मंहगाई देश में होने वाले पांच राज्यों मे आगामी विधानसभा चुनावों के लिए एक अहम मुद्दा बन चुका है क्योंकी रोजमर्रा के खर्च में मंहगाई अब हमारे जीवन हिस्सा ही बन गई है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उपभोक्ता मूल्य सूचकां (सीपीआई) या थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) किस तरह के आंकड़े पेश करते हैं। हकीकत यह है कि इस बार की मंहगाई की जड़े काफी गहरी हैं और यह केवल फल- सब्जियों, अनाज और कुछ वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि तक ही सीमीत नहीं है ।
इस तरह की मंहगाई को रोकने के लिए सरकारों के पास सीमित क्षमता रह गई है। मगर विडंबना यह है कि इस मंहगाई सबसे ज्यादा दर्द ग्रामीण आबादी झेल रही है । गंभीर बात यह है कि इसका सबसे ज्यादा असर गरीबों पर पड़ा है। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि रोजमर्रा की जरुरत की चीजों की अधिक कीमतों के कारण परिवारों के लिए दैनिक खर्च का बढ़ता बोझ जीवन की मुश्किलें बढ़ा रहा है और इसका अक्टूबर 2021 की सीपीआई की 4.48 फीसदी वृद्धि दर के साथ जोड़ कर नहीं किया जा सकता है।
मंहगाई के असली रूप को समझने के लिए हमें मुद्दे की गहराई तक जाने की जरूरत और इसे विस्तार से समझने पर ही पूरा खेल समझ आता है। बहुत ही व्यवस्थित तरीके से पेट्रोल, डीजल, परिवहन, वनस्पति तेल, कपड़े, जूते और स्वास्थ्य से जुड़े खर्चों को लेकर को वित्तीय बोझ बढ़ रहा है वह इसकी हकीकत पेश करता है। इसे अक्टूबर के आंकड़ों में देखा जा सकता है, मसलन ईंधन और उर्जा उत्पादों की सालाना मूल्य वृद्धि 14.35 फीसदी , परिवहन और संचार की 10.90 फीसदी और स्वास्थ्य खर्च में वृद्धि 7.57 फीसदी है। हवाई चप्पल समेत फुटवियर जैसी चीजें आठ फीसदी महंगी हुई हैं। वनस्पति तेलों की कीमत में बढ़ोत्तरी के खिलाफ लोगों के आक्रोश से भी इसे समझा सकता है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक साल भर में 'तेल और फैट की मूल्य वृद्धि 33.50 फीसदी रही है। यह वृद्धि अक्टूबर 2020 की 15 फीसदी से अधिक की बढ़ोतरी के बाद दर्ज हुई है। इसका मतलब यह होगा कि आधिकारिक आंकड़ों में भी पिछले दो वर्षों में खाना पकाने के तेल की कीमतों में लगभग 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। जिससे गांवों से लेकर शहर तक हर घर का बजट इससे प्रभावित हुआ है। हवाई चप्पल जैसे फुटवियर समेत तमाम जूते आठ फीसदी महंगे हुए हैं और इससे गांव या शहर दोनो जगह पर मजबूर तबका प्रभावित हो रहा है।
मंहगाई की मासिक वृद्धि दर के आंकड़े इस वास्तविक तस्वीर को नहीं दर्शाते है, क्योंकि वह नीचे आधार अंक और पुराने आंकड़ों जैसे फैक्टर से भी प्रभावित होते हैं। यह आंकड़े आम आदमी, या यूं कहें कि आम घरेलू महिला की समझ से परे हैं। वह इस मंहगाई के चलते घरेलू बजट को लेकर जबरदस्त दबाव में है इसलिए वह इन आंकड़ों को गंभीरता से नहीं लेती है । वह केवल यह जानती हैं कि कैसे खाना पकाने के तेल की कीमतें 200 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ गई हैं। रसोई गैस की कीमत कैसे उसके बजट में आग लगा रही है। आज के समय में सामान्य सब्जियां भी फलों की कीमतों पर बिक रही हैं जो निम्न और मध्य वर्ग के लिए विलासिता की वस्तु जैसी बन गई हैं।
ग्रामीण इलाकों में तो हालात और भी खराब है क्योंकि बड़ी बिड़बंना यह है ग्रामीण परिवारों के द्वारा उपजाई गई चीजों को प्रसंस्कृत और पैक कर उनको ही उनकी चीजों को अधिक मूल्य पर बेचा जाता है । यह स्थिति बढ़ती मजदूरी के लिए किसानों के लिए मुसीबतें पैदा कर रही है। कहा जाता है कि देश में किसान अमीर हैं लेकिन माफ कीजिये, हकीकत कुछ और है क्योंकि देश में कोई अमीर किसान नहीं है। इस समय देश में किसानों के पास औसतन 1.15 हेक्टेयर की जोत है। इसमें भी दो-तिहाई जोत एक हेक्टेयर से कम है। ऐसे में जब तक अमीर किसानों का जो जुमला अमीर शहरी वर्ग और मध्यम वर्ग के बीच अक्सर उछाला उठाया जाता है वह पूरी तरह से बेबुनियाद है।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में जहां बिहार जैसे पूर्वी राज्यों से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर आते हैं वह उर्वरक, डीजल, बीज और परिवहन जैसे अन्य इनपुट की मंहगाई के साथ-साथ मजदूरी में बढ़ोतरी की प्रवृत्ति भी देखेंगे।
महंगाई दर इस तरह व्यवस्थित है कि यह उद्योग और कृषि दोनों की संपूर्ण मूल्य चेन में समाहित हो गई है इस चेन के सभी नतीजों को अंत में उपभोक्ता को झेलना पड़ता है। जबकि अर्थशास्त्री इसे एक विश्वव्यापी प्रभाव के रूप में वर्णित करते हैं। यहां तक कि अमेरिका, जिसने कभी मुद्रास्फीति को 1-2फी सदी से अधिक नहीं देखा वह खुद को लगभग छह फीसदी की सीपीआई वृद्धि दर के बीच पा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह दुनिया के केंद्रीय बैंकों द्वारा अर्थव्यवस्था को कोराना -लॉकडाउन से बचाने के लिए सिस्टम को अतिरिक्त नकदी आपूर्ति के चलतेहो रहा है। फिर भी सेमीकंडटर जैसे जरूरी कच्चे माल की कमी जैसी समस्याएं हैं, जो अब केवल शहरी चीज नहीं हैं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में उपयोग हो रहे उत्पादों कृषि उपकरण जैसे ट्रैक्टर और मोटरबाइक, जिसका उपयोग अक्सर दूधवाले और स्थानीय विक्रेताओं द्वारा किया जाता है, सभी इससे प्रभावित हैं।
सीमेंट, स्टील और अन्य वस्तुओं की कीमतों में पिछले 18 महीनों में 50 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है, जिससे ग्रामीण आवास, कृषि मशीनरी और नलकूप सहित सिंचाई प्रणाली की लागत बढ़ी है। डीजल की कीमतों में सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क और मूल्यवर्धित कर (वैट) में कमी के माध्यम से कुछ चिंता दिखाने के बावजूद भी किसी भी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि भारत अपनी कच्चे तेल की जरूरत का 80 फीसदी आयात के माध्यम से पूरा करता है। ग्लोबल मार्केट में ऊर्जा उत्पादों की कीमतें आसमान छू रही है। हम पर्याप्त मात्रा में लौह अयस्क और स्टील का उत्पादन तो कर रहे हैं, लेकिन घरेलू बाजार अंतरराष्ट्रीय रुझानों के साथ इतना एकीकृत है कि दोनों को अलग नहीं किए जा सकता है।
यहां तक कि अगर हम खाद्य पदार्थों का एक और रिकॉर्ड उत्पादन कर लेते हैं तो कीमतों में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं दिखेगा क्योंकि मंहगाई का प्रभाव इनपुट लागत में आ गया है। अगर किसी कारण से मौसमी सब्जियों और आलू और टमाटर जैसी वस्तुओं के सभी दाम गिर जाते हैं, तो किसानों को बड़ा नुकसान होगा।
हम अक्सर सुनते कि जब कोई नई स्थिति बनती है तो उसी में सबको ढ़लना पड़ता है वह जीवन में सामान्य बात हो जाती है। उसी के साथ रहना पड़ता है। अब मान लिया गया है कि खाना पकाने का तेल 200 रुपये प्रति लीटर (10 से 15 रुपये कम या ज्यादा), और आलू, प्याज, टमाटर 50 से 80 रुपये प्रति किलों पर मिलना भी एक नई ‘समान्य स्थिति’ हो गई है । हालांकि यह अभी पूरी तरह से स्थापित नहीं हुआ लेकिन महंगाई की इस ‘नई सामान्य स्थिति’ के चलते आने वाले दिनों कृषि श्रमिकों सहित अन्य मजदूरी के दबाव को बढ़ाने वाला एक चक्र बन जाएगा ।
(प्रकाश चावला सीनियर इकोनामिक जर्नलिस्ट हैं और समसामयिक आर्थिक मुद्दों व नीतियों पर लिखते हैं)