पिछले साल 2022-23 के लिए जब बजट पेश किया गया तो मैंने उसे जातिगत भेदभाव वाला बताया था। अगले वित्त वर्ष के लिए जो बजट पेश किया गया है, उसके प्रस्तावों पर गौर करें तो इसमें भी जातिगत भेदभाव झलकता है। तमाम मीडिया में नई स्कीम की घोषणाओं और पूंजी निर्माण के लिए अधिक आवंटन को ‘अमृत काल’ जैसे लुभावन शब्दों के रूप में पेश किया गया। लेकिन निवेश की पूंजी के प्रबंधन पर बहुत कम लोगों ने टिप्पणी की है। इस लेख में बजट प्रस्तावों पर ग्रामीण नजरिए से चर्चा की गई है और ऐसे प्रस्तावों की बात कही गई है जिनसे लोगों को गरीबी, बेरोजगारी और असमानता के भंवरजाल से निकाला जा सके।
आगे बढ़ने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर करते हैं। ग्लोबल मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स यानी वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (GMPI) बताता है कि भारत के 6 में से 5 व्यक्ति बहुआयामी गरीबी में जीवन बिता रहे हैं, अर्थात वे कई पैमाने पर गरीब हैं। आदिवासी समुदाय में गरीबी का स्तर सबसे अधिक, 50.6% है। उसके बाद अनुसूचित जाति में यह 33.3% और अन्य पिछड़ा वर्ग में 27.2% है। इन तीनों वर्गों के अलावा बाकी लोगों में गरीबी का स्तर सिर्फ 15.6% है। अखिल भारतीय ऋण एवं निवेश सर्वेक्षण (AIDIS) बताता है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की परिसंपत्तियां अन्य वर्गों की तुलना में कम हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 121 देशों में पिछले साल के 101वें स्थान से फिसलकर 107वें स्थान पर पहुंच गया। ये आंकड़े बताते हैं कि बजट प्रस्तावों के केंद्र में लोगों को रखा जाना चाहिए।
सबसे पहले ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD) के आवंटन की बात करते हैं। लेकिन उससे पहले यह समझते हैं कि इस मंत्रालय का मुख्य कार्य क्या है। ग्रामीण विकास मंत्रालय का मुख्य कार्य “बहुआयामी मदद से वंचित ग्रामीण परिवारों का उत्थान, जिसमें परिसंपत्ति, आजीविका, इंफ्रास्ट्रक्चर और सर्विसेज सभी शामिल हों। परिवारों तथा समुदायों के लिए लचीलापन सुनिश्चित करना... गरीब कल्याण से जुड़ी संस्थाओं को ऊपर उठाना और पंचायती राज संस्थानों तथा परिवर्तन के अन्य वाहकों के साथ साझेदारी करना।”
यदि मंत्रालय के कार्य के आलोक में आवंटन को देखेंगे तो हताशा होगी, क्योंकि वर्ष 2022-23 के संशोधित अनुमानों की तुलना में वर्ष 2023-24 के लिए आवंटन में 13 प्रतिशत से अधिक की कटौती की गई है। इतना ही नहीं, कुल केंद्रीय बजट और जीडीपी के प्रतिशत के रूप में भी ग्रामीण विकास विभाग के बजट आवंटन/व्यय को घटा दिया गया है। कुल बजटीय व्यय का प्रतिशत जो 2022-23 के संशोधित अनुमान में 4.3% था, उसे 2023-24 के बजट अनुमान में घटाकर 3.5% कर दिया गया है।
जीडीपी के प्रतिशत के रूप में देखें तो 2022-23 के संशोधित अनुमान में आवंटन 0.66% था, जिसे 2023-24 में घटाकर 0.52% कर दिया गया है। स्पष्ट है कि ग्रामीण विकास के लिए वित्तीय सहायता कम कर दी गई है। मंत्रालय के कार्यक्षेत्र को देखकर कहा सकता है कि सरकार गांधी के नाम का उपयोग अनगिनत कार्यों के लिए करती है, लेकिन उनकी जो बातें नीति निर्माताओं के लिए मानदंड होनी चाहिए उनपर पालन नहीं होता। उन्होंने कहा था, "सबसे गरीब और सबसे कमजोर व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने देखा है, और अपने आप से पूछो कि तुम जो कदम उठा रहे हो वह उसके लिए किसी काम का होगा या नहीं।"
प्रधानमंत्री ने सात साल पहले 21 फरवरी, 2016 को 5142.08 करोड़ रुपये के परिव्यय के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन (SPMRM) लांच किया था। इसके पीछे विजन था, "गांवों का एक समूह विकसित करना जो ग्रामीण सामुदायिक जीवन के सार को संरक्षित रखे तथा उसका विकास करे, जिसका फोकस अनिवार्य रूप से शहरी प्रकृति का हो। इस तरह अनिवार्य रूप से शहरी प्रकृति की सुविधाओं के साथ समझौता किए बिना समानता और समावेशिता का क्लस्टर तैयार करना। अर्थात रूर्बन गांवों का एक समूह बनाना।”
दूसरे शब्दों में, वह एक ऐसा शरीर होगा जिसमें आत्मा हो और आत्मा को ढंकने के लिए हाड़-मांस की संरचना हो। यहां गांवों की संस्कृति/सामुदायिक जीवन ही आत्मा है और बुनियादी ढांचे उसके हाड़-मांस हैं। इस पर अमल की बात करते हुए अपने संदेश में प्रधानमंत्री ने कहा था, “ग्रामीण विकास का कोई भी प्रयास तब तक सफल नहीं होगा जब तक हमारी ग्राम पंचायतें इसकी योजना और कार्यान्वयन में शामिल नहीं होंगी। इसलिए मैं राज्य और जिला मशीनरी से रूर्बन क्लस्टर की पहचान में ग्राम पंचायतों को शामिल करने का अनुरोध करता हूं।” अपने संदेश का समापन करते हुए उन्होंने कहा था, "इस मिशन के माध्यम से हम ग्रामीण क्षेत्रों को अपना गणतंत्र बनाने के लिए गांधीजी के ग्राम स्वराज के दृष्टिकोण को साकार करने का प्रयास करेंगे।”
लेकिन जिस योजना की इतनी प्रशंसा की गई थी, वह अब ग्रामीण विकास मंत्रालय की योजनाओं का हिस्सा नहीं है। इसे मंत्रालय की योजनाओं की सूची से हटा दिया गया है। आखिर समग्र विकास कहां है? ग्राम पंचायतें कहां हैं जो इतनी महत्वपूर्ण थीं? गांधी का अन्योन्याश्रित पर विचार कहां गया? क्या ये महज 'जुमले' हैं?
2022-23 के संशोधित अनुमान की तुलना में 2023-24 के बजट अनुमान में मनरेगा के तहत आवंटन एक तिहाई कम कर दिया गया है। आवंटन में इतनी कटौती से ग्रामीण इलाकों के श्रमिकों की आय में कमी आएगी, जिन्हें इस योजना के तहत काम मिलने की उम्मीद थी। इससे श्रमिकों की क्रय क्षमता कम होगी और परिणामस्वरूप गैर-कृषि उत्पादों की मांग कम हो जाएगी। इसके अलावा, कार्यक्रम के तहत कम आवंटन से महिलाएं आर्थिक रूप से कैसे सशक्त होंगी?
अब हम पंचायती राज मंत्रालय (MoPR) के विभिन्न मदों/योजनाओं के तहत आवंटन पर गौर करते हैं। इस मंत्रालय का गठन मई 2004 में किया गया था। इसका उद्देश्य संविधान के भाग IX के प्रावधानों, अनुच्छेद 243ZD और PESA के अनुसार जिला योजना समितियों (DPC) से संबंधित प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चित करना है। मंत्रालय का विजन पंचायतों या पंचायती राज संस्थानों के माध्यम से विकेन्द्रीकृत और सहभागी स्थानीय स्वशासन को हासिल करना है। इसका मिशन संविधान का सशक्तीकरण, लोगों को सक्षम बनाना और जवाबदेही सुनिश्चित करना है।
अब इसी आलोक में 2023-24 के बजट प्रावधानों पर नजर डालते हैं। पंचायतों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने स्तर पर आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करें और उन्हें लागू करें। संविधान में भी इसकी परिकल्पना की गई है। अन्य कार्यों के अलावा इन समितियों को स्थानिक योजना पर भी ध्यान देना है। 30 लाख से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास की योजनाएं तैयार करें, इसके लिए पंचायतों के विभिन्न स्तरों पर समुचित प्लानिंग आवश्यक है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए, यह अपेक्षा थी कि पंचायतों के नियोजित विकास के लिए ग्रामीण क्षेत्र विकास योजना निर्माण और कार्यान्वयन (Rural Areas Development Plan Formulation and Implementation) के दिशानिर्देशों को क्रियान्वित किया जाएगा। बजट में इसके लिए धन आवंटित होना चाहिए था। क्योंकि योजनाएं बनाने और उनके क्रियान्वयन के पंचायतों के बुनियादी कार्य पर अभी तक पूरी तरह से अमल नहीं किया गया है। इस प्रकार बजट में स्वशासी संस्था के रूप में पंचायतों की उपेक्षा की गई है।
जैविक खेती और प्राकृतिक खेती पर बहुत बात हो रही है। आइए इस पर भी नजर डालें। परम्परागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) नाम की एक योजना थी। उसके लिए न तो 2022-23 में कोई बजट आवंटन किया गया था और न ही 2023-24 में। हालांकि, प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Natural Farming) नाम से एक नई योजना 2023-24 के बजट में घोषित की गई है, जिसके लिए 459 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। पीकेवीवाई जैसी अन्य योजनाओं का हश्र देखकर यह कहना मुश्किल है कि यह अगले बजट में भी होगा या किसी और नाम से नई योजना आ जाएगी।
कुल केंद्रीय बजट व्यय और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के अनुपात में कृषि और संबद्ध क्षेत्रों के लिए केंद्र सरकार का बजट परिव्यय कम कर दिया गया है। कुल बजट की तुलना में इन क्षेत्रों के लिए आवंटन 2022-23 के संशोधित अनुमान में 2.95% था, जिसे 2023-24 में घटाकर 2.92% कर दिया गया है। इसी तरह, जीडीपी की तुलना में यह 2022-23 के संशोधित अनुमान में 0.45% था, जिसे 2023-24 में घटाकर 0.44% कर दिया गया है। यदि हम ग्रामीण विकास और कृषि के लिए आवंटन को मिला दें, तो हम पाएंगे कि किसान, महिला और श्रमिक हित वाले इन क्षेत्रों को हाशिये पर रखा गया है। इसका न केवल इन क्षेत्रों पर, बल्कि गैर-कृषि क्षेत्र पर भी उनके उत्पादों की मांग के माध्यम से प्रभाव पड़ेगा।
जीडीपी की तुलना में 2023-24 में कर और गैर-कर राजस्व का अनुपात कमोबेश वही है जो वर्ष 2022-23 में था। हालाकि, 2023-24 में राजकोषीय घाटा 2022-23 के 6.4% से घटाकर 5.9% कर दिया गया है। इस तथ्य पर केरल के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. टी. एम. थॉमस इसाक का कहना है कि इस राजकोषीय लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि, ग्रामीण विकास और गरीबी उन्मूलन पर खर्च में कटौती के अलावा कोई विकल्प नहीं था। क्या गरीबों की कीमत पर राजकोषीय स्थिरता प्राप्त करना ग्रामीण क्षेत्र के लिए उचित है? यह निर्णय लेना और टिप्पणी करना मैं पाठकों पर छोड़ता हूं।
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी और कृपा फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं)