तो यह है कि किसानों को खुले बाजार का लाभ मिलने ही नहीं दिया जाता है। पिछले साल गैर बासमती चावल के निर्यात पर प्रतिबंध, गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध और प्याज निर्यात पर प्रतिबंध व कई पाबंदियां लागू की गईं। ऐसी स्थिति में मुक्त बाजार की धारणा नाकाम हो जाती है।
किसान उत्पादन और कीमत दोनों मोर्चों पर जोखिम उठा रहा है। जलवायु संकट, प्रतिकूल मौसम की घटनाओं और फसलों के रोगग्रस्त होने से उत्पादन प्रभावित होने का जोखिम है। जबकि बाजार में कीमतों का उतार-चढ़ाव सही दाम से किसानों को वंचित रखता है। किसान का जोखिम दोगुना हो जाता है। ऐसे में अगर किसान सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी मांग रहे हैं तो उसे अनुचित नहीं कहा सकता है। कड़ी मेहनत और तमाम जोखिम के बावजूद किसान उपज के सही दाम से वंचित रह जाते हैं।
देश में करीब 14.6 करोड़ किसान हैं। सरकार प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत लगभग 9 करोड़ किसानों को सालाना छह हजार रुपये की सहायता देती है। मतलब, सरकार खुद मान रही है कि किसानों को मदद की दरकार है। इसलिए तो किसानों को फसल के उचित दाम की गारंटी देना और भी जरूरी है। सही दाम न मिलने की वजह से किसानों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है और यह हानि सालाना 6 हजार रुपये से कहीं अधिक है।
एमएसपी गारंटी लागू करना व्यावहारिक है या नहीं उसे लेकर काफी विवाद है। यह गारंटी कैसे दी जा सकती है, इसे गन्ने के उदाहरण से समझा जा सकते है। देश में शुगरकेन कंट्रोल आर्डर 1966 से लागू है। इसके तहत सरकार द्वारा तय दाम से कम कीमत पर कोई चीनी मिल किसानों से गन्ना नहीं खरीद सकती है। यह व्यवस्था पिछले 68 साल से लागू है। फिर सवाल है कि इस तरह की व्यवस्था बाकी फसलों के मामले क्यों लागू नहीं हो सकती है?
सरकार को यह भी देखना होगा कि किसानों के लिए खेती अब बहुत आकर्षक काम नहीं रह गया है। जोत छोटी होने से यह चुनौती बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ रही है, क्योंकि मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं हो पा रहे हैं।
लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन सर्वे के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, अभी भी 44 फीसदी से अधिक कार्यबल को कृषि में ही काम मिल रहा है। चालू वित्त वर्ष में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की विकास दर 3.8 फीसदी रहने की उम्मीद है जो पिछले साल केवल 1.2 फीसदी थी। कृषि की अच्छी ग्रोथ के बूते जीडीपी की विकास दर 5.6 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है। ऐसे में सरकार का जिम्मा बनता है कि वह कृषि को आर्थिक रूप से बेहतर व्यवसाय के रूप में स्थापित करने वाली नीति को लागू करे।
कृषि के लिए टर्म्स ऑफ ट्रेड इंडेक्स साल 2004-05 में 87.82 पर था जो बढ़कर 2010-11 में 102.95 हो गया था। इसके लिए 2011-12 आधार वर्ष है। यानी किसान अपने उत्पाद बेचकर जो कमाई करता था वह उसके द्वारा खरीदे जाने वाले उत्पादों से बेहतर थी, लेकिन 2022-23 में टर्म्स ऑफ ट्रेड इंडेक्स 97.21 पर आ गया। यानी किसान द्वारा बेचे जाने वाले उत्पादों से होने वाली कमाई उसके द्वारा खरीदे जाने वाले उत्पादों से कम हो गई है। इस असंतुलन को दूर करने लिए किसानों को एमएसपी की गारंटी को एक विकल्प के रूप में देखने की जरूरत है। साथ ही सरकार को किसानों के साथ वार्ता का रास्ता भी खोलना चाहिए और मौजूदा आंदोलन को केवल एक या दो राज्यों के किसानों की मांग के रूप में देखने की बजाय देश भर के किसानों की एक वाजिब जरूरत के रूप में देखना चाहिए। यह बात हकीकत है कि देश भर में किसान एमएसपी को लेकर अब बहुत जागरूक हो चुके हैं और अब इस मुद्दे को लंबे समय तक ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता है।