एशिया और अफ्रीका में मनुष्य ने जो पहली फसल की खेती की थी वह मिलेट ही थे। छोटे बीज आकार के मिलेट पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इन्हें पीसकर आटा बनाया जा सकता है अथवा पशुओं के चारे के रूप में भी इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। शुष्क और कम पोषण वाली मिट्टी समेत अलग-अलग तरह के वातावरण में इनकी खेती की जा सकती है। इस तरह जो इलाके सूखे अथवा मिट्टी के क्षरण से प्रभावित रहते हैं वहां के किसानों के लिए यह प्रमुख फसल है। इनमें खाद्य सुरक्षा बढ़ाने की क्षमता के साथ अन्य फायदे भी हैं। यह प्रोटीन, फाइबर, विटामिन जैसे पोषक तत्वों के अच्छे स्रोत हैं। इनमें ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है इसलिए यह डायबिटीज की बीमारी से ग्रस्त अथवा उनकी आशंका वाले लोगों के लिए भी पोषक आहार हो सकते हैं। मिलेट ऐसी फसलें हैं जिनके लिए न्यूनतम इनपुट की जरूरत पड़ती है। इन पर कीटों अथवा बीमारियों के लगने का खतरा भी कम रहता है। इस तरह यह रासायनिक उर्वरकों पर किसानों की निर्भरता को भी कम करते हैं।
मिलेट को उपजाना आसान होता है। इनकी कटाई हाथों से ही की जा सकती है। इस तरह छोटे किसान भी इन्हें उगा सकते हैं। भारत तथा दुनिया के अन्य अनेक क्षेत्रों में मिलेट की खेती की प्रचुर संभावनाएं हैं। इनसे किसानों की आमदनी बढ़ सकती है साथ ही इनसे खाद्य और पोषण सुरक्षा भी मिल सकती है। लेकिन मिलेट का उत्पादन कई मुश्किलों का सामना कर रहा है। सभी प्रमुख मिलेट फसलों के रकबे और उत्पादन में गिरावट आई है। उत्पादन बढ़ाने के सरकार के प्रयासों के बावजूद ऐसा हो रहा है। एक समय मिलेट लोगों के भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा होते थे लेकिन हरित क्रांति के बाद गेहूं और चावल जैसी फसलों ने इनकी जगह ले ली।
2013-14 से 2021-22 के दौरान प्रमुख मिलेट फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 80 से 125 फ़ीसदी की बढ़ोतरी की गई है। इसके बावजूद बीते 8 वर्षों में इनका उत्पादन 7% घटकर 156 लाख रह गया है। लेकिन गेहूं और धान की तरह एमएसपी पर सरकारी खरीद नहीं होने के कारण किसान इनमें रुचि नहीं दिखा रहे हैं। ज्वार और रागी दोनों के उत्पादन में गिरावट आई है जबकि बाजरा का उत्पादन स्थिर बना हुआ है। जब तक इनकी खपत बढ़ाने के प्रयास नहीं होंगे तब तक किसान इनकी खेती की ओर आकर्षित नहीं होंगे। किसानों को मिलेट उत्पादन के लिए प्रेरित करने के लिए नीतिगत स्तर पर हस्तक्षेप की जरूरत है ताकि किसानों को उनके उपज की उचित कीमत मिले और रिटर्न धान जैसी फसलों से बेहतर हो।
भारत की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष घोषित किया है। इसका मकसद लोगों में मिलेट के महत्व को बताना तथा खाद्य सुरक्षा व पोषण सुरक्षा बढ़ाने के साथ टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना है।
भारत दुनिया में मिलेट का सबसे बड़ा उत्पादक है। ये मुख्य रूप से सूखे कृषि जलवायु वाले क्षेत्र में उगाए जाते हैं। भारत में हर साल लगभग 170 लाख टन मिलेट का उत्पादन होता है। यह एशिया के कुल मिलेट उत्पादन का 80% और दुनिया का 20% है। 2012 में 160.3 लाख टन मिलेट का उत्पादन हुआ था। एक दशक में 0.94% की सालाना वृद्धि के साथ यह 2022 में 176 लाख टन तक पहुंचा है। 2012 में भारत में मिलेट की खेती 154 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में हुई थी जो 2022 में घटकर 140 लाख हेक्टेयर रह गई। हालांकि मिलेट की उत्पादकता बढ़ी है। 2012 में यह 1.04 टन प्रति हेक्टेयर थी जो 2022 में 1.26 टन हो गई। यह सालाना 2% की वृद्धि को दर्शाता है।
भारत में राजस्थान में मिलेट का सबसे बड़ा उत्पादक है। 2020-21 में यहां 51.5 लाख टन मिलेट का उत्पादन हुआ था। यह देश में पूरे उत्पादन का 28.61% है। कर्नाटक दूसरे स्थान पर है जहां 25.6 लाख टन उत्पादन हुआ और यह देश के कुल उत्पादन का 14.26% था। मिलेट उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख राज्यों में महाराष्ट्र (25.1 लाख टन, 13.95%), उत्तर प्रदेश (22.9 लाख टन, 12.75%), हरियाणा (13.6 लाख टन, 7.58%) और गुजरात (10.9 लाख टन, 6.06%) शामिल हैं। इन छह राज्यों ने 2020-21 में देश के 80% में मिलेट का उत्पादन किया था।
वर्ष 2022 में भारत में लगभग 177.5 लाख टन मिलेट की खपत हुई। 2012 में यह 160.5 लाख टन थी। इस तरह एक दशक में इसमें 1% सालाना की दर से वृद्धि हुई है। 1960 में भारत में प्रति व्यक्ति मिलेट की खपत 30.94 किलोग्राम प्रतिवर्ष थी, यह 2022 में घटकर 3.87 किलोग्राम रह गई। उत्पादन लगभग एक समान बना रहा जबकि देश में आबादी बढ़ती रही। इस तरह प्रति व्यक्ति खपत में गिरावट आई। विभिन्न राज्यों में मिलेट की पैदावार अलग-अलग है। कई राज्यों में गेहूं और धान की तुलना में इसकी पैदावार बहुत कम होती है। राष्ट्रीय औसत ज्वार का एक टन, बाजरे का 1.5 टन, रागी का 1.7 टन है जबकि गेहूं का राष्ट्रीय औसत 3.5 टन और धान का 4 टन है। इसलिए बेहतर सिंचाई सुविधा उपलब्ध होने पर किसान धान, गेहूं, गन्ना अथवा कपास की खेती करना पसंद करते हैं।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने हाल के बजट में मिलेट पर काफी फोकस किया है। सस्टेनेबल अर्थात टिकाऊ खेती के तरीके के रूप में मोटे अनाज यानी मिलेट की प्रासंगिकता पर काफी बातें कही गई हैं। भारत में मिलेट की औसत पैदावार 1239 किलो प्रति हेक्टेयर है जबकि वैश्विक औसत 1269 किलो प्रति हेक्टेयर है। वित्त मंत्री ने हैदराबाद स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मिलेट रिसर्च को सेंटर ऑफ एक्सीलेंस में बदलने का प्रस्ताव रखा है। यह पहल भारत को मिलेट रिसर्च में ग्लोबल हब बनाने के मकसद से है। उन्होंने यह भी कहा कि फसल तैयार होने के बाद वैल्यू एडिशन, घरेलू खपत बढ़ाने और देश-विदेश में मिलेट प्रोडक्ट की ब्रांडिंग को भी सरकार की तरफ से मदद दी जाएगी।
सरकार को मिलेट की खपत बढ़ाने के उपायों पर विचार करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर 26 करोड़ एनरोल्ड छात्रों के लिए मध्यान्ह भोजन योजना में मिलेट बच्चों का मुख्य आहार हो सकते हैं। आंगनवाड़ी केंद्रों के जरिए 7.71 करोड़ बच्चों तथा 1.8 करोड़ गर्भवती तथा बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं को पूरक पोषण के रूप में मिलेट दिए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण तथा सक्षम आंगनवाड़ी एवं पोषण 2.0 योजनाओं के तहत 30496.82 करोड़ रुपए का बजट है जिसे मिलेट पर फोकस किया जा सकता है।
मिलेट को प्रमोट करने के लिए निम्नलिखित कदम भी उठाए जा सकते हैंः-
1.किसानों के लिए जागरूकता एवं प्रशिक्षण अभियान।
2.रिसर्च एंड डेवलपमेंट में निवेश, जैसे मिलेट की ऐसी नई वैरायटी विकसित करना जो सूखा तथा बीमारी रोधी हो तथा जिनकी उत्पादकता अधिक हो।
3.सिंचाई इन्फ्रास्ट्रक्चर में सरकार का निवेश तथा सिंचाई उपकरण खरीदने में किसानों को सब्सिडी। हालांकि मिलेट सूखा प्रतिरोध क्षमता वाली फसलें हैं फिर भी सिंचाई से इनकी उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।
4.मार्केट लिंकेज स्थापित करना जैसे किसानों को खरीदारों, प्रोसेसर तथा निर्यातकों के साथ जोड़ना।
5.सरकार तथा अन्य संगठन किसानों को एक्सटेंशन सेवाएं उपलब्ध करा सकते हैं। जैसे, तकनीकी सहायता, मिट्टी की जांच, फसल प्रबंधन सलाह इत्यादि।
इन उपायों पर अमल करके भारत में मिलेट का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इससे किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं और समग्र अर्थव्यवस्था को फायदा होगा।
(अभय दंडवते, नेशनल बल्क हैंडलिंग कॉरपोरेशन के चीफ रिस्क ऑफिसर और बसंत वैद, हेड मार्केट रिसर्च एंड प्राइस इंटेलीजेंस हैं)