सरकार ने दिसंबर 2018 में कृषि निर्यात नीति की घोषणा की। इसके दो प्राथमिक उद्देश्य थे। पहला, वैश्विक मूल्य श्रृंखला के साथ एकीकरण करके विश्व कृषि निर्यात में भारत की हिस्सेदारी दोगुना करना और दूसरा, किसानों को विदेशी बाजारों में निर्यात के अवसरों का लाभ उठाने में सक्षम बनाना। यह तर्क दिया गया कि वैश्विक मूल्य श्रृंखला में भारतीय कृषि का एकीकरण "उत्पादकता बढ़ाने और लागत में प्रतिस्पर्धी क्षमता हासिल करने के साथ सर्वोत्तम कृषि पद्धति अपनाने के श्रेष्ठ तरीकों में से एक है"। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने 2016 में 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया था, उसे पूरा करने के लिए कृषि निर्यात को बढ़ावा देना अनिवार्य माना गया।
2020 में लाया गया विवादास्पद कृषि सुधार कानून भारत को कृषि निर्यात केंद्र में बदलने के लिए उठाया गया एक और कदम था। यह आधी सदी से भी अधिक समय से चली आ रही और मुख्य रूप से घरेलू खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित भारत की कृषि नीति से एक अलग रुख को दर्शाता है। पिछली किसी भी सरकार ने निर्यात को कृषि नीति का प्रमुख लक्ष्य नहीं बनाया था। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता की नीति, जो 1960 के दशक के मध्य में हरित क्रांति को अपनाने की मूल वजह थी, कमोबेश अपरिवर्तित रही। इस तथ्य के पक्ष में सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य यह है कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत की सभी सरकारों ने तर्क दिया कि देश की खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को देखते हुए टैरिफ के जरिए संरक्षण और सब्सिडी महत्वपूर्ण कदम हैं। इसी परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कृषि निर्यात को बढ़ावा देना इस क्षेत्र के लिए नीतिगत घोषणाओं के केंद्र में कभी नहीं रहा।
कृषि निर्यात को बढ़ावा देने में यह झिझक संभवतः उचित थी क्योंकि प्रमुख फसलों के उत्पादन में एक हद से अधिक अनिश्चितता थी। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय कृषि स्वयं को खास उत्पादन चक्रों से मुक्त नहीं कर सकी, जिससे उत्पादन के स्तर में स्थिरता भी कायम नहीं रखी जा सकी। इसका नतीजा यह हुआ कि बासमती चावल के निर्यात को छोड़कर, जो वैसे ही देश के आम नागरिकों की थाली तक नहीं पहुंचता, भारत खुद को कृषि वस्तुओं के प्रमुख निर्यातक के रूप में स्थापित नहीं कर सका। एक तरफ तो यह क्षेत्र संरचनात्मक संकटों में फंस गया और दूसरी तरफ, किसान इस बात को लेकर आंदोलन करते रहे कि खेती उनके लिए मुनाफे का काम नहीं रह गया है। ऐसे में अधिकांश फसलों का उत्पादन स्तर बनाए रखना स्पष्ट रूप से एक कठिन काम था।
देश को एक प्रमुख कृषि निर्यातक के रूप में स्थापित करने में जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उन्हें कृषि निर्यात नीति अपनाने के बाद के घटनाक्रमों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वर्ष 2020-21 में कृषि वस्तुओं के निर्यात में 25% से अधिक की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। जब भारत की कुल निर्यात वृद्धि सात प्रतिशत से कम थी, कृषि निर्यात में ऐसी वृद्धि एक स्वागत योग्य घटना थी। दोनों प्रमुख अनाजों का निर्यात तो और भी प्रभावशाली था। गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन और बढ़ते बफर स्टॉक के चलते इसका निर्यात बढ़कर 55 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया, जो एक साल पहले केवल 6.2 करोड़ डॉलर था। इस प्रकार, जिस कमोडिटी में भारत हमेशा वैश्विक बाजार में एक छोटा खिलाड़ी रहा, उसमें 2014-15 के बाद से निर्यात का उच्चतम स्तर दर्ज किया गया। भारत अपने पड़ोसियों के लिए गेहूं के एक प्रमुख निर्यातक के रूप में उभरा और बांग्लादेश इसका सबसे बड़ा लाभार्थी था।
अगले वर्ष घरेलू उत्पादन और स्टॉक का स्तर बेहद अनुकूल रहने के कारण गेहूं का निर्यात 2.1 अरब डॉलर के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गया। भारत ने सिर्फ बांग्लादेश को 1.1 अरब डॉलर का निर्यात किया, जो एक वर्ष पहले की तुलना में तीन गुना था। पश्चिम और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देश भारत के बाजार के रूप में उभरे और भारत गेहूं के शीर्ष 10 निर्यातकों में शुमार हो गया।
इसी अवधि के दौरान अच्छे घरेलू उत्पादन और बेहतर स्टॉक के कारण गैर-बासमती, या चावल की सामान्य किस्मों के निर्यात में भी लगातार वृद्धि हुई। वर्ष 2020-21 में चावल की इस किस्म का निर्यात तो बासमती से भी अधिक हो गया, जो अब तक का सबसे अधिक कृषि निर्यात है। चावल निर्यात बाजार पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के अलावा भारत को बेनिन और टोगो सहित अफ्रीका में नए बाजार मिले थे। भारत के चावल निर्यात से बांग्लादेश और चीन को भी कोविड महामारी के बाद की समस्याओं से उबरने में मदद मिली।
लेकिन, पिछले दशक के अंत से कृषि निर्यात में तेजी की जो उम्मीदें बनी थीं, वह बीते वित्त वर्ष के शुरुआती महीनों में लगभग गायब हो गईं। स्थिति में उलटफेर 2022-23 में हुआ था, क्योंकि गेहूं के भंडार में कमी के संकेत दिख रहे थे। आपूर्ति कम होने के साथ सरकार ने गेहूं के निर्यात पर अंकुश लगा दिया, जो घटकर 1.5 अरब डॉलर रह गया। चावल निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया और पारबॉयल्ड चावल पर 20% एक्सपोर्ट ड्यूटी लगा दी गई।
गेहूं उत्पादन में बड़ी गिरावट के परिणामस्वरूप 2023-24 में इसका निर्यात गिरकर 5.4 करोड़ डॉलर रह गया, जो 2011-12 के बाद सबसे निचला स्तर है। पारबॉयल्ड चावल के निर्यात पर सरकार के प्रतिबंध का बांग्लादेश पर बड़ा प्रभाव पड़ा, जो भारत से इस किस्म के चावल का मुख्य आयातक है।
पिछले दो वर्षों के अनुभव भारत के कृषि नीति निर्माताओं के लिए बड़ी सीख हैं कि एक विश्वसनीय कृषि निर्यातक के रूप में उभरने के लिए देश की कृषि की बुनियाद को काफी मजबूत किया जाना चाहिए। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि सरकार का निर्यात पर प्रतिबंध लगाना उचित था, क्योंकि खाद्य महंगाई घरेलू अर्थव्यवस्था में अस्थिरता का खतरा पैदा कर रही थी। लेकिन इस तरह के अचानक प्रतिबंध से वैश्विक आपूर्ति में गंभीर व्यवधान पैदा होता है, जिससे खाद्य आयातक देशों में खाद्य असुरक्षा बढ़ जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के पास अपने पड़ोसी देशों के साथ अफ्रीका के भी कई देशों में खाद्यान्न की कमी को पूरा करने की क्षमता है, लेकिन इसके पास आपूर्ति के विश्वसनीय स्रोत के रूप में वैश्विक बाजार में बने रहने की क्षमता की कमी है। यह समस्या दशकों से इस क्षेत्र की उपेक्षा से उत्पन्न हुई है। सवाल है कि क्या यथास्थिति को बदलने की राजनीतिक इच्छाशक्ति है?
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट में विशिष्ट प्रोफेसर हैं)