भारत में राजनीति में सफलता और यहां तक कि महानता इस बात से देखी जाती है कि राजनीतिक नेता किस पद पर था, वह कितने दिनों तक उस पद पर रहा इत्यादि। लेकिन यह पैमाना गलत है। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने कभी कोई सरकार नहीं चलाई, लेकिन 20वीं सदी में वे किसी वायसराय अथवा प्रधानमंत्री से अधिक महत्वपूर्ण थे। इसलिए चौधरी चरण सिंह, जिन्हें नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही भारत रत्न दिया, का मूल्यांकन सत्ता के ढांचे में उनके स्थान से नहीं बल्कि उनकी उपलब्धियों से किया जाना चाहिए। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि कृषि के कलेक्टिवाइजेशन (ज्वाइंट फार्मिंग) की बुराइयों से लड़ाई में मिली सफलता थी।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में कलेक्टिवाइजेशन की परिभाषा इस प्रकार है- सोवियत सरकार द्वारा अपनाई गई नीति जिसे 1929 से 1933 के दौरान काफी सघनता से लागू किया गया। इसका उद्देश्य सोवियत संघ में पारंपरिक खेती को बदलने और कुलक (अमीर किसानों) की आर्थिक ताकत कम करना था। इस सामूहिकीकरण के तहत किसानों को अपनी व्यक्तिगत जमीन छोड़ कर बड़े सामूहिक खेत (कोलखोजी) में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया।
जैसा कि ब्रिटानिका ने लिखा है, इसके नतीजे बड़े भयावह निकले, उत्पादन गिर गया। इसके बावजूद सरकार कृषि उत्पादों को बड़ी मात्रा में हासिल करती रही ताकि औद्योगिक निवेश के लिए पूंजी की जरूरत पूरी की जा सके। इसका नतीजा यह हुआ कि 1932-33 में ग्रामीण इलाकों में भीषण अकाल पड़ गया और लाखों किसानों की मौत हो गई।
चीन में भी परिणाम अलग नहीं थे। ब्रिटानिका के अनुसार, 1955 में माओवादियों ने कृषि सामूहिकीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी। उसके बाद पूरे चीन में ग्रेट लीप फॉरवर्ड नाम से सामाजिक-आर्थिक अभियान चलाया गया। इसमें पारंपरिक पंचवर्षीय योजना में बदलाव करते हुए बड़ी आबादी को लघु उद्योगों (बैकयार्ड स्टील फर्नेस) में लगाया गया। इस प्रयोग के भी बुरे परिणाम निकले, भ्रम फैला। अक्षम प्रबंधन और प्राकृतिक आपदाओं के कारण 1959 से 1961 तक अकाल की स्थिति रही, जिसमें 1.5 से 3 करोड़ लोगों की जान चली गई।
समाजवाद और कम्युनिज्म के परिणाम देखिए- सामूहिकीकरण से पूरी दुनिया में 20 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हो गई, कम्युनिष्ट आततायियों ने अनेक सामूहिक हत्याएं कीं। शीत युद्ध खत्म होने के बाद यह सब दुनिया के सामने आया। 1950 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कार्ल मार्क्स और उनके अनुयायियों के अव्यावहारिक वादों से काफी प्रभावित थे। यही कारण था कि नेहरू साझा और सहकारी खेती को बढ़ावा दे रहे थे।
लेकिन कृषक पृष्ठभूमि वाले चरण सिंह बेहतर जानते थे। ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह थी कि उनमें नेहरू के विचारों का विरोध करने का साहस था। उस समय ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले और नेता भी थे लेकिन उन्होंने सामूहिकीकरण के खतरनाक विचार का विरोध नहीं किया। यह कुछ वैसा ही था जैसे आज भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता किसी नीतिगत मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करे। चरण सिंह उस समय कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने 1959 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के सालाना सत्र में अपने विचार सबके सामने रखे।
उसी साल उन्होंने ‘ज्वाइंट फार्मिंग एक्सरेडः द प्रॉब्लम एंड इट्स सॉल्यूशन’ (साझा खेती पर नजरः समस्या और इसके समाधान) नाम से किताब लिखी। इसमें उन्होंने नेहरू के अव्यावहारिक विचारों के खिलाफ प्रभावशाली तर्क दिए हैं। उन्होंने लिखा है, “जमीन के साथ किसानों का जुड़ाव दुनिया के हर देश में है। जैसे, फ्रांस के किसान अपनी जमीन को ‘मिस्ट्रेस’ कहकर बुलाते हैं।”
उन्होंने आगे लिखा है, “मानव स्वभाव हर जगह एक सा होता है।” हमारे किसान जमीन को धरती माता कहते हैं क्योंकि यह सभी जीवों के लिए भोजन उपलब्ध कराती है। हर जगह किसान स्वतंत्रता के लिए जमीन को जरूरी समझते हैं। इसलिए सामूहिकीकरण की अर्थव्यवस्था का वह भावनात्मक तौर पर विरोध करेगा। आखिरकार यह आर्थिक क्षमता या संगठन के रूप का सवाल नहीं, बल्कि सवाल यह है कि व्यक्तिवाद या सामूहिकतावाद में से कौन बना रहेगा। खेती अर्थव्यवस्था का एक रूप मात्र नहीं बल्कि जीवन का भी एक रूप है।
दुर्भाग्यवश चरण सिंह को किसानों के ऐसे नेता के रूप में जाना जाता है जो चंद हफ्तों के लिए प्रधानमंत्री बने। इसका कारण यह है कि हमारे देश में लोग उन आपदाओं के बारे में नहीं जानते जहां सामूहिकीकरण लागू किया गया। भारत में वैसी आपदा की आशंका को भांपकर उन्होंने उसे रोकने में जो भूमिका निभाई, उससे भी लोग अनभिज्ञ हैं।
चौधरी चरण सिंह सामूहिकीकरण जैसे समाजवादी चलन के लोकतंत्र पर अहितकारी प्रभाव से भी वाकिफ थे। उन्होंने लिखा है, “आजादी का पौधा सामूहिक खेत की जमीन पर नहीं उग सकता। जब हम भारत में ऐसे लोगों को देखते हैं जो लोकतंत्र का तो समर्थन करते हैं, लेकिन इसके साथ ग्रामीण समस्याओं के समाधान के लिए विशाल, साझा तौर पर चलने वाली उत्पादन इकाइयों की स्थापना की बात करते हैं, तो वैसे लोगों के साथ सहानुभूति ही रखी जा सकती है, और यह कामना की जा सकती है कि वे आराम कुर्सी पर बैठकर कोई समाधान बताने से पहले ग्रामीण भारत को ठीक से जानें।” सौभाग्यवश चौधरी चरण सिंह ग्रामीण भारत को भलीभांति जानते थे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)